*पलायन* – पुष्पासंजय नेमा  : Moral Stories in Hindi

लेटे लेटे बरबस  ही आलोक  की ऑखे नम हो गईं  और ऑसू लुढ़क  कर गालो तक बह गए छः माह  तो हँसी  खुशी और  उल्लास  से कट गए 

लेकिन वाकी का वक्त  बोझिल  लग रहा था वीडियो काल पर मां  से बात  करते करते मन उदास  हो गया और  अतीत के महासमुंदर मे गोते लगाने लगा

माना कि रूपये पैसे बहुत  कुछ  है लेकिन  सब कुछ  नही हो सकते  कंपनी  के डेढ़ गुने दो गुने चंद 

लालच मे आकर मध्यवर्गीय  परिवार के सैकड़ो हजारो  युवा आज  अपने घर से दूर  

अपनो से दूर सात समुन्दर  पार पड़े है 

 दुख  और  सुख  का भागीदार  भी तो कोई होना चाहिए उसे बचपन  की नीली शर्ट  याद  आ गई जो  पापा इंदौर  से लाऐ थे जब वो पहन कर निकला था

तो पूरे दोस्तो  मुहल्ले  वाली शर्मा  ऑटी पाण्डेय  अंकल और  न जाने किस  किस  ने तारीफ  की थी

चाचा ने कहा था  अरे वाह ये कलर तो हमारे मुन्ने  पर बहुत  फबता है  तब बाल मन  इतरा गया था फिर जन्मदिन  पर चाचा ने उसी रंग  की टी शर्ट  लाकर दी थी

मेरे आने पर मां  से लड़ गए  थे हां  लंदन  नही जाएगा तो खाने के लाले पड़ जाएगे 

 यहाँ  तो रोज  नयी  पहनू पुरानी पहनू लाल नीली हरी कुछ  भी पहनू कोई  पूछने वाला नही है  बस पैसा ही पैसा खाओ उड़ाओ 

गमाओ बचाओ  न लड़ने वाली बहन है न रोक टोक करने वाले माता पिता और  न ही लाड-प्यार  करने वाले चाचा चाची बुआ मौसी मामा और 

पडोस  वाली ऑटी अंकल कब आ रहो हो कब जा रहो हो क्या  खा रहे हो  कोई  पूछने वाला नही कौन  है तुम्हारा  हितैषी सब 

की दुनिया अपने मे मस्त  व्यस्त  भाषा अलग खान पान  अलग रहन सहन  अलग आचार  विचार  अलग कैसे रह पाऊगा अजनबी लोगो के साथ 

कब लौट पाऊगा काश  लालच मे न  आता  स्वयं से ही बात  करते करते रात के 2बज रहे थे पर नींद  तो कोसो दूर  अपने घर  और  अपनो की यादो के बीच  भटक रही थी

पापा की बात  बेटा

*पूरी से आधी भली

 जो अपनो संग  होय*

याद  करके तो वह जोर जोर  से सुबकने लगा खुद  ही मन को कुछ हल्का  महसूस किया विचारो की तंद्रा  से जागा तो आसमान  मे ऊषा की लालिमा नजर आ रही थी भोर की किरण के साथ  ही उसने दृढ़संकल्प  किया आज  ही मैनेजर  से बात  करूगा छः महीने तो दूर  अब  मैं छः दिन  भी नही रहूगा मूझे मेराअपना परिवार  और अपना घर चाहिए

 

जल्दी  से जल्दी मुझे  पलायन करना है 

पुष्पासंजय नेमा

 जबलपुर

#”अपना घर अपना ही होता है”

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