आज मास्टर जी का बिस्तर से उठने का मन ही नही कर रहा था,पूरा शरीर टूट सा रहा था।अंदर से लग रहा था बुखार आ गया है।वे लेटे रहे।सामान्यतः मास्टर जी सुबह जल्द ही उठ जाते हैं, पर आज सूरज चढ़े तक भी बिस्तर से उठ ही नही पाये।तभी रसोई घर से खटर पटर की आवाज सुनाई दी।ओह तो गोपाल आ गया है,दूध लाया होगा।पर फिर भी मास्टर जी उठ नही पाये।
हरिशंकर जी एक इंटर कालेज में अध्यापक थे।पक्के आदर्शवादी।कभी जीवन मे बच्चो को ट्यूशन नही पढ़ाया,पर जिस किसी को पढ़ाई में सहायता की जरूरत होती तो बिना फीस के उसकी पूरी सहायता करते।यही कारण था पूरे विद्यालय में प्रधानाचार्य से लेकर विद्यार्थी तक उनकी इज्जत करते थे।
एक ही बेटा था,उसी विद्यालय में पढ़ने के कारण उसकी फीस माफ हो जाती थी,इस प्रकार काफी खर्च बच जाता था,मास्टरजी ने थोड़ी थोड़ी बचत करके अपनी निवृत्ति से पूर्व अपना एक घर अवश्य बना लिया था,इससे उन्हें काफी राहत प्राप्त होती थी,चलो कम से कम अपना घर तो है।बेटे का चयन इंजीनियरिंग में हो जाने के कारण वह पढ़ने के लिये अन्य शहर चला गया।अपने घर मे हरिशंकर जी अपनी पत्नी सुमित्रा के साथ अकेले रह गये।
संतुष्टि ये थी रिटायरमेन्ट के बाद बेटे हरीश के पास चले जायेंगे,इस घर को किराये पर उठा देंगे,किराया और पेंशन मिला कर उन्हें इतना मिल जाया करेगा कि उन्हें बेटे पर आश्रित होने का अहसास कभी नही होगा,उल्टे उसे ही मदद मिलेगी।ऐसा ही हुआ बेटा इंजीनियर बन गया और पोस्टिंग की जगह उसने फ्लेट ले लिया,इधर हरिशंकर जी रिटायर हो गये तो बेटे के पास चले गये।
अपना घर किराये पर दे दिया।शुरू शुरू में मास्टर जी को शहरी जिंदगी रास नही आयी, पर पत्नी के समझाने पर उन्होंने अपने को उसी वातावरण में ढालना प्रारम्भ कर दिया।इसी बीच हरीश की शादी भी हो गयी।सम्पन्न परिवार से बहू आयी थी।मास्टर जी का दहेज मांगने का तो कोई प्रश्न था ही नही,पर बहु के माता पिता ने भरपूर बेटी को दिया।उनका फ्लेट उनके दिये सामान से ही भर गया।
जिंदगी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी।इसी बीच सुमित्रा मास्टर जी को छोड़ अंतिम यात्रा पर चली गयी।रह गये अकेले निपट मास्टर जी।पत्नी के चले जाने के बाद मास्टर जी का जीवन अस्त व्यस्त सा हो गया।जब तक सुमित्रा जी साथ रही तो हर तरह से उन्हें संभाल कर रखती,पर अब कौन करे।वैसे भी मास्टर जी के स्वभाव में अब वैराग्य सा आ गया था।कपड़े प्रेस हो ना हो वे ध्यान ही नही देते थे।कभी जल्द सुबह ही उठ जाते तो कभी देर तक सोते रहते।
हाथों में हल्का सा कंपन रहता था,सुमित्रा जी थी तो वे ध्यान रखती,खाना खाते समय यदि कपड़ो पर सब्जी आदि गिर जाती तो वे तुरंत साफ कर देती।पर अब ?अब तो मास्टर जी खुद भी ध्यान नही दे पाते।एक बार तो ये हुआ कि खाने की मेज पर मास्टरजी अकेले बैठे खाना खा रहे थे कि हरीश से मिलने उसका मित्र अपनी पत्नी के साथ उससे मिलने आया।मास्टरजी का ध्यान हटा तो उनके कांपते हाथ से सब्जी उनके कपड़ो पर गिर गयी।
साफ करने के चक्कर मे उनके कपड़े और खराब हो गये।हरीश के मित्र के मन मे तो क्या आया होगा,वह तो नही पता पर हरीश को जरूर शर्मिंदगी महसूस हुई।वह अपने पापा को वहां से उठा कर उनके कमरे में छोड़ आया।मास्टर जी समझ गये थे,उनका बेटा पिता की असहाय स्थिति को न समझ कर अपने को बेइज्जत होना समझ रहा है।मास्टर जी बस ये नही समझ पा रहे थे कि वे कैसे कहाँ से अपने युवा बेटे जैसा सलीका ले कर आयें।
कोशिश करते पर बढ़ती उम्र और हाथ कंपन उनकी हर कोशिश पर पानी फेर देते।अब तो उनका खाना उनके कमरे में ही आने लगा था,वे काफी हद तक अपने कमरे तक ही सीमित हो गये थे।अब कभी कभी बहू भी कोई ताना धीरे से मार देती कि पापा जी केवल अपना ही तो ध्यान रखना होता है,उतना तो कर ही सकते हैं।मास्टर जी अंदर तक आहत हो गये।
एक दिन उनके कमरे में रखी पानी की बोतल में पानी खत्म हो गया था,उन्हें जोर की प्यास लगी थी,सो पानी की बोतल को खुद पानी से भरने रसोई की ओर चले गये।रविवार का दिन था,हरीश की छुट्टी थी,वह ड्राईंग रूम में बैठा था,जैसे ही उसने अपने पापा को देखा तो बोला देखो पापा मुझसे मिलने मेरे मित्र आ रहे हैं, जब तक वे न जाये, आप अपने ही कमरे में रहे,उनके सामने बाहर मत आना,जो चाहिये अभी ले लो।
सुनकर मास्टरजी को चक्कर जैसा आ गया,किसी प्रकार अपने बिस्तर तक पहुंचे।बिस्तर पर औंधे मुंह गिर कर फफक पड़े।पत्नी के फोटो को देख बोले भागवान क्या हरीश हमारा ही बेटा है?तू ही बता मैं क्या करूँ,तू तो चली गयी,मुझे ही मौत भी तो नही आ रही।कैसे बेटे के घर मे घुट घुट कर डरते डरते रहूँ, उम्र और शारीरिक क्षमता क्या मेरे हाथ मे है?देख रही है ना भागवान बेटे बहू की हिकारत की निगाहें।सिसकते सिसकते मास्टरजी की आंखे लग गयी।
रात्रि 11 बजे उनकी आंखें खुल गयी।वे झटके से उठे और एक थैले में दो तीन जोड़ी कपड़े रखे तथा एक छोटा सा खत हरीश के नाम लिख कर रख दियाऔर धीरे से घर से निकल आये।बस स्टैंड पर आकर एक शेड में ऐसे ही लेट गये, और सुबह सुबह की बस से वे अपने नगर में अपने घर पहुंच गये।
घर मे ऊपर का एक छोटा सा कमरा खाली था,जिसमे वे बेटे के पास जाते समय कुछ सामान छोड़ कर ताला लगा गये थे।मास्टर जी उसी कमरे में आ गये।अगले दिन किरायेदार से उसकी सुविधानुसार घर खाली करने को कह दिया।संयोगवश किरायेदार ने तीन दिन बाद ही घर खाली भी कर दिया।
हरीश को वे खत लिख ही आये थे कि वे अपने नगर में अपने घर जा रहे है,कुछ दिनों बाद वापस आ जाएंगे,हरीश ने अपनी ओर से उनकी खोज खबर लेने का प्रयत्न तक भी नही किया।सोचा होगा पीछा छूटा।पर यहां उनका एक पुराना शिष्य गोपाल उनसे बड़े ही उत्साह से मिलने आया,आते ही गोपाल ने मास्टर जी के चरण स्पर्श किये और मास्टरजी का सारा घर व्यवस्थित करा दिया।
साथ ही बोला, मास्टर जी जब तक आप यहां रहे तो मुझसे किसी भी काम को बताने में हिचक मत रखना,मैं खुद भी आपका ध्यान रखूंगा,मुझे अपना हरीश ही समझना।सुनकर मास्टरजी ने उसके सिर पर हाथ रख आशीर्वाद तो दिया ही साथ ही बोल गये अरे नही रे तू गोपाल ही ठीक है।
