पछतावे का बोझ – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

दिल्ली के प्रतिष्ठित कॉलेज के हरे-भरे कैंपस की भीड़-भाड़ के बीच रिया अक्सर पेड़ों की छाया तले किताब लेकर बैठी मिलती। आस-पास दोस्तों की हंसी-ठिठोली गूंजती रहती, क्रिकेट और डिबेट्स की आवाज़ें माहौल में तैरतीं, पर उसकी दुनिया किताब के पन्नों और सपनों की खामोश गलियों तक ही सिमटी रहती।

उसी भीड़ में एक चेहरा हमेशा उसकी ओर खिंचा आता था—वो था कॉलेज का सबसे चर्चित नाम,अर्जुन मेहरा — रईस घराने “वाइटलएज फार्मा’ का इकलौता वारिस । सबकी नज़रें जहाँ उस पर ठहरती थीं, वहीं उसकी नज़रें बार-बार उसी शांत लड़की को ढूँढ लेतीं, जो शोरगुल का हिस्सा होकर भी जाने क्यों सबसे अलग नज़र आती थी।

अर्जुन के लिए सबकुछ आसान था, सिवाय उस लड़की तक पहुँचने के—जो उसकी नज़रों में सबसे अलग थी।

कितनी ही बार उसने चाहा कि उससे अपने मन की बात करे, पर रिया की आँखों में तैरती संजीदगी और उसका संयमित मौन अर्जुन को रोक देता। एक दिन आखिरकार अर्जुन ने हिम्मत जुटाकर कह ही दिया—

“रिया, मुझे लगता है मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूँ… शायद प्यार करने लगा हूँ।”

रिया ने अर्जुन की आँखों में झाँका। कुछ पल के लिए जैसे उसकी सारी दुनिया थम गई। होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आई, पर आँखों की नमी को छिपा न सकी।

ठहरकर उसने धीमे स्वर में कहा— “अर्जुन, तुम्हारी और मेरी दुनिया बहुत अलग है। मैं एक अनाथ लड़की हूँ… तुम्हारे जैसी सुविधाओं वाली ज़िंदगी मैंने कभी देखी ही नहीं। तुम आसमान में उड़ते हो, और मैं ज़मीन से बंधी हूँ। चाहकर भी तुम्हारी दुनिया का हिस्सा नहीं बन सकती।”

उसने अपनी नज़रें झुका लीं, फिर धीरे से जोड़ दिया— “हमें दोस्त ही रहना चाहिए।”

अर्जुन के लिए ये ठुकराया जाना आसान नहीं था, लेकिन ज़िंदगी की हकीकत को शायद वो भी समझता था। ऊपर से रिया के आत्मसम्मान से भरे शब्दों ने उसे रोक दिया।

दोनों ने कॉलेज के आख़िरी दिनों में बस एक सहज दूरी बनाए रखी—ना नज़दीकी, ना कोई शिकवा। वो खामोश रिश्ता बस दोस्ती की परतों में दबा रहा।

ग्रेजुएशन पूरी होते ही अर्जुन ने अपने परिवार के कारोबार की ज़िम्मेदारी सँभाल ली, जबकि रिया ने पोस्ट ग्रेजुएशन में दाख़िला ले लिया। फाइनल ईयर  में कैंपस इंटरव्यू हुए, जिसमें रिया का सिलेक्शन ‘वाइटलएज फार्मा’ में हो गया।

‘वाइटलएज फार्मा” का नाम सुनते ही रिया के भीतर पुरानी यादें जैसे किसी धूल भरी किताब के पन्नों की तरह खुल गईं। यह अर्जुन की कंपनी थी। ऑफर स्वीकार करे या नहीं, यह बहुत बड़ी दुविधा थी।  पर चूँकि ऑफर काफी अच्छा था, उसने ऑफर स्वीकार कर लिया ।

जॉइनिंग के पहले ही दिन, जब रिया कॉन्फ़्रेंस रूम से बाहर निकली, सामने अर्जुन खड़ा था। पल भर को वो थम गया।

“रिया… तुम?” अर्जुन के चेहरे पर हैरानी और खुशी एक साथ झलक उठी।

रिया ने हल्की मुस्कान दी, मानो बीते दिनों की धुंधली परछाइयाँ फिर से जीवित हो उठी हों।

शुरुआत में दोनों के बीच एक अनकही दूरी बनी रही। कॉलेज की यादें जैसे उनके बीच अदृश्य दीवार बन गई थीं। ऑफिस में बातें केवल काम तक ही सीमित रहतीं, लेकिन हर मुलाक़ात के साथ वह दीवार दरकने लगी थी।

मीटिंग्स, प्रोजेक्ट्स और साथ गुज़रे छोटे-छोटे पल, उनके बीच की चुप्पी को आहिस्ता -आहिस्ता पिघलाने लगे थे। कभी किसी प्रेज़ेंटेशन के बाद अनायास मिली तारीफ़, तो कभी कॉफ़ी ब्रेक के दौरान हुई हल्की-सी बातचीत… इन सबने उनके रिश्ते की पुरानी गर्माहट को फिर से जगाना शुरू कर दिया।

काम के बहाने शुरू हुई औपचारिक बातें अब दोस्ती की सहजता में बदलने लगी थीं।

एक बिज़नेस टूर के दौरान, होटल की छत पर फैली चाँदनी रात ने जैसे उनके दिलों की चुप्पी को भी रोशन कर दिया। हल्की ठंडी हवा बह रही थी। अर्जुन ने हिम्मत जुटाई और धीमे स्वर में कहा— “रिया, मैं अब भी तुम्हें चाहता हूँ… और इस बार मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।”

रिया ठिठक गई। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह जानती थी, यह वही इज़हार है, जिससे उसने कभी खुद को दूर रखने की कोशिश की थी। लेकिन इस बार उसने नज़रें नहीं चुराईं। शायद पढ़ाई और नौकरी के अनुभवों ने उसे इतना आत्मविश्वास दे दिया था कि अब वह अपने दिल की सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ सकती थी।

दिन बीतते गए और उनके बीच का रिश्ता गहराने लगा। अब वो सिर्फ़ साथ काम करने वाले नहीं रहे, बल्कि एक-दूसरे की धड़कनों को समझने वाले साथी बन गए। रिया जानती थी कि अर्जुन का प्यार सिर्फ़ आकर्षण नहीं, बल्कि सच्ची परवाह और गहराई से भरा हुआ है। धीरे-धीरे वह उस पर पूरा भरोसा करने लगी थी।

फिर एक दिन, काँपते होंठों और धड़कते दिल के साथ रिया ने धीमे स्वर में कहा— “अर्जुन… मैं… माँ बनने वाली हूँ।”

उसकी आँखों में डर और खुशी का अजीब-सा मिश्रण तैर रहा था। जैसे किसी अनजाने भविष्य की चिंता उसके चेहरे पर साफ झलक रही हो।

कुछ पल के लिए दोनों के बीच गहरी खामोशी छा गई। बस धड़कनों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। अर्जुन ने बिना कोई शब्द बोले रिया को अपनी बाँहों में भर लिया और फुसफुसाते हुए कहा, “अब हमारी ज़िंदगी पूरी हो जाएगी। तुम अकेली नहीं हो… मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।”

उस पल, रिया की आँखों से ख़ुशी और सकून के आँसू अर्जुन के काँधे पर गिरते रहे— दोनों की आँखों में एक नए जीवन की झलक थी। दोनों को यक़ीन था कि अब सब आसान होगा, जैसे खुशियों का एक नया अध्याय खुलने जा रहा हो।

पर वे नहीं जानते थे कि असली परीक्षा अब शुरू होने वाली थी।

जब अर्जुन की माँ, वंदना जी को इस रिश्ते और आने वाले बच्चे की खबर मिली, तो वे भड़क उठीं।

“अर्जुन! मुझे यह रिश्ता किसी हाल में मंज़ूर नहीं। तुम्हारी शादी हमारे बिज़नेस पार्टनर की बेटी मीरा से होगी और …  यही तुम्हारे पापा की आख़िरी इच्छा थी।”

अर्जुन ने पूरी ताक़त से माँ को समझाने की कोशिश की, लेकिन वंदना जी का ज़िद्दीपन किसी अटल दीवार जैसा था। उसका हर तर्क, हर विनती उनकी हठ के सामने हार गया। आख़िरकार, माँ के आँसुओं और उनकी जिद के आगे अर्जुन की आवाज़ जैसे कहीं दब-सी गई। मजबूरी में उसने उनकी इच्छा मान ली।

