मायके की पुकार

सुमन फोन उठाने के लिए जैसे ही भागी, तभी सास कविता देवी की ऊँची आवाज़ गूँजी—
“फिर बज उठा तेरे फोन का घंटा! तेरी माँ और तेरे रिश्तेदारों को क्या चैन नहीं है? दिन में दस-दस बार फोन करते हैं। जैसे हमारे घर का सुख-चैन छीनकर ही दम लेंगे।”

सुमन सकपका गई। शादी को बस एक साल ही हुआ था। उम्र अभी सिर्फ 21 बरस थी। मायके की इकलौती संतान होने के कारण माँ-पापा हमेशा उसकी खबर लेते रहते थे। खासकर माँ को अस्थमा था, सांस फूलने की बीमारी। सुमन का मन दिन-रात मायके की चिंता में डूबा रहता।

उसकी शादी राजेश से हुई थी। राजेश का परिवार बड़ा था। घर में हर वक्त किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता। पर सुमन पर सबसे ज्यादा सख्ती उसकी सास कविता देवी की थी।

सुमन कभी भी सास के सामने फोन उठाकर बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। अगर फोन बजता, तो कविता देवी उसे तुरंत किसी न किसी काम में उलझा देतीं—“सुमन, पानी ला, सब्ज़ी काट, दाल धो।”

सुमन काम में लग जाती और सोचती—“बात तो बाद में कर ही लूँगी।” मगर मन में डर हमेशा बना रहता कि कहीं माँ की तबीयत तो खराब नहीं?

काम से फुर्सत मिलती, तो कमरे में जाकर जल्दी-जल्दी बात कर लेती।

गर्मियों में कविता देवी की बहन शांति मौसी आईं। कुछ दिन रहना था। सुमन ने उनका भी खूब ख्याल रखा। रोज़ नए पकवान बनाती, बार-बार हाल पूछती।

शांति मौसी ने तारीफ़ की—
“बहुत अच्छा खाना बनाती है तुम्हारी बहू।”

कविता देवी ने तुरंत ताना मारा—
“अच्छा बना लेती है, क्योंकि साल भर से मैं सिखा रही हूँ। वरना तो जब आई थी, चाय तक बनानी नहीं आती थी। माँ-बाप ने बिगाड़ कर भेजा है।”

सुमन के दिल पर यह बात तीर की तरह चुभी, पर उसने चुप्पी साध ली।

एक दिन कविता देवी और शांति मौसी बाज़ार गईं। घर में सुमन अकेली थी। उसने सोचा—“चलो, माँ को फोन लगा लूँ।”

जैसे ही फोन उठाया, तभी दरवाज़े की घंटी बजी।
“आप इतनी जल्दी ऑफिस से आ गए?” —सुमन ने राजेश को देखकर कहा।

“हाँ, काम जल्दी खत्म हो गया, सोचा घर पर आराम कर लूँ।” —राजेश ने मुस्कुराते हुए कहा।

सुमन बोली—“सुनो, माँ की तबीयत फिर बिगड़ी है। तीन दिन की छुट्टी है, क्या हम वहाँ जा सकते हैं?”

राजेश ने हिचकिचाते हुए कहा—
“अभी तो मौसी आई हैं। उनके जाने के बाद चलेंगे।”

इतने में कविता देवी और मौसी लौट आईं। सुमन चुपचाप शाम के खाने की तैयारी में लग गई।

रात को सब साथ बैठे। शांति मौसी ने प्यार से पूछा—
“आज क्या स्पेशल बना रही हो, सुमन?”

इससे पहले कि सुमन कुछ कहती, कविता देवी ने कटाक्ष किया—
“आपके लिए तो रोज़ नई डिश बनाती है। हमारे लिए तो दो वक्त का खाना भी जैसे एहसान है।”

सुमन के दिल में दर्द उठा, मगर उसने कुछ नहीं कहा। खुशी-खुशी सबको परोसती रही।

तभी वही हुआ, जिससे वह हमेशा डरती थी—उसका फोन बज उठा।

शांति मौसी बोलीं—
“अरे बेटा, उठा लो फोन। माँ-बाप ही होंगे।”

मौसी के कहने पर सुमन ने जल्दी से माँ से दो मिनट बात की और फोन रख दिया। कविता देवी की आँखों में आग थी, पर परिवार के सामने उन्होंने कुछ नहीं कहा।

कुछ दिन बाद सुमन के पिता का फोन सीधे राजेश के पास आया।
“बेटा, जल्दी सुमन को लेकर आओ। उसकी माँ ज़्यादा दिन की मेहमान नहीं है।”

राजेश घबराकर बोला—
“सुमन, जल्दी तैयार हो जाओ। हमें तुम्हारे घर जाना है।”

इतना सुनते ही कविता देवी बोलीं—
“अरे! मौसी घर में मेहमान बनी हुई हैं, और बहू मायके भागेगी? घर के मान-सम्मान का भी ख्याल है या नहीं?”

अब तक चुप रहने वाली सुमन फट पड़ी। उसकी आँखों में आँसू थे, आवाज़ काँप रही थी—
“माँजी, मैं हमेशा आपकी बात मानती रही। हमेशा डरती रही कि कहीं आपको बुरा न लग जाए। लेकिन आज मेरी माँ की जान सांसों में अटकी है, और आपको आपकी बहन की फिक्र है?

आप खुद दिन में चार-चार बार अपनी बड़ी बेटी से बात करती हैं। मैंने कभी आपको टोका? तो फिर मेरी माँ और रिश्तेदार क्यों बोझ लगते हैं आपको?

आपके तो दो बच्चे हैं, पर मैं तो अपने माँ-बाप की इकलौती संतान हूँ। अगर आज आपने मुझे मेरी माँ के पास जाने नहीं दिया, तो आप किसी की माँ कहलाने लायक नहीं रहेंगी।

हाँ, मेरी माँ ने मुझे चाय बनाना नहीं सिखाया था। मगर उन्होंने यह जरूर सिखाया कि दूसरों का सम्मान कैसे करते हैं।”

इतना कहकर सुमन ने अपना बैग उठाया और दरवाज़े की ओर बढ़ गई।

पूरा घर सन्न रह गया। राजेश भी माँ की ओर देखने लगा। शांति मौसी का चेहरा उतर गया। कविता देवी को पहली बार अहसास हुआ कि उनकी कठोरता ने बहू को उसके सबसे कठिन समय में अकेला कर दिया।

सुमन आगे बढ़ गई थी, मगर पीछे छोड़ गई थी पछतावे का भारी बोझ।

कविता देवी ने धीमे स्वर में कहा—
“मौसी, मैं बहू के मायके वालों से हमेशा चिढ़ती रही। कभी सोचा ही नहीं कि वह इकलौती बेटी है। आज उसकी आँखों से सच बोल गया। शायद मैंने माँ होने का कर्तव्य ही भूल गई थी।”

राजेश ने माँ का हाथ पकड़कर कहा—
“माँ, हमें बहू का साथ देना चाहिए था। वह अपनी माँ के लिए लड़ रही थी, जो कल को हमारे लिए भी लड़ेगी। हमें उसे रोकने की नहीं, सहारा देने की ज़रूरत थी।”

कुछ दिनों बाद सुमन की माँ चल बसीं। सुमन का दिल टूट गया, मगर उसे यह सुकून था कि उसने आखिरी वक्त माँ का साथ दिया।कविता देवी श्मशान से लौटते वक्त बुदबुदाईं—
“काश, मैंने पहले समझ लिया होता। बहू भी बेटी ही होती है।”

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