मायके का हक़ 

रश्मि फोन पर अपनी माँ से शिकायत भरे स्वर में बोली—
“माँ, घर की सफ़ाई और काम करते-करते थक गई हूँ। कभी लगता है इस घर में मैं बस एक नौकरानी हूँ। मेरी थकान किसी को दिखाई ही नहीं देती। सोच रही हूँ कि कुछ दिन मायके आ जाऊँ। बच्चों को भी साथ ले आऊँगी। वहाँ से ही वे स्कूल चले जाएँगे। आखिर ससुराल एक ही शहर मे होने का कुछ तो फायदा होना चाहिए ना।”

फोन पर उधर से माँ—कमला देवी—बड़े प्यार से बोलीं —
“हाँ बेटा, बिल्कुल आना। यह तेरा ही घर है। जब दिल चाहे आ जाया कर। अच्छा ही होगा, घर में रौनक हो जाएगी। और सुन, कल तेरा भैया भी घर पर होगा।”

रश्मि जैसे हल्का महसूस करने लगी—
“ठीक है माँ, मैं कल आ रही हूँ।”

इतना कहकर उसने फोन रख दिया।

फोन रखते ही कमला देवी ने रसोई की ओर रुख किया। बहू संगीता सब्ज़ी काट रही थी। कमला देवी मुस्कुराते हुए बोलीं—
“बहु  रश्मि आ रही है। बेटा राजेश से कह देना, बाज़ार से आते हुए फल, सब्ज़ी और मिठाई ले आए। बेचारी रश्मि ने त्योहार में खूब काम किया होगा। कुछ दिन यहाँ रहेगी तो आराम भी कर लेगी और उसे अच्छा भी लगेगा।”

सुनते ही संगीता का चेहरा उतर गया। हाथ में चाकू थम सा गया। वह मन ही मन सोचने लगी—
“काश, सासू माँ, मेरी थकान भी देख पातीं। मैं भी तो पूरे त्योहार में लगातार घर की सफ़ाई, पकवान और मेहमानों की सेवा करती रही हूँ। मेरी पीठ दर्द से टूट रही है, लेकिन मेरी मेहनत किसी को नहीं दिखती। आपकी बेटी तो जब चाहे मायके चली आती  है। लेकिन जब मैं सालों बाद मायके जाने की सोचती हूँ तो आपको तकलीफ़ होती है। हे भगवान, अब आप ही कुछ ऐसा करो कि सासू माँ को मेरी थकान भी दिखाई दे।”

शायद संगीता की मन की पुकार ईश्वर ने  सुन ली थी। तभी अचानक रश्मि ने दोबारा अपनी माँ को फोन किया।

“माँ, मैं मायके नहीं आ रही हूँ। मेरी सास ने मना कर दिया है।”

कमला देवी चौंक पड़ीं—
“अरे! ऐसे कैसे मना कर दिया? अब तो बेटी मायके भी नहीं आ सकती? फोन दे, मैं उनसे बात करती हूँ।”

रश्मि ने फोन अपनी सास—शारदा देवी—को पकड़ा दिया।

“नमस्ते समधन जी,” कमला देवी ने सहज स्वर में कहा।
“मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आया। हर साल दिवाली के बाद मैं अपनी बेटी को मायके बुलाती हूँ और आप भी खुशी-खुशी भेज देती थीं। इस बार आपने मना क्यों कर दिया? कहीं हमसे कोई भूल तो नहीं हो गई?”

शारदा देवी कुछ क्षण चुप रहीं। उनकी जीभ जैसे बंध गई हो।

कमला देवी ने आगे कहा—
“समधन जी, कुछ दिन पहले आपकी बहू संगीता की माँ—सुनीता जी—मुझे बाज़ार में मिल गई थीं। उन्होंने बहुत दुखी होकर बताया कि संगीता को मायके गए महीनों हो गए हैं। हर बार आपकी बेटी के मायके आने के कारण उनकी बेटी का कार्यक्रम टल जाता है। उनकी आँखों में इंतज़ार और दर्द साफ दिख रहा था।

उन्होंने यह भी कहा कि जब वे लोग संगीता को लेने आते हैं तो आप बहाने बना देती हैं। यहाँ तक कि आपको यह भी अच्छा नहीं लगता कि संगीता अपने मायके वालों से ज़्यादा बातें करे।

समधन जी, आप खुद भी एक बेटी की माँ हैं। आपको तो बहू का दर्द समझना चाहिए। आखिर बहू भी किसी की बेटी है। क्या उसे अपने मायके की याद नहीं आती होगी? क्या उसे भी आराम और अपनापन की ज़रूरत नहीं होगी?”

शारदा देवी का चेहरा उतरता जा रहा था।

कमला देवी आगे बोलीं—
“अगर आप हर बार अपनी बेटी को मायके भेजती रहