रिश्तों की दरार

“बड़ी बहू! बड़ी बहू!… रुको ज़रा!” मोहल्ले की चाची हाँफती हुई प्रज्ञा के पास पहुँचीं।
प्रज्ञा ने तुरंत पैर छूते हुए कहा—
“क्या हुआ चाची जी? आप इतनी घबराई क्यों हैं? सब ठीक तो है?”

चाची ने लंबी साँस ली और बोलीं—
“अरे बड़ी बहू, हम तो ठीक हैं, लेकिन तुम्हारे घर में आज फिर झगड़ा हुआ है। तुम्हारी सास सुशीला देवी ने छोटी बहू काजल की कोई शिकायत लगा दी। इस बार तो बात हाथापाई तक पहुँच गई। काजल गुस्से में आपे से बाहर हो गई और मायके वालों और पुलिस स्टेशन में फोन कर दिया।

एक तुम हो, पढ़ी-लिखी हो, नौकरी भी करती हो, फिर भी घर को सँभाले हुए हो। कभी घर की बात बाहर नहीं जाने दी। परिवार को जोड़े रखा। लेकिन कौन समझाए छोटी बहू को कि हर समस्या का हल लड़ाई-झगड़ा नहीं होता।”

प्रज्ञा ने गहरी साँस ली और बोली—
“ठीक है चाची, मैं देखती हूँ।”

घर पहुँचते ही प्रज्ञा ने देखा कि आँगन में काजल के मायके वाले खड़े थे। पुलिसकर्मी थोड़ी देर पहले ही जा चुके थे। माहौल भारी था। काजल गुस्से में अपना सामान इकट्ठा कर रही थी।

प्रज्ञा ने बैग एक तरफ रखते हुए पूछा—
“अरे काजल, यह क्या कर रही हो? और यह सामान क्यों बाँध रही हो?”

काजल ने रोते और गुस्से में कहा—
“दीदी, अब बहुत हो गया। अब मैं यहाँ नहीं रह सकती। आए दिन के झगड़ों से तंग आ चुकी हूँ। मुझे अलग रहना है।”

प्रज्ञा ने शांत स्वर में कहा—
“लेकिन हुआ क्या? मुझे तो बताओ।”

काजल ने आँखों से आँसू पोंछे और बोली—
“आज फिर मम्मी जी ने मेरे बच्चों की छोटी-सी बात पकड़कर शिकायत जेठ जी से कर दी। वह मम्मी जी की बातों में आकर मुझसे उलझ पड़े और गाली-गलौच करने लगे। जब मैंने जवाब दिया तो उन्होंने हाथ उठा दिया। मैं बचने की कोशिश कर रही थी कि गिर गई और यह देखिए, हाथ पर चोट आ गई, खून भी निकल आया।

दीदी, आप तो पढ़ी-लिखी हैं, नौकरी करती हैं, फिर भी सब सह जाती हैं। मैं आप जैसी महान नहीं हूँ। मम्मी जी आपके बारे में भी बहुत बुरा-बुरा कहती हैं, मुझे सब पता है।

क्या हमारी शादी सिर्फ हमारे माँ-बाप की ज़रूरत थी? क्या हमें अपने पति और बच्चों पर कोई अधिकार नहीं? हमारे बनाए खाने में हमेशा कमी निकाल दी जाती है। बच्चों को डाँट दें तो शिकायत। साँस भी अपनी मर्ज़ी से नहीं ले सकते। लेकिन मैं अब यह सब नहीं सहूँगी। मुझे अपना स्वाभिमान चाहिए।”

काजल की आवाज़ ऊँची हो गई थी। उसकी बातें सबको सुनाई दे रही थीं।

इतना ही चल रहा था कि प्रज्ञा का पति आकाश वहाँ आ पहुँचा। आते ही वह प्रज्ञा पर चिल्लाने लगा—
“तू भी इसकी बातें सुनने लगी है? तेरे घर वालों को बुलाता हूँ अभी। मेरी माँ के पीछे सब पड़े हुए हैं। कोई उनकी सेवा नहीं करता, कोई पूछता नहीं। सबको बस शिकायत करनी है।”

काजल का भाई, जो वहीं खड़ा था, आगे बढ़ा और बोला—
“आज तो सारा सच सामने आ गया। आप पढ़े-लिखे होकर भी बहुओं को इंसान नहीं समझते। रिश्ता करने के बाद हमें बहुतों ने मना किया था। सब कहते थे कि उस घर का माहौल सही नहीं है। वहाँ सिर्फ सुशीला देवी की चलती है। बेटे उनकी बात ही मानते हैं। यहाँ तक कि अपने पति को भी बोलने नहीं देतीं।

हमने सोचा था कि बड़ी बहू प्रज्ञा पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती है, तो परिवार को संभाल लेगी। लेकिन अब समझ आया कि यहाँ बहुओं की कोई कद्र ही नहीं।”

यह सुनकर प्रज्ञा का धैर्य भी टूट गया। उसने अपने पति से कहा—
“आकाश, मुझ तक तो बात ठीक थी। मैं चुप रहती थी। लेकिन अब और नहीं। छोटे भाई की पत्नी भी हमारी बेटी जैसी होती है। क्या तुम उसे पर हाथ उठाना सही समझते हो? शर्म आनी चाहिए तुम्हें!

