रिटायरमेंट – ज्योति आहुजा

हरिदास जी की ज़िंदगी साधारण थी, एक मिडिल क्लास आदमी की तरह। सुबह ऑफिस, शाम घर, बच्चों की पढ़ाई और घर का खर्च। उन्होंने अपने सपनों को हमेशा टाल दिया—कभी गाना-बजाना, कभी घूमना-फिरना उनके शौक हुआ करते थे। लेकिन उनका सबसे बड़ा सपना था गॉल्फ खेलना। कॉलेज के दिनों में उनके दो-चार अमीर सहपाठी गोल्फ़ क्लब में जाया करते थे। वह बाहर खड़े होकर उन्हें देखते—सफ़ेद कपड़े, बड़े मैदान, हाथ में चमकता हुआ गॉल्फ स्टिक। वह सोचते—“काश, मैं भी कभी यहाँ खेल पाता।” लेकिन क्लब की मेंबरशिप आसान नहीं थी—पैसे भी बहुत चाहिए थे और पहचान भी। तो बस सपना, सपना बनकर रह गया।

समय बीतता गया। हरिदास जी की शादी हुई। फिर दो बेटे हुए। ज़िम्मेदारियाँ, घर खर्च, बच्चों की पढ़ाई — उन्होंने जितना निभा सकते थे, सब निभाया। और अपने आप को जैसे एक बार भूल ही गए। उस वक्त घर में बच्चों की फीस और राशन पूरा करना सबसे बड़ी बात थी। आमदनी बस गुज़र-बसर लायक थी। हर सपना वहीं दब गया।

पत्नी सावित्री उनका सहारा थीं। दोनों मिलकर हँसते-जीते, लेकिन काफ़ी साल पहले वह अचानक दुनिया से चली गईं। उनके जाने के बाद हरिदास जी अकेले पड़ गए। घर में सन्नाटा छा गया, पर उन्होंने बच्चों के लिए खुद को संभाल लिया। फीस, किताबें, शादी—हर बार अपने शौक मार दिए और कहा, “पहले बच्चों का भविष्य बना लूँ।”मेरी जितनी कमाई है वो बच्चों के लिए है ।

धीरे-धीरे वक्त बीता और रिटायरमेंट की उम्र आ गई। हाथ में पहली पेंशन का  जब चेक आया तो लगा जैसे फिर से सांस मिली हो। उन्होंने सोचा—“अब मेरी बारी है। अब मैं अपने लिए जीऊँगा।” दोनों बेटो को सेटल कर दिया है ।

और बेटों से कहा—“मैं गॉल्फ सीखूँगा, क्लब में जाऊँगा, और कभी-कभी ट्रिप भी करूँगा।”

बड़े बेटे अनिल ने ताना मारा—“पापा, अब ये सब उम्र है इन चीज़ों की? लोग हँसेंगे।”

छोटा बेटा मनोज बोला—“हाँ पापा, ये सब फालतू खर्च है। हमें भी बच्चों की पढ़ाई और नए घर बनाने के लिये पैसों की जरूरत भी देखनी है।”

हरिदास जी की आँखों में उस दिन आँसू भी थे और आग भी। उन्होंने कड़क आवाज़ में कहा—

“सुनो बेटा, ये मेरी मेहनत की पाई-पाई से मैंने तुम्हें पढ़ा-लिखा दिया, तुम्हें काबिल बना दिया। अब मेरी बारी है कि मैं अपने सपनों को पूरा करूँ। मैं जितना अपने आपको बुज़ुर्ग समझूँगा, उतना ही जल्दी बुज़ुर्ग बन जाऊँगा। मैं अपने लिए जिऊँगा। तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले? और याद रखना, आज तुम मुझे रोक रहे हो, कल तुम्हारे बच्चे तुम्हें भी ऐसे ही रोकेंगे। यही कर्म है।”

