भोपाल के एक बड़े और समृद्ध मुहल्ले में उस दिन अफरा-तफरी मच गई।
एक आलीशान कोठी के भीतर से तेज़ बदबू आ रही थी।
लोगों ने पहले सोचा कि शायद कोई जानवर मर गया होगा, लेकिन जब बदबू असहनीय होने लगी तो सबको अंदेशा हुआ कि मामला कुछ और है।
मुहल्ले वालों ने मिलकर पुलिस को बुलाया। दरवाज़ा तोड़ा गया तो भीतर का दृश्य देखकर सबकी रूह कांप गई।
ज़मीन पर सफेद साड़ी में लिपटी, कभी समाज की जानी-मानी डॉक्टर राधिका का निर्जीव शरीर पड़ा था।
तीन दिन से उनकी लाश वहीं सड़ रही थी।
मुहल्ले में सन्नाटा छा गया। किसी ने तुरंत उनके बड़े बेटे राम को फोन मिलाया—
“राम जी, आपकी माँ का निधन हो गया है। कृपया आप तुरंत आइए और अंतिम संस्कार की व्यवस्था कीजिए।”
लेकिन उधर से जो जवाब आया, उसने सबको स्तब्ध कर दिया।
राम ने ठंडे स्वर में कहा—
“मैं अभी एक अहम मीटिंग में हूँ। आ नहीं सकता। वैसे माँ के संस्कार आप लोग कर दीजिए। मेरे दो और भाई हैं—रमेश और राजेश। उनका पता नोट कर लीजिए, शायद वे आ जाएँ।”
लोगों ने फोन मिलाया।
रमेश बोला—“मैं अभी अमेरिका में हूँ, नहीं आ पाऊँगा।”
राजेश ने कहा—“मेरी तबियत ठीक नहीं है, डॉक्टर ने बाहर निकलने से मना किया है।”
मुहल्ले वालों के लिए यह किसी अविश्वसनीय घटना से कम न था।
तीन-तीन बेटों की माँ, जिसने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, उसी के अंतिम संस्कार में कोई बेटा शामिल होने को तैयार नहीं था।
आख़िरकार समाज ने ही उनकी चिता सजाई। कुछ लोगों ने लकड़ियाँ जुटाईं, कुछ ने गंगा जल और कपड़े।
जिस औरत ने कभी शहर के अस्पताल में हज़ारों लोगों की जान बचाई थी, उसका दाह संस्कार ऐसे हुआ मानो वह कोई लावारिस हो।
सबकी आँखों में एक ही सवाल थे—
“इतनी बड़ी कोठी, इतनी दौलत, तीन बेटे… फिर भी अंत इतना अकेला क्यों?”
तभी भीड़ में से एक परिचित चेहरा निकला—पलटू काका।
कोई पूछता—“अरे! यह तो वही ऑटो वाला है, जो रोज़ मोहल्ले के बाहर खड़ा मिलता है।”
किसी ने कहा—“अरे, ये तो राधिका दीदी के दूर के रिश्तेदार हैं शायद।”
पलटू काका धीरे-धीरे आगे आए और राधिका के शव के पास खड़े होकर रो पड़े।
फिर उन्होंने समाज को संबोधित किया—
“आप सब सोच रहे होंगे कि तीन बेटों के होते हुए भी अंतिम संस्कार मैंने क्यों कराया। तो सुनिए…।”
पचास साल पहले की बात है।
राधिका दीदी ने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की थी। उस समय वह शहर की पहली महिला डॉक्टरों में गिनी जाती थीं।
पढ़ाई के दौरान ही उन्हें अपने सहपाठी सुरेश से प्रेम हो गया।
दोनों ने समाज की परवाह न करते हुए शादी कर ली।
लेकिन यह शादी उनके परिवार और समाज को नागवार गुज़री।
लोगों ने तरह-तरह की बातें बनाईं।
“अपनी जाति से बाहर शादी की है, माँ-बाप की इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी।”
“इतनी पढ़ाई करवा दी, और बदले में यही किया!”
धीरे-धीरे राधिका और सुरेश समाज से कट गए।
उनके अपने भी उनसे दूरी बनाने लगे।
यहाँ तक कि मैं—उनका छोटा भाई पलटू—भी उनसे खुलकर नहीं मिल पाता था।
हाँ, कभी-कभार आटो लेकर उनके घर के बाहर खड़ा हो जाता।
वो बालकनी से देख लेतीं, मुस्कुरा देतीं। लेकिन कोई बातचीत नहीं होती।
सुरेश का साथ उन्हें ज्यादा दिन नहीं मिला। एक बीमारी ने उन्हें छीन लिया।
उसके बाद राधिका ने पूरी ज़िंदगी अपने बेटों को पालने और अपने पेशे में लोगों की सेवा करने में लगा दी।
लेकिन समाज और रिश्तेदारों से वह बिल्कुल अलग-थलग पड़ गईं।
समय बीता।
राधिका के तीनों बेटे बड़े होकर विदेशों और बड़े-बड़े शहरों में बस गए।
बचपन में माँ का साया चाहिए था, तो उन्होंने सबकुछ छोड़कर बेटे सँवारे।
लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े होते गए, माँ उनके लिए बोझ बनती चली गई।
राम कॉर्पोरेट जगत का बड़ा अधिकारी बन गया।
रमेश विदेश चला गया।
राजेश ने अपनी दुनिया अलग बना ली।
तीनों को सिर्फ माँ की कोठी और संपत्ति में दिलचस्पी थी।
माँ कभी फ़ोन करतीं तो कहते—“हाँ माँ, व्यस्त हूँ, बाद में बात करूंगा।”
त्योहार आते तो कहते—“माँ, आप ही संभाल लीजिए। हम नहीं आ पाएंगे।”
राधिका ने कभी किसी से शिकायत नहीं की।
बस चुपचाप अपने अकेलेपन को ओढ़ लिया।
बरसों तक लोगों ने उन्हें अस्पताल में सेवा करते देखा, फिर अचानक वह गुमनाम हो गईं।
तीन दिन पहले मैं (पलटू काका) किसी काम से जबलपुर गया था।
सोचता था लौटकर दीदी से ज़रूर मिलूँगा।
लेकिन इस बीच उनकी साँसें थम गईं।
किसी को खबर तक न हुई।
तीन दिन तक लाश भीतर पड़ी रही।
तभी बदबू आई और समाज ने पुलिस को बुलाकर दरवाज़ा तोड़ा।
आज यह सब देखकर मेरा दिल रो रहा है।
एक माँ, जिसने जीवन भर दूसरों की सेवा की, जिसने अपने बेटों के लिए सबकुछ कुर्बान किया—उसके ही बेटे उसके संस्कार में नहीं आए।
पलटू काका की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उनके शब्द सीधे दिल में उतर रहे थे।
“भाइयों,” उन्होंने कहा,
“आज आपने देखा कि दौलत से जीवन नहीं चलता। समाज से कटे इंसान को आखिर में समाज ही भूल जाता है।
राधिका दीदी ने अपने परिवार से मुँह मोड़ लिया, क्योंकि उन्हें समाज ने ठुकराया था। लेकिन असली गलती यह थी कि उन्होंने रिश्तों को जोड़कर रखने की कोशिश ही नहीं की।
बच्चे बड़े हुए तो अपनी-अपनी दुनिया में खो गए। और आखिर में जो हुआ, वह हम सबके सामने है।”
भीड़ सन्न थी।
कोई कह रहा था—“सच में, बेटों का दिल कितना पत्थर हो गया है।”
कोई बोला—“ये वक्त हमें चेतावनी दे रहा है कि अपने बड़ों को कभी अकेला मत छोड़ो।”
पलटू काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा—
“हर इंसान को समाज चाहिए। अकेलापन इंसान को खा जाता है।
याद रखो, माँ-बाप को छोड़कर दौलत के पीछे भागने वाले कभी सुखी नहीं रहते।
आज राधिका दीदी का जीवन हमें यही सिखा गया।”
यह कहकर पलटू काका अपने ऑटो की तरफ बढ़े।
उन्होंने गेट बंद किया और चुपचाप निकल गए।
मुहल्ले वाले देर तक वहीं खड़े रहे, जैसे पत्थर के हो गए हों।
हर कोई मन ही मन सोच रहा था—
“कितनी बड़ी कोठी, कितनी दौलत… मगर दिल इतना छोटा।
आखिरकार माँ की चिता को बेटे नहीं, एक गरीब ऑटो चालक भाई ने आग दी।”
(रचना मौलिक और अप्रकाशित है इसे मात्र यहीं प्रेषित कर रहा हूं।)
#रचनाकार -परमा दत्त झा, भोपाल।