हम तुम्हें यह नहीं कहते कि माँ से प्यार मत करो। लेकिन यह कहाँ की समझदारी है कि माँ जो कहें वही सत्य मान लो? कभी हमने भी पूछा कि असल में झगड़ा किस बात पर हुआ? हमेशा एकतरफ़ा बात सुनकर बहुओं पर चढ़ जाते हो।

माँ का सम्मान हम भी करते हैं, पर यह भी सच है कि सास बहुओं से असुरक्षित क्यों महसूस करती हैं? हम भी ब्याह कर आए हैं, भागकर नहीं।”

तभी सुशीला देवी गुस्से में आ गईं। आँखों में आग थी—
“तुझे पता है उसने मुझे क्या कहा? मैं किसी की मोहताज नहीं हूँ। मेरे बेटे हैं मेरी सेवा के लिए। जिसे रहना है, रहे। जिसे जाना है, चली जाओ। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं।”

प्रज्ञा ने सास की आँखों में देखते हुए कहा—
“माँ जी, यह घर हम सबका है। लेकिन अगर आप सिर्फ अपनी हुकूमत चलाना चाहेंगी तो यह घर कभी खुशहाल नहीं होगा।”

तब प्रज्ञा ने काजल के पति मनीष की ओर देखा—
“भाई, तुम ही बताओ, तुम्हारा क्या कहना है?”

मनीष भारी मन से बोला—
“भाभी, सच कहूँ तो मैं असमंजस में हूँ। जो भाई ने किया, वह ग़लत था। जो मेरी पत्नी ने किया, वह भी ग़लत नहीं था। लेकिन मैं किसी एक पक्ष में कैसे खड़ा होऊँ? माँ तो कभी पीछे हटेंगी नहीं, और भाई का काम है माँ की हर बात मानना।

अब मुझे लगता है, अलग होना ही बेहतर है। वरना रोज़-रोज़ यही कलह चलती रहेगी।”

यह कहकर मनीष ने अपने कमरे का सामान अलग करना शुरू कर दिया। एक अलग रसोई बना ली।

आँगन का संयुक्त परिवार देखते ही देखते बँट गया। अब सब अलग-अलग खाना पकाते, अलग-अलग रहते। बोलचाल भी बंद हो गई। मोहल्ले में चर्चा होने लगी—
“इतना बड़ा परिवार था, पर देखो, ‘तीन का तेरह’ हो गया। अब तो सब बिखर गए।”

रात को प्रज्ञा अकेली बैठी सोच रही थी—
“मैंने हमेशा परिवार को जोड़े रखने की कोशिश की। अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारी साथ निभाई। सबके लिए सहा, ताकि भाई-भाभी खुश रहें। लेकिन माँ जी का अंधा पक्षपात और आकाश की माँ-भक्ति ने सब तोड़ दिया।

माँ जी क्यों नहीं समझ पाईं कि बहुएँ भी उनकी बेटियाँ जैसी हैं? अगर हमसे गलती होती है, तो डाँट लें, पर हमें नीचा दिखाना कहाँ तक सही है? अगर बहुओं का सम्मान होता तो यह घर कभी बिखरता नहीं।”

दूसरी ओर काजल अपने कमरे में सोच रही थी—
“अगर आज भाभी मेरा साथ न देतीं तो शायद मैं घर छोड़कर मायके चली जाती। सच तो यह है कि हम बहुएँ भी परिवार को टूटते देखना नहीं चाहतीं। लेकिन जब बार-बार अपमान हो, जब हमारी कोई सुनवाई न हो, तो हम अपनी इज़्ज़त के लिए आवाज़ उठाते हैं।

कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या सिर्फ चुप रहना ही ‘बड़ी बहू’ होने का धर्म है? नहीं, अब मुझे भी अपने हक़ और इज़्ज़त के लिए खड़ा होना होगा।”

आँगन का पेड़, जो कभी पूरे परिवार को छाया देता था, अब मानो दो हिस्सों में बँट गया था। रिश्तों की डोर ढीली हो चुकी थी।

सुशीला देवी अब भी मानती थीं कि घर में उनकी ही चलनी चाहिए। लेकिन प्रज्ञा और काजल की आँखों में अब वह पुरानी चमक नहीं रही।

परिवार बँटकर रह गया। “तीन का तेरह” सच हो गया। और मोहल्ले वालों के लिए यह चर्चा का विषय।

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