दोनों बेटे और बहुएँ चुप हो गए।

इसी बीच, हरिदास जी ने अपने मोहल्ले के गार्डन में आना-जाना शुरू किया। वहाँ बुज़ुर्गों का एक ग्रुप बन गया—कोई कविता सुनाता, कोई गाना गाता, कोई पुरानी फिल्म की बातें करता। उस ग्रुप में श्रीमती वर्मा और अन्य कई महिलाएँ भी थीं—अच्छे घरों से आई हुई, विधवा या अकेली, पर जिंदादिल। धीरे-धीरे सबकी पहचान गहरी हो गई। वर्मा जी अपने पति की बातें करतीं, हरिदास जी अपनी पत्नी की यादें सुनाते। कभी सब साथ बैठते, कभी गपशप होती, कभी पुराने किस्से निकल आते।

एक दिन सबने मिलकर प्लान बनाया—“क्यों न दो दिन की ट्रिप पर चला जाए? थोड़ा बाहर का भी मज़ा लिया जाए।” बस का इंतज़ाम हुआ, सब तैयारियाँ करने लगे।

उनमें से दो सदस्य पैसे की कमी की वजह से मना करने लगे—वे अपने बच्चों पर निर्भर थे। बाक़ी सदस्यों ने थोड़ा-थोड़ा करके मदद की और उनका इंतज़ाम भी करवा दिया।

घर में यह खबर पहुँची तो बेटों को गुस्सा आया—

“पापा, अब ये नौटंकी क्यों? घर बैठो। रिटायरमेंट का मजा घर पर लो। ध्रुव (पोते) और श्रेया (पोती) को स्कूल छोड़ दिया करो, सब्ज़ी-फल ले आया करो। थोड़ा टाइम ऐसे पास करो। आपके शौक के लिए हम पैसे कहाँ से लाएँगे?”

हरिदास जी इस बार और भी सख्ती से बोले—

“पैसे तुमसे नहीं लेने वाला हूँ, चिंता मत करो। मेरी पेंशन है। अब मैं जो चाहूँगा, वही करूँगा। 

अब तुम जो करना चाहते हो तुम करो ।मैं तुम्हें रोकूँगा नहीं ।मैंने ज़िंदगी भर तुम्हारे लिए अपने सपने मार दिए। अब अपनी बारी पर मुझे मत रोको। अगर मैं बिस्तर पर पड़ा रहूँ तो उसे भी जीना कहते हैं। लेकिन मैंने दूसरा रास्ता चुना है—मैं अपने वजूद और अपने स्वाभिमान के साथ जिऊँगा। जब तक मेरी सांस है, मैं आराम से और मज़े से जीऊँगा।

आजकल कब प्राण निकल जाते है पता ही नहीं चलता ।जीवन का भरोसा कहाँ?

गायत्री मेरी साँसों में है, पर सच है कि वह अब कभी नहीं आएगी। नहीं तो उसके साथ वक्त बिताता। अब अकेला हूँ। तुम लोग अपने परिवारों में व्यस्त हो, तो मैंने भी व्यस्त रहने का अच्छा रास्ता चुन लिया है। रिटायरमेंट को बोझ नहीं बनाऊँगा मैं।”

उस दिन उनके बेटे और बहुएँ बिल्कुल चुप हो गए।

हरिदास जी अपने दोस्तों के साथ ट्रिप पर गए। बस में सबकी हँसी गूँज रही थी।

वापिस आकर उन्होंने गॉल्फ क्लब में भी अपना सपना पूरा किया—हरी घास पर खड़े होकर गेंद उड़ते देखना, गॉल्फ स्टिक घुमाना — जैसे जवान हो गए हों।

घर लौटकर जब वह पोते-पोतियों को किस्से सुनाते, तो बच्चे हैरानी से पूछते—

“दादाजी, आप इतने खुश क्यों रहते हो?”

हरिदास जी मुस्कुराकर कहते—

“क्योंकि मैं अब अपने लिए जी रहा हूँ। कहने को तो मैं साठ का हूँ, लेकिन जीवन की नई पारी एक बच्चे की तरह शुरू कर रहा हूँ। मैं भी बच्चा बन गया हूँ — बेपरवाह बालक, जो अपने सपनों को जीने की दिशा में चल पड़ा है। तुम बच्चे और मैं भी बच्चा… तो चलो, एक नई दोस्ती की शुरुआत करते हैं।”

और दादा, पोता, पोती सब खिलखिला कर हँसने लगे।

✍️ ज्योति आहुजा

#रिटायरमेंट

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