कुसुम, पंद्रह दिन बाद बुआ भात नोतने के लिए आ रही है । अच्छे से तैयारियाँ कर लेना । यही कोई तीस पैंतीस लोग होंगे।
तीस पैंतीस……? इतने लोगों का , मैं कैसे करूँगी? पचास ही लोग होंगे कुल मिलाकर । घर के और पास पड़ोसियों को गिनकर । आपको तो पता ही है कि घर का काम , स्कूल का काम , गुड़िया का काम और ऊपर से , मेरी तबीयत भी ठीक नहीं रहती ।
क्या हुआ तुम्हारी तबीयत को ? ठीक हो , तभी तो स्कूल जा रही हो ना ? ज़रा सा कोई एकस्ट्रा काम बता दें तो तुम्हारी हवा निकल जाती है ।
नहीं पंकज ! ऐसा नहीं है , भूल गए क्या , गुड़िया सिजेरियन से हुई थी और उसके बाद वो पहले वाला शरीर नहीं रहा । तुम्हें भी पता है कि स्कूल जाना मेरी मजबूरी है क्योंकि तुम…… छोड़ो…एक ही बात को बार-बार गाने का फ़ायदा नहीं है । साफ़ सीधी बात यह है कि पचास लोगों के खाने का इंतज़ाम, मैं नहीं कर सकती , हलवाई बुला लो ।
हलवाई तो फ़्री में आ जाएगा ? लोगों की औरतें पूरे घर को अकेली सँभालती हैं । इस महारानी के नखरे ही ख़त्म नहीं होते। ऐसे दिखाती है जैसे कहीं की राजकुमारी हो । देखा है तुम्हारा मायका भी , झाड़ू-पोंछा करती हुई बड़ी हुई हो ….
पंकज न जाने क्या-क्या बोलता कमरे से निकल गया और कुसुम मुँह खोले यही सोचती रह गई कि आख़िर उसने कौन सी ग़लत बात कह दी जो पंकज उसके मायके तक पहुँच गया ।
कुसुम और पंकज की शादी को छह साल हो चुके हैं पर ऐसा कोई दिन नहीं हुआ जब पंकज ने किसी न किसी बात पर कुसुम को ताना न मारा हो । यहाँ तक की हँसी- मज़ाक़ की बात को भी वो कलह का रूप देकर ही छोड़ता था । पहले पहले तो कुसुम इसे अनदेखा कर देती थी , यह सोचकर कि चिढ़ाने के लिए कह रहा है पर जब उसने महसूस किया कि वह तो हर बात में नकारात्मक प्रतिक्रिया ही देता है तो दोनों के बीच झगड़े होने शुरू हो गए ।
कुसुम का बेटा तो नार्मल डिलीवरी से ही हुआ था इसलिए एक सवा महीने के आराम के बाद, वह दो महीने के लिए अपने मायके चली गई । वहाँ से आकर एक स्वस्थ शरीर के साथ उसने घर परिवार की ज़िम्मेदारी सँभाल ली । पर बेटे के जन्म के बाद पंकज का ज़रा सा भी सहयोग नहीं मिला उल्टे हर काम में मीनमेख निकालना उसका स्वभाव था ।
घर में केवल पंकज की माँ थी । वे भी अक्सर बेटे को समझाती पर उसके स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया । अब सास अपनी बहू को समझाती —-
कुसुम! दिल पे मत लगाया कर । कहने दें जो कहता है ।
माँजी ! कैसे कहने दूँ ? कोई गलती हो तो सुनूँ भी पर हर बात में ताना , हर बात में उलाहना, कोई कब तक सहन करेगा । मैं कोई लोहे की तो बनी नहीं कि जिस पर कोई असर ही न हो ।
स्कूल की नौकरी वह छोड़ना नहीं चाहती थी क्योंकि कम से कम अपने छोटे मोटे ख़र्चों के लिए वह पंकज पर निर्भर नहीं थी वरना क्या पता पंकज पैसों को लेकर भी कहासुनी करने लगे। घर और नौकरी के बीच वह पिसती जा रही थी । भूले से अगर थकी हारी के मुँह से निकल भी जाता कि आज तो थक गई या आज तो बहुत सिरदर्द है, तो पंकज का वही घिसा- पिटा जवाब हमेशा तैयार रहता —-
