सूर्योदय वृद्धाश्रम में सुबह की हल्की धूप और ठंडी हवा के बीच आज एक नया सदस्य आया था।
बाहर बारिश की हल्की बूँदें पत्तियों पर गिर रही थीं, और हवाओं में मिट्टी की खुशबू घुली हुई थी। अक्सर जब भी कोई नया सदस्य वृद्धाश्रम में आता है, थोड़ा घबराया और उदास दिखाई देता है क्योंकि नए चेहरे, नए नियम, और अकेलेपन का अहसास, किसी के भी मन में डर पैदा कर देता है।
लेकिन आज आए बुज़ुर्ग कुछ अलग थे। उनके कदमों में सहज आत्मविश्वास था, चेहरे पर हल्की मुस्कान, और आँखों में एक अजीब सी चमक। धीरे-धीरे पुराने सदस्य उनके पास आए और हल्की-फुल्की बातें करने लगे। वे चाहते थे कि नया सदस्य अकेला महसूस न करे और वह आराम से अपने नए माहौल में ढल जाए।
सुनीता, जो हर सुबह यहाँ स्वयंसेवा करती थीं, उन्हें देख रही थीं। कुछ हफ्तों बाद उसने हल्की मुस्कान के साथ पूछा – “अंकल जी, यहाँ कैसा लग रहा है?”
बुज़ुर्ग ने भी धीरे से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “शुरू में थोड़ा अजीब लगता था बेटा, पर अब सब कुछ ठीक लग रहा है।”
सुनीता ने उनके चेहरे पर छिपी शांति और अनुभव की झलक देखी। —ऐसा लगता था जैसे उन्होंने अपने जीवन की कई परीक्षाएँ पार कर ली हों और अब हर परिस्थिति को उसी समझदारी और संतोष के साथ देख रहे हों।
धीरे धीरे वो उनसे खुलने लगी। एक दिन सुनीता ने वह सवाल पूछ ही लिया, जो अक्सर हर किसी के मन में उठता है—
वह बोली , “अंकल, बुरा न मने तो एक बात पूछूं ?
“पूछो बेटा ” वे मुस्कुरा कर बोले।
“आपके बहू -बेटा आपको हर हफ्ते लेने आते हैं । अगर आप लोगों में इतना प्यार है तो आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते?” वह बोली।
बुज़ुर्ग धीरे से खिड़की की ओर देख कर बोले, “लोग अक्सर सोचते हैं कि बेटा छोड़ गया होगा, या बहू नहीं चाहती होगी।”
वे हल्की मुस्कान के साथ रुके और फिर बोले—“पर सच्चाई कुछ और है। मेरे बहू – बेटा दोनों कामकाजी हैं और दोनों ही मुझे बहुत चाहते हैं। पर वो दोनों ही मेरी वजह से परेशान रहते थे। पिछले कुछ महीनों से मेरी तबियत ठीक नहीं रहती थी। मैं पूरा दिन घर में अकेले रहता था और अगर दिन में मुझे कुछ हो जाता, किसी को पता भी न चलता। मेरे अकेलेपन और बीमारी को देखते हुए बहू अपनी नौकरी छोड़ने तक को तैयार थी, लेकिन मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से वो ज़िंदगी की दौड़ में पीछे रह जाएं।”
फिर कुछ देर रुक कर वे बोले, “मैंने ही उन्हें यहाँ आने का सुझाव दिया था। वो दोनों मुझे यहाँ भेजने को बिलकुल तैयार ही नहीं थे। लेकिन मेरी बीमारी और अकेलेपन की तकलीफ का कोई उपाय नहीं था। चूँकि मैं चाहता था कि उसकी खुशियाँ और उसकी स्वतंत्रता पर मेरा कोई असर न पड़े, उन्हें मेरी बात माननी ही पड़ी।”
वह कुछ देर खामोश रहे, फिर बोले—‘मैं यहाँ अपनी शांति के साथ हूँ, और वह अपने सपनों के साथ… कभी-कभी अकेलापन महसूस होता है, पर घर पर भी तो वो लोग सुबह के आठ बजे के गए रात आठ बजे ही आते थे। इसलिए, यह अकेलापन शांति और संतोष से भरा होता है।”
फिर थोड़ा मुस्कुरा कर बोले, “बेटा, क्या तुम्हें पता है शनिवार रात को ही वे यहाँ आ जाते है, रविवार को हम पहले की तरह इकठ्ठा दिन व्यतीत करते है और सोमवार को वे मुझे इधर वापिस छोड़ देते हैं। दोनों ही मुझे प्यार करते हैं, पर अगर देखा जाए तो यह आजकल के जीवन का एक समझौता या मज़बूरी है।”
बुज़ुर्ग के होठों पर मुस्कान और आँखों में नमी थी, लेकिन यह आँसू प्यार, संतोष और समझ का प्रतीक थे।
सुनीता ने महसूस किया कि आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में सही और गलत की कोई स्थायी परिभाषा नहीं रह गई।
दरअसल, जीवन वही है—जहाँ निर्णय सही या गलत नहीं, बस परिस्थितियों के हिसाब से ज़रूरी हो जाते हैं।”
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’
#आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते?