“क्या सुरभि ने उसे माफ़ कर दिया?” उसने स्क्रीन को देर तक देखा। उस ‘like’ में न कोई सवाल था, न कोई जवाब, पर समीर के लिए यह एक इशारा था — कि उसकी बात वहाँ पहुँच गई है जहाँ वह पहुँचाना चाहता था।
उस रात दोनों ने अपने-अपने शहर में चैन की नींद सोई। दोनों जानते थे — कुछ कहानियाँ चुपचाप भी पूरी हो जाती हैं।
———–अब आगे————-
एक और जगह, किसी और स्क्रीन पर वही कहानी खुली हुई थी।
सुमन ने धीरे-धीरे कुर्सी की पीठ से सिर टिकाते हुए एक लंबी साँस ली और मोबाइल की ओर देखा। उसकी उँगलियाँ फोन की सतह पर ऐसे चल रही थीं, जैसे हर शब्द को छूकर महसूस करना चाहती हो और अक्षरों के पीछे छिपी धड़कनों को पकड़ लेना चाहती हो।
उसकी आँखों का भाव हर पंक्ति के साथ बदल रहा था। कभी हल्की-सी शिकन माथे पर उभर आती, जैसे कोई सवाल भीतर उठ खड़ा हुआ हो; तो कभी आँखों में चमक तैर जाती, जैसे किसी पुराने भाव ने अनायास जगह बना ली हो। पढ़ते-पढ़ते उसकी गति धीमी होती गई, और फिर अचानक उसकी नज़र ठिठक गई—ठीक उस हिस्से पर जहाँ समीर ने ट्रेन में सुरभि को देखने का दृश्य लिखा था।
वह दृश्य जैसे शब्दों से निकलकर सीधे सुमन के सामने जीवंत हो उठा। उसकी साँसें एक पल को रुक-सी गईं। उसने महसूस किया कि समीर की कलम से निकली यह पंक्ति सिर्फ़ एक घटना नहीं थी, बल्कि उस पल का साक्षात प्रतिबिंब थी, जिसमें उसकी जगह कोई और थी—सुरभि।
सुमन ने ठंडी आह भरी, और होंठों पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई, जो पूरी तरह मुस्कान नहीं थी—उसमें स्वीकृति भी थी, कसक भी थी। उसने स्क्रीन पर उँगली फेरी, मानो उन शब्दों को सहला रही हो। फिर बेहद धीमे स्वर में, जैसे खुद से बात कर रही हो, फुसफुसाई— “कहानी अच्छी लिखी है, समीर… बहुत अच्छी।”
लेकिन अगले ही पल, उसने नीचे नज़र झुकाकर जैसे खुद से कोई क़बूलनामा किया — “पर तुम तो आज भी पूरा सच नहीं जानते… और शायद कभी जानोगे भी नहीं।” और वह धीरे-धीरे स्टडी रूम की तरफ बढ़ गई ।
स्टडी रूम का दरवाज़ा आधा खुला था, समीर की नज़र अभी भी मोबाइल स्क्रीन पर टिकी थी — वह बार-बार वही नोटिफिकेशन देख रहा था — “Surabhi Sharma liked your post.”
हर बार यह संदेश उसके भीतर कहीं गहरे तक दस्तक दे रहा था, मानो अतीत का कोई दरवाज़ा, जिसे उसने सालों पहले बंद कर दिया था, आज फिर खुलने लगा हो।
कमरे में पहुँच कर सुमन ने उसकी तरफ देखकर धीरे से कहा, “समीर… तुम अब मुझसे बातें छुपाने भी लगे हो?
तुमने मुझे बताया तक नहीं कि तुम सुरभि से मिले थे।”
समीर अचानक सुमन के सवाल पर चौंक गया। उसने सुमन को देखा, आँखों में झिझक और चेहरे पर असमंजस साफ़ झलक रहा था। शब्द उसके गले तक आए, मगर निकलते-निकलते अटक गए — “मिले? नहीं… बस, वो…”
उसकी आवाज़ थम गई। होंठ आधे खुले रह गए और निगाहें ज़मीन पर झुक गईं, जैसे सच कहने से डर रहा हो।
कमरे में खामोशी फैल गई थी । दीवार की घड़ी की टिक-टिक और खिड़की से आती हल्की हवा की सरसराहट ही उस सन्नाटे को तोड़ रही थी।
कुछ क्षण यूँ ही बीत गए। फिर समीर ने गहरी साँस ली, जैसे भीतर से दबे बोझ को बाहर निकालना चाहता हो। उसने धीमे स्वर में उसने ट्रेन में हुई मुलाक़ात का किस्सा सुनाना शुरू किया । वह बोलता गया और सुमन चुपचाप सुनती रही। उसकी आँखें समीर के चेहरे पर जमी थीं, और समीर की आवाज़ हर शब्द के साथ भारी होती जा रही थी। जब तक उसने पूरा किस्सा सुना डाला, उसकी सांसों में थकान और शब्दों में एक अजीब-सी हार महसूस की जा सकती थी।
सुमन ने कुर्सी खींचकर सामने बैठते हुए, अपनी आवाज़ में एक बनावटी कोमलता घोल दी। उसकी आँखें समीर पर टिकी थीं, होंठों पर हल्की-सी मुस्कान, लेकिन भीतर की टीस साफ़ झलक रही थी।
“मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ, समीर,” उसने धीमे स्वर में कहा, “जानते हो, अगर मैं मजबूर न होती… तो शायद आज तुम और सुरभि एक साथ होते। तुम्हारा अतीत इतना अधूरा न होता।”
यह सुनते ही समीर का दिल भारी हो उठा। उसे लगा मानो किसी ने पुराने ज़ख्म पर उँगली रख दी हो। उसकी आँखें एक पल को शून्य में टिक गईं और उसके ज़ेहन में वह घटना फिर से ताज़ा हो उठी — जब सालों पहले, एक दिन समीर को अचानक सुमन की माँ का फोन आया था। उनकी आवाज़ में घबराहट थी —”बेटा, ज़रा घर आओ… बात बहुत जरूरी है।”
चूँकि सुमन उससे पहले ही उसे फ़ोन करके अपनी जिंदगी के साथ हुए हादसे की बात बता चुकी थी, समीर को पता था कि वे किस विषय में बात करना चाहतीं हैं।
जब वह पहुँचा, तो कमरे में अजीब-सा भारीपन था। सुमन की माँ उसके सामने आईं। उनकी आँखें लाल थीं, जैसे बहुत देर से रो रही हों। फिर धीमे स्वर में उन्होंने कहा था — “बेटा, तुम सुमन की हालत देख रहे हो… अब हालात ऐसे हैं कि तुम्हें उससे शादी करनी ही होगी।”
जब समीर ने चौंककर उनकी ओर देखा तो वे बोलीं , “वरना वह अपने आप को ख़त्म कर लेगी… और अगर जी भी गई, तो यह बच्चा बिना बाप के पैदा होगा। तुम सोच सकते हो कि सुमन, उसके बच्चे और हमारे परिवार की इज़्ज़त का क्या होगा।”
उस समय समीर को लगा था, मानो नैतिकता, समाज और ज़िम्मेदारी की पूरी गठरी उसके कंधों पर डाल दी गई हो। उसने बिना ज्यादा सोचे समझे बस हामी भर दी थी। उसे लगा, यही उसका धर्म है — यही सही रास्ता है।
आज… वही सुमन उसकी पत्नी थी। उसकी आवाज़ धीमी थी — “क्या तुम सोचते हो, मैंने खुशी-खुशी ये रिश्ता किया था? नहीं, समीर… मैं भी मजबूर थी। मम्मी ने कहा था, अगर शादी नहीं हुई, तो बच्चा बिना नाम का रह जाएगा… और मैं बदनाम हो जाऊँगी।”
यह बोलते हुए उसकी आँखों में नमी थी। लेकिन समीर को उसमें एक अजीब-सी ठंडक और स्थिरता नज़र आई। जैसे ये आँसू किसी पुराने अभ्यास का हिस्सा हों, जिनका काम केवल परिस्थिति को और भारी बना देना हो।
समीर चुप रहा। वह भली-भाँति अपने त्याग की कीमत जानता था। उसे यह भी महसूस था कि कैसे उसने सुरभि जैसी मासूम लड़की को विरह की आग में छोड़ देने का पाप किया था। पर वह हर बार अपने आप को तसल्ली देता कि कम से कम उसकी वजह से सुमन और उसकी इज़्ज़त बच गई।
पर शादी के दूसरे ही दिन… सुमन का अकेले ही डॉक्टर के पास चले जाना और आकर ठंडी आवाज़ में कहना —
“गर्भपात हो गया है।” और फिर चुपचाप अपने कमरे में चले जाना…
यह बात सिर्फ अजीब ही नहीं, बल्कि कहीं न कहीं उसके मन में एक घाव छोड़ गई थी।
समीर सीधे-सीधे सुमन से सवाल करना चाहता था कि क्या सचमुच गर्भपात हुआ था?
मगर वह जानता था कि सुमन बुरी लड़की नहीं है; कम-से-कम उसने हमेशा यही माना था। उसके स्वभाव में छल या धोखे जैसी कोई बात उसे कभी दिखाई नहीं दी थी। तो फिर… वह उसके साथ ऐसा कैसे कर सकती है? पर शादी के बाद छोटी मोटी न जाने कितनी ही बातें थीं जो उसके मन में बार – बार यह शक पैदा करती थीं।
हर बार उसके होंठों तक आते-आते सवाल रुक जाता। उसके मन का एक हिस्सा कहता—“सवाल पूछकर क्या करोगे? जो बीत गया, उसे बदल तो नहीं सकते।” और दूसरा हिस्सा कहता—“नहीं, तुम्हें सच जानना ही होगा, वरना ये शक तुम्हें ज़िंदगीभर कचोटता रहेगा।”
यही द्वंद्व उसे भीतर से तोड़ता रहा। उसने खुद को समझाने की कोशिश की—
“शायद यही सच है… और शायद यही मेरी नियति।”
वर्षों बाद आज फिर वही बातें …भीतर का शोर और कमरे की खामोशी… अब दोनों पर भारी पड़ रही थी।
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अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’
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