गोपाल मास्टर जी का पूरा ध्यान रखता,उसके पड़ोस में एक महिला खाने के टिफिन सर्व करती थी,उससे गोपाल ने मास्टर जी का टिफिन बंधवा दिया,दोनो समय खुद गोपाल ही टिफिन पहुंचा देता,इसके अतिरिक्त सुबह वह ताजा दूध मास्टर जी के लिये ले आता और उबाल कर रख देता,सुबह की चाय गोपाल खुद बना देता और बाद में मास्टर जी और वह खुद पीते।
मास्टर जी के आ जाने का समाचार मुहल्ले में सबको मिल गया था,सब धीरे धीरे मास्टर जी से मिलने आने लगे।अपनी जगह आकर मास्टर जी को भरपूर सम्मान मिल रहा था,उन्हें ज़रा भी अकेलापन भी नही सता रहा था।गोपाल तो वैसे ही उनका हर तरह ध्यान रख रहा था।मास्टर जी ने अपने घर की एक चाबी गोपाल को दे रखी थी,कि कभी भी आपात काल मे वह घर का दरवाजा खोल सके।
उस दिन गोपाल दूध लेकर आया तो मास्टर जी ने दरवाजा नही खोला तो गोपाल ने दरवाजा खोलकर रसोई में दूध रख कर मास्टर जी के कमरे की ओर उन्हें देखने जाने लगा।बर्तन की आवाज से ही मास्टर जी की नींद खुली थी,पर उनका शरीर आज टूट रहा था,इस कारण वे उठ ही नही पा रहे थे।गोपाल तुरंत उन्हें डॉक्टर के पास ले गया।उन्हें मौसमी बुखार ही था।दवाईयों से मास्टर जी तीन दिन में ही ठीक हो गये।गोपाल उनकी देखभाल कर ही रहा था।
सच मे गोपाल ने तो हरीश की याद तक भूला दी थी।इस बीच हरीश ने अपने पापा की कोई सुध भी नही ली।उम्र की इस दहलीज पर वे उसके लिये अप्रासंगिक हो चुके थे।वे ऐसी सांझ बन चुके थे जिसके बाद सूर्य उदय होना ही नही था।रात्रि के सन्नाटे में उन्हें हरीश का वह रूप दिखाई देता जब वे उसे अपने कंधों पर बिठाये फिरते थे।फिर उन्हें हरीश के वे शब्द भी याद आ जाते जब वह पिता को हिदायत दे रहा है कि अपने कमरे में ही रहना क्योंकि उसके मित्र आ रहे हैं।सोचते सोचते उनकी आंखों से आंसू निकलने लगते।
अगले दिन मास्टरजी ने गोपाल से कहा बेटा देखो अब जिंदगी का कोई भरोसा नही,मेरे पास तो ले देकर यही एक मकान है,बेटा मैं अध्यापक रहा हूँ इसलिये मैं चाहता हूँ कि इस घर मे एक छोटा सा विद्या मंदिर बन जाये।इस सपने को गोपाल तुम पूरा करोगे ना।मैंने अपनी वसीयत लिख दी है।
गोपाल ने मास्टर जी के चरण स्पर्श करके कहा कि गुरु जी मैं आपके सपने को पूरा करके रहूंगा,आपके ही जीते जी।मास्टर जी के चेहरे पर एक असीम शांति की झलक देखी जा सकती थी।भावावेश में उन्होंने गोपाल को अपने गले से लगा लिया।वसीयत के कागज मास्टर जी ने गोपाल को सौंप दिये।
अगली सुबह गोपाल दूध लेकर आया तो दरवाजा नही खुला,अपने पास की चाबी से दरवाजा खोल गोपाल मास्टरजी के कमरे में पहुंचा तो मास्टरजी को बिल्कुल शांत अवस्था मे लेटे पाया।गोपाल ने उनके पास जाकर उन्हें आवाज लगाई,पर कोई हलचल न देख ,गोपाल ने उनके हाथ को हाथ में लिया तो वह ठंडा पाया।मास्टर जी तो कभी के सुमित्रा के पास प्रस्थान कर चुके थे।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित
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