जगत नारायण जी अपने घर के बैठका में बैठे थे। चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ थीं, पर उनमें जीवन का अनुभव भी झलकता था। उसी समय पड़ोसी सुबोध जी आकर पूछ बैठे—
“अरे सर जी! आप यहाँ कैसे ? आपके तो तीन-तीन बेटे हैं, तीनों अच्छी नौकरियों में हैं, फिर भी आप उनके साथ क्यों नहीं रहते?”
जगत नारायण जी मुस्कराए, जैसे यह सवाल उन्हें बार-बार सुनने को मिलता हो। धीरे से बोले—
“सुबोध भैया, रास्ता अगर हम खुद चलकर नहीं देखेंगे तो कैसे जान पाएंगे कि वे अच्छा है या बुरा? लोग चाहे जितना कहें कि बेटों के साथ रहो, सुख मिलेगा, पर जब तक अनुभव नहीं करेंगे, सच्चाई कैसे पता चलेगी।”
सुबोध जी चुपचाप सुनने लगे। जगत नारायण जी ने धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया—
“हम गए थे अपने मझले बेटे के पास। सोचकर गए थे कि अब बहू-बच्चों के साथ रहेंगे तो जीवन में रौनक बढ़ेगी। पर वहां जाकर समझ आया कि स्वतंत्रता की कोई कीमत ही नहीं बचती। खान-पान से लेकर बोलचाल तक सब उनके हिसाब से। अपने अस्तित्व जैसा कुछ रहा ही नहीं।
कहने को तो घर में दो-दो नौकर थे, फिर भी बच्चों की देखभाल भाभी खुद से करतीं व उन्हें खुद काम करने को कहतीं।
बहू कह देती—‘मम्मी जी, यह मेड से क्यों नहीं कराया? आप आराम क्यों नहीं करतीं?’ पर भैया, सच्चाई यह है कि छोटे बच्चों को कौन-सी कामवाली संस्कार सिखा देगी ? बच्चों को सिखाना, पुचकारना उनके नखरे—यह सब माँ जैसी देखभाल से ही सम्भव है। तुम्हारी भाभी दिनभर लगी रहतीं पर वह सब व्यर्थ का था। बहू उनके किए कराये में 1 मिनट में पानी फेर देती और अगर भाभी घर से बाहर निकल जातीं तो उसमें भी आफत ,”मम्मी जी को तो घर की फिक्र ही नहीं रहती अपना घर समझती ही नही ।
खाने में सब्जी पूछो क्या बनवाना है तो आपको समझ नहीं पड़ता। बनवा कर दो भी रख दो तो उस पर भी मीन मेख ,कोई भी सब्जी ढंग की नहीं बनवाई अब बच्चे क्या खायेगे?
कहते-कहते जगत नारायण जी की आवाज़ भारी हो गई। उन्होंने आगे कहा—
“हम खुद भी हर दिन महसूस करने लगे थे कि हमारा होना या न होना बराबर है। खाने की 10 व्यंजनों की थाली सामने आ जाती, पर उसमें अपना स्वाद नहीं। घर भरा हुआ था, पर उसमें अपनापन कहीं खो गया था। बहू-बच्चों की अपनी दुनिया थी, और हम उसमें अनचाहे जैसे थे।
बेटा क्या समझ रहा था कह नहीं सकते सच बताएं भैया रोज-रोज का झूठा सुनते वह भी एक दिन सत्य नजर आने लगता है और फिर सफाई देने से फायदा भी क्या? जब एक तरफा ही कोई सजा सुना दे । इतनी भी पारदर्शिता न रह जाए कि अपनी बात कहने का हक भी खो जाए और अंत में बात वही कि हम पुराने जमाने के हैं हमने देखा नहीं हम टुटपुंजे में रहते आए हैं।
एक दिन तो हद हो गई। तुम्हारी भाभी ने बहू से इतना कह दिया कि बेटा तुम किचेन में सामान बहुत फैला देती हो ,आधा घंटा समय लग जाता है समेटने में जो सामान जहां से लो वही रख दो, थोड़े से समय में हो जाता है। बस फिर क्या था महाभारत शुरू हो गई घर में उठा पटक । इससे तो अच्छा मैं 24 घंटे की नौकरानी लगा लूं बहू बोली।
यह बात भाभी को भैया बहुत खल गई सच पूछा जाए तो क्या बहू भाभी से 24 घंटे की नौकरानी का काम निकाल रही थी । अब बात एक दिन की नहीं थी मैं भी आखिर सच्चाई को नकार कब तक उसे झुठलाता। बस, उसी दिन मन के भीतर से आवाज़ आई कि अब हमें लौट चलना चाहिए।”
सुबोध जी ने धीरे से पूछा—
“तो झगड़ा हुआ था क्या?”
जगत नारायण जी ने सिर हिलाया—
“नहीं भैया, कोई झगड़ा नहीं। यही तो सबसे बड़ा दुख है कि बिना झगड़े के भी हम पराये लगने लगे। छोटी-छोटी बातों की चुभन ने हमें तोड़ दिया। अपनी स्वतंत्रता भी गई, और अपनी सुख-सुविधा का भी कोई अर्थ न रहा। तभी सोचा—जब तक अपने हाथ-पाँव चल रहे हैं, तब तक यहीं रहना ठीक है। वे अपने में खुश, हम अपने में खुश। यही ईश्वर की मर्जी है।”
बैठक में सन्नाटा छा गया। जगत नारायण जी ने आसमान की ओर देखते हुए कहा—
“भैया, जीवन का असली सुख तब है जब इंसान अपने अस्तित्व को बचाकर जी सके। बेटे-बेटियाँ चाहे कितने भी बड़े हो जाएँ, पर माता-पिता को भी अपनी आज़ादी चाहिए। और जब घर में रहने से ही अपनेपन का स्वाद मिट जाए, तो अकेले रह लेना ही बेहतर है।”
सुबोध जी की आँखें नम हो गईं। उन्हें पहली बार समझ आया कि अकेलापन हमेशा कमी का नाम नहीं होता, कभी-कभी यह आत्म-सम्मान की रक्षा का नाम भी होता है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि माता-पिता को केवल सहारे की ज़रूरत नहीं होती, उन्हें अपने अस्तित्व, सम्मान और स्वतंत्रता की भी ज़रूरत होती है। कभी-कभी बेटों के साथ रहना सुख नहीं, बल्कि अपने होने की पहचान खोने जैसा हो जाता है। मेरी कहानी मित्रों आपको कैसी लगी अपने कॉमेंट्स देकर अवश्य बताएं।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
अनाम अपराजिता
बेटियां वाक्य कहानी प्रतियोगिता #आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते हैं