रिया को जब यह सच पता चला, तो उसका दिल टूटा गया। आँखों से बहते आँसू उसे तोड़ जरूर रहे थे, मगर उसने खुद को संभाला। चूक हो चुकी थी, पर वह भावनाओं में बहकर कमज़ोर पड़ने वाली नहीं थी।

उसने जल्द ही डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ली… पर डॉक्टर ने साफ़ कह दिया कि कुछ मेडिकल प्रॉब्लम की वजह से अब गर्भपात संभव नहीं है।

क्षण भर को सब कुछ धुँधला-सा लगा, पर वह जानती थी कि चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अब उसे ज़िंदगी का यह नया सफ़र अकेले ही तय करना होगा। और…  इसी हिम्मत के साथ उसने किसी नए शहर और नए जीवन की ओर पहला कदम बढ़ाया।

एक अनजानी जगह पर कुछ महीनों बाद उसने बेटे को जन्म दिया। धीरे-धीरे उसने अपने सपनों को फिर से सँवारा और देखते-देखते पाँच साल गुजर गए। 

उधर अर्जुन ने माँ की जिद पर मीरा से शादी तो कर ली, लेकिन उसका दिल और रिश्ते दोनों ही खाली रहे। मीरा एक अलग तरह की लड़की थी जिसे बस पार्टियों और फैशन से ही मतलब था। अर्जुन और मीरा के बीच शायद ही कोई समानता थी।

अपना गलत फैसला, अपराधबोध, और खोया हुआ प्यार अर्जुन को भीतर से तोड़ रहा था। धीरे-धीरे वह डिप्रेशन का शिकार हो गया। मीरा कुछ वर्ष तो उसके साथ रही, पर फिर वो तलाक ले अलग हो गई।  

इधर अर्जुन की तबियत में कोई सुधार न आ रहा था। डॉक्टर की सलाह पर, उसकी देखभाल के लिए उसे कुछ दिनों के लिए हिल स्टेशन लाया गया ताकि माहौल परिवर्तन से उसकी सेहत में सुधार आ सके। लेकिन एक दिन अचानक उसकी तबियत और बिगड़ गई, और वंदना जी को मजबूरन उसे अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा।

दूसरे दिन जब वंदना देवी अर्जुन के कमरे से बाहर आईं, तो रिसेप्शन के पास रिया को देखकर चौंक गईं।

“तुम? यहाँ?”

“जी… मैं यहाँ Administrative Officer हूँ।”

उसे देख वंदना जी के चेहरे पर वही पुराना अहंकार लौट आया , “सुना था कि तुम बहुत टैलेंटेड हो। पर फिर क्यों इस छोटे …” इससे पहले की वो कुछ ज़हर उगल पातीं, उनकी नज़र नन्हे वेदांत पर पड़ी। उनकी नज़र जैसे थम सी गई… ये बच्चा अर्जुन की हूबहू फोटोकॉपी था। शब्द उनके गले में अटक गए।

“यह तो मेरा पोता है ?” भावुक हो वे बोली।

“मैडम, आपको ग़लतफ़हमी हुई है। यह आपका पोता नहीं, बल्कि मेरा बेटा है।

“सोचती हो कि हमारे पोते को तुम्हारे जैसे छोटी नौकरी और छोटी जगह में पाल लोगी?”

रिया ने संयमित स्वर में कहा— “मेरे बेटे के लिए… मेरे लिए, मेरा नाम ही काफ़ी है। यही उसकी सुरक्षा और प्यार की गारंटी है।” और वहां से चली गई।

वंदना जी के मन में फिर से शह और खुराफत ने जगह बना ली।। उन्होंने अपने नाम और प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करने की सोची। वह जानती थीं कि अपने पोते तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि वो रिया का मनोबल तोड़ दें। अगर रिया की नौकरी चली गई, तो उसको उनके सामने झुकना ही पड़ेगा। यही सोच उन्होंने हॉस्पिटल की मैनेजमेंट के साथ मीटिंग करने की सोची।  

उनके चेहरे पर पुराना अहंकार और ज़िद दोनों झलक रहे थे। उन्होंने अस्पताल के सीनियर्स से मिलने की गुज़ारिश की। मीटिंग अगले दिन की थी।

वंदना जी अंदर आईं, तो चेयरमैन ने खड़े होकर उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और मुस्कुराते हुए बोले—

“आइए वंदना जी, उम्मीद है आपको यहाँ किसी भी तरह की असुविधा नहीं होगी ?”

वंदना जी मुस्कुराईं और जैसे ही वे कुर्सी पर बैठने लगीं, किसी ने कमरे में प्रवेश किया।  

“यह मेरी वाइफ रिया हैं ।” चेयरमैन के बगल वाली कुर्सी पर रिया आत्मविश्वास से बैठी गई थी। “अब आप जो भी चर्चा करना चाहती थीं, खुलकर कीजिए।” , चेयरमैन बोले।

एक क्षण को जैसे समय थम गया। वंदना जी की आँखें फैल गईं, होंठ आधे खुले रह गए। जिस लड़की को उन्होंने कभी नीचा दिखाया था, वह सिर्फ़ आत्मनिर्भर नहीं, बल्कि गरिमा और स्थिरता की मिसाल बन चुकी थी।

वे चाहकर भी एक शब्द न बोल सकीं। उनके अहंकार के महल की दीवारें उसी पल ढह गईं।

“मैं बस… आप सबसे मिलना चाहती थी और यह चाहती थी कि मेरे बेटे को बेस्ट ट्रीटमेंट मिले,” उनकी आवाज़ भारी हो गई थी।

रिया ने संयमित स्वर में उत्तर दिया— “मैडम, निश्चिंत रहिए। यहाँ का हर इलाज, हर सुविधा बेस्ट ही है।”

मीटिंग ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन वंदना देवी का सारा आत्मविश्वास जैसे वहीं टेबल पर बिखर गया था।

मीटिंग के बाद वंदना जी अर्जुन के कमरे की तरफ चल पड़ीं। उधर अर्जुन भी उन्हें ढूंढते हुए कमरे से बाहर आया। तभी उसकी नज़र मासूम वेदांत पर पड़ी। बच्चे का चेहरा, उसकी आँखों में वही पुरानी झलक लिए, जैसे आईने में उसकी यादें दिखा रहा हो।

“तुम्हारा नाम क्या है?” अर्जुन ने धीरे से पूछा।

“वेदांत आहूजा,” बच्चे ने मुस्कुराते हुए कहा।

“पर अंकल… आपको तो आराम करना चाहिए था। मैंने कल आपको एक आंटी के साथ आते देखा था,” वेदांत ने मासूमियत से कहा।

“वो मेरी मम्मी हैं। मैं उन्हें ढूंढ रहा हूँ ,” अर्जुन ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

इससे पहले कि वेदांत कुछ और पूछता, वंदना जी वहाँ आ गईं। उन्होंने वेदांत को देखते ही कहा,

“बेटा, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? अपने मम्मी-पापा के साथ क्यों नहीं रहते? वे तुम्हें ढूंढ रहे होंगे।”

वेदांत ने बेबाकी से पलटा,

“आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते? वे भी आपको ढूंढ रहे थे।”

तभी रिया वहाँ आई। उसने अर्जुन की ओर एक क्षण देखा, फिर धीरे से वेदांत का हाथ थामकर उसे बाहर ले चली। कॉरिडोर में खामोशी गहराई, केवल उनके कदमों की आवाज़ गूंज रही थी।

अर्जुन ने वह अनकहा सच महसूस किया, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं थी। उसकी आँखें भीग गईं। वह सब समझ गया था —कुछ रिश्ते चाहकर भी जिए नहीं जा सकते; वे सिर्फ़ दिल के किसी कोने में अनकहे ही रह जाते हैं।

वंदना जी ने काँपते हुए कदमों से अर्जुन का हाथ थामा। उनकी आँखों में आँसू थे— उन्हें एहसास था कि उनके बेटे का असली सुख छिन चुका है । अगर वह सच में बेटे का साथ देतीं, तो आज उनकी ज़िंदगी में शायद कोई कमी न होती। पर, अब उनके पास सिर्फ़ पछतावे का बोझ और अधूरी ख़ामोशियाँ बची थीं।

अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

#आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते

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