जब से इस घर में आई हो मैंने तो तुम्हें कभी ठीक नहीं देखा । रोज़ ही कुछ न कुछ होता रहता है । नौकरी करके मेरे ऊपर कोई एहसान नहीं कर रही हो , छोड़ दो ।
ऐसे में पंकज की माँ बोल उठती—-
अगर ये रोज़ बीमार रहती है तो क्या घर का काम तू करता है? नौकरी छोड़ देगी तो भले आदमी की तरह खर्चे के पैसे देगा ? कुसुम ! इसकी बात पर ध्यान मत दें । ये तो बेवकूफ है। और बेचारी कुसुम , सास का इतना सा अपनत्व पाते ही थोड़ी देर में अपने को सँभाल लेती थी ।
जब गुड़िया उसकी कोख में आई तो उसने मन ही मन भगवान से शिकायत की कि
— एक बच्चे को तो कैसे- कैसे पाल रही है । अब दूसरे की क्या ज़रूरत थी । भगवान! उन्हें दे देता जो बच्चे को तरसते हैं ।
वह किसी भी ग़ैर क़ानूनी तरीक़े को पाप समझती थी इसलिए न चाहते हुए भी गुड़िया को जन्म दिया । ये नौ महीने उसने कैसे- कैसे काटे , सिर्फ़ वही जानती थी । यदि सास का सहारा न होता तो….. कल्पना मात्र से ही वह सिहर उठती । वह शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद कमजोर हो चुकी थी । उसकी प्रिंसिपल ने भी उसकी हालत देखकर कह दिया था——
कुसुम! तुम तो बहुत कमजोर हो गई हो । ऐसे में किस प्रकार नौकरी करोगी । अच्छा होगा कि एक दो साल खुद की और बच्चों की देखभाल करो । नौकरी तो फिर मिल जाएगी । यहाँ नहीं तो दूसरे स्कूल में ।
सॉरी मैम , बस कुछ दिन की बात है । ये तो डिलीवरी तक की समस्या है । वैसे मैं पूरी तरह से नार्मल हूँ ।
गुड़िया का जन्म सिजेरियन से हुआ । न उससे उठा जाता था, न बैठा जाता था । ऊपर से बेटे की परीक्षा रही थी । सास से तो रोटी- पानी का काम बड़ी मुश्किल से हो पाता था । और पंकज वो तो अपने आप की आवभगत एक मेहमान की तरह चाहता था । कभी-कभी सास भी झुँझला कर कहती—
आदत तो इसकी पहले से ही ख़राब है । कुसुम ! तुमने ओर भी बिगाड़ दिया ।खड़ा होकर अपने लिए खाना डाल ले । मेरे भी पैर जवाब दे रहे हैं ।
ऐसे में कुसुम कह देती —- माँजी ! आप भी मुझे कहने लगी । क्या इनको नहीं दिखता । और कहकर होगा भी क्या …. जब एक आदमी ने सोच ही लिया कि दूसरे को परेशान ही करना है और अपना हाथ भी ऊँचा रखना है । मैं अपना धीरे-धीरे कर लूँगी । आप वंश को और इन्हें देख लीजिए ।
सचमुच पंकज मोबाइल में लगा रहता और कहता——
माँ, खाना दे दो ना । माँ, बड़ा थक गया …. ये कर दो …. वो कर दो।
ग्याहरवें दिन हवन होने के बाद , कुसुम रसोई में जाने लगी तब थोड़ी सी राहत मिली ।
और आज पचास लोगों के खाने की खुद तैयारी करने की बात से कुसुम, सचमुच बेचैन हो गई । चार कक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाने हैं । वंश को भी पढ़ाना पड़ता है , गुड़िया का कितना काम होता है, पूरा दिन माँजी भी बच्ची के साथ थक जाता है और पंकज ने तो हर काम से बचने का अच्छा रास्ता निकाला हुआ है कि ज़ोर-ज़ोर से बोलने – डाँटने लगो और सामने वाले को चुप कर दो । उसके पास तो खुद के मुश्किल से पाँच- सात हज़ार रुपए पड़े होंगे यदि हलवाई बुलाने की सोचती भी। ये बुआजी भी तो पूरी बारात लेकर आ रही है। कम से कम दूसरों का भी तो सोचना चाहिए ।
माँजी से सलाह करके तय किया कि पास पड़ोसियों की मदद से ही इतना खाना बनाया जा सकता है क्योंकि रिश्तेदार तो ऐन भोजन के वक़्त ही पधारेंगे । इस तरह कुसुम ने बुआजी के आने के कार्यक्रम की पूरी योजना बना ली ।
दो तीन दिन लगातार बाज़ार जाकर वह सारा सामान भी ले आई । खीर , हलवा , आलू- मटर और पेठे की सूखी सब्ज़ी, रायता तथा पूरी बनाने की तैयारी कर ली। उसका शरीर टूट रहा था पर क्या करे … उसके बीमार होने से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता… सोचकर कुसुम शरीर को खींच रही थी ।
निश्चित समय पर बुआजी अपने लाव-लश्कर के साथ ढोल बजाती पहुँच गई । आज कुसुम को सुबह से ही बुख़ार था पर आज लेटने का अर्थ था कि पूरी ज़िंदगी पंकज को एक नया विषय ताना मारने के लिए देना । उसे हल्के चक्कर भी आ रहे थे । जब पड़ोस की भाभी ने खीर का बड़ा पतीला उतरवाते हुए उसकी हालत देखी तो बोली — कुसुम ! तेरा तो मुँह लाल हो रखा है, देखूँ.. बुख़ार है क्या ?
भाभी हाथ पकड़कर देखती , इससे पहले ही कुसुम आँगन में चक्कर खाकर गिर पड़ी । घर में शोर मच गया । पंकज को बुलाया गया और वह कुसुम को उठाकर कमरे में ले गया । डॉक्टर को बुलाया, बुआजी ने माथे पर बर्फ़ की पट्टियाँ रखी । घंटे भर बाद बुख़ार थोड़ा कम हुआ तो बुआजी बोली—-
बेटा ! तबीयत ठीक नहीं थी तो बता देती । अगले हफ़्ते आ जाते या कम जने आ जाते ।
मेरे बीमार होने से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता, बुआजी !
पास खड़े पंकज को सुनाते हुए कुसुम ने कहा । अब पंकज का मुँह रोने वाला हो गया । अपनी माँ के पास जाकर बोला——
माँ , आपने कभी काम करवाया ही नहींऔर पापा को कभी काम करते देखा नहीं तो इसलिए मुझे भी बेइज़्ज़ती लगती है । ऐसा नहीं कि मैं किसी को दुख देना चाहता हूँ । और अब जब आप किसी काम को करने के लिए कहती हो तो लगता कि कर तो लेंगी , इसलिए ध्यान नहीं देता । पर आज कुसुम की हालत देखकर मुझे शर्म आ रही है । अगर वो चुल्हे के ऊपर गिर जाती?
हाँ कुसुम , सारी गलती इसकी नहीं मेरी भी है । मैं भी आजतक हल्के फुल्के अंदाज में काम में सहयोग की बात करती थी पर मन से और सख़्ती से कभी नहीं कहा । बहू ! मैं अपने बेटे और अपनी ग़लतियों को सुधारना चाहती हूँ ।
और तुम भी ध्यान दो पंकज! वरना जैसे तुम बन गए तुम्हें देखकर वंश भी ऐसा ही बन जाएगा । बेटा ! पति- पत्नी के सुख- दुख का असर एक – दूसरे पर पड़ना चाहिए । आगे से बहू को शिकायत नहीं रखनी चाहिए कि मेरे बीमार होने से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता है ।
करुणा मलिक