जयपुर के शास्त्री नगर में रहने वाले विवेक जी का नया मकान अब मोहल्ले में चर्चा का विषय था।
जहाँ विवेक अपनी पत्नी कंचन, दस वर्षीय बेटे विवान और पिता रामप्रसाद जी के साथ हाल ही में रहने लगे थे।
वो आलीशान मकान विवेक की मेहनत, बड़ों के आशीर्वाद एवं तरक्की का जीता-जागता उदाहरण था।
विवेक की माँ सावित्री अब कई वर्षों से इस संसार में नहीं थी।
इन दिनों हर कोई कहता – “विवेक ने तो अपने पिता को राजा बना दिया।” संगमरमर के फर्श, झूमर की रोशनी और आलीशान फर्नीचर सब कुछ कितना बढ़िया है ये देखकर लोग दंग रह जाते।
बाहर से सब कुछ चमकदार था, मगर भीतर किसी को यह दिखाई नहीं देता कि एक कोने में बैठे रामप्रसाद के चेहरे पर अक्सर हल्की सी उदासी तैर जाती थी।
रामप्रसाद के दिन का सबसे प्यारा साथी था एक पुराना ग्रामोफोन, जिसे वह प्यार से “रागिनी” पुकारते थे। उसकी सुनहरी सुई जरा-सी घूमती और पुराने गीत कमरे में गूँज उठते। गीतों की दिल छू लेने वाली ध्वनि, रामप्रसाद के लिए पुराने समय का दरवाज़ा खोल देती थी। वे खो जाते उन शामों में जब उनकी पत्नी सावित्री, उनके साथ बैठकर यही गीत सुनती थीं। कभी चाय की प्याली साथ होती, कभी बेटे विवेक की मासूम हँसी। रागिनी उनकी हर याद में घुली हुई थी।
विवेक को यह सब समझ नहीं आता था। उसने बहुत मेहनत की थी, दिन-रात संघर्ष करके यह नया घर बनाया था। उसके लिए सुख का मतलब था – सुविधा। जब उसने पिता को बार-बार उसी पुराने ग्रामोफोन को सँभालते देखा तो एक दिन वह चिढ़कर बोला –
“बाबूजी, अब तो यह जमाना ही चला गया। सब डिजिटल हो गया है, देखो मैंने आज के जमाने के खूबसूरत स्ट्लाइलिश स्पीकर गाने सुनने के लिए ख़रीदे है और मोबाइल पर भी लाखों गाने मिल जाते हैं। इस पुराने बोझ को क्यों ढोते हैं आप?”
रामप्रसाद ने उसकी ओर देखा। उनके चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान थी जिसमें गहरी थकान और अपनापन दोनों थे। उन्होंने रागिनी पर हाथ फेरा और धीरे से कहा –
“विवेक, तुम्हारे लिए ये पुराना है। मेरे लिए यह जीने का सहारा है। तुम्हारी माँ के साथ बिताई अनगिनत रातें इसकी धुनों में कैद हैं। जब अकेलापन काटता है तो यही मेरी साँसों को सहारा देता है। यह सिर्फ़ सामान नहीं है… यह मेरी जिंदगी का सवाल है।”
पिता की बातें सुनकर विवेक अवाक रह गया। उसके कानों में शब्द गूँजते रहे और दिल पर बोझ-सा उतर आया। उसे याद आया कि कितनी बार उसने हँसते-हँसते इस धरोहर को “बोझ” कहा था। उसकी आवाज़ गले में अटक गई, चेहरा झुक गया। सच में, उसकी आँखें नीची हो गईं — वह पल उसके लिए आईना था, जिसमें उसे अपनी नासमझी साफ़ दिखाई दे रही थी। उसे शर्मिंदगी हुई कि उसने पिता की भावनाओं को समझे बिना ही उनकी सबसे कीमती अमानत को बेकार कह दिया।
दिन बीतते गए। एक शाम जब रामप्रसाद बहुत देर तक चुप रहे, तो विवेक ने चुपके से ग्रामोफोन का पिन घुमाया। पुराने फिल्मी गीत की आवाज़ गूँजी –
“लग जा गले…”
कमरे में जैसे सावित्री की मुस्कान उतर आई हो। विवेक की आँखें भर आईं। उसने देखा कि पिता की बंद पलकों से आँसू बह रहे हैं और होंठ हिल रहे हैं, मानो सावित्री से बातें कर रहे हों। उस क्षण विवेक को महसूस हुआ कि रागिनी सिर्फ़ एक यंत्र नहीं, बल्कि उसकी माँ का सजीव स्वरूप है, जो पिता के दिल में अब भी सांस ले रहा है।
धीरे-धीरे विवेक की आदत बदल गई। अब जब भी ऑफिस से थका-हारा घर लौटता, पत्नी से बाद में मिलता और पिता के कमरे में जाता और रागिनी को चला देता। पिता के चेहरे पर चमक लौट आती। कभी दोनों मिलकर वही पुराने गीत सुनते, कभी विवेक हँसकर कह देता – “बाबूजी, इस गाने की जगह कोई नया चला दूँ?” और पिता जवाब देते – “नया सुन लूँगा, लेकिन पहले वही पुराना सुनूँगा ।जिसने मुझे संभाला है।”
समय बीता, पिता की तबीयत कमजोर होने लगी।
एक रात अस्पताल में, जब सब मशीनें शोर कर रही थीं,
रामप्रसाद ने धीमी आवाज़ में कहा –
“विवेक… मेरी रागिनी का ध्यान रखना। ये तेरी माँ की आवाज़ है, तेरी किलकारियाँ हैं, और मेरी साँसें भी।”
विवेक की आँखें छलक पड़ीं। उसने पिता का हाथ थामा और पहली बार बहुत गहराई से महसूस किया कि संपत्ति, घर, झूमर – सब चीज़ें मिट सकती हैं, लेकिन यादों से भरी धुनें कभी नहीं मिटतीं।
कुछ महीनों बाद किसी ने विवेक से कहा –
“अब तो रागिनी को बेच ही दो, क्या काम है इसका?”
विवेक ने गर्व से कहा –
“यह मेरे पिता की धड़कन है। इसे बेचने का मतलब होगा, अपने पिता की आत्मा को बेच देना। यह मेरे घर की सबसे कीमती अमानत है।”
उस दिन से विवेक ने तय कर लिया कि हर रविवार को वह रागिनी जरूर बजाएगा। कभी अकेले, कभी दोस्तों को बुलाकर, कभी बीवी बेटे को बैठाकर। और हर बार जब धुन कमरे में गूँजती, लगता जैसे पिता की मुस्कान वहीं पास बैठी हो।
इस तरह रागिनी ने दो पीढ़ियों को जोड़ दिया। पिता की धड़कनों और बेटे के एहसासों के बीच सेतु बनकर उसने यह सिखा दिया कि असली खजाना स्मृतियाँ होती हैं, जो किसी भी महंगे घर या झूमर से कहीं ज़्यादा कीमती हैं।
प्रिय पाठको
हर घर में कोई न कोई वस्तु ऐसी होती है जो पीढ़ियों की धरोहर बन जाती है। वह सिर्फ़ सामान नहीं रहती, बल्कि रिश्तों और भावनाओं का प्रतीक बन जाती है।
तो क्या आपके पास भी है कोई रागिनी??
उम्मीद है ये कहानी सभी को बहुत पसंद आएगी ।
ज्योति आहूजा
#आँखे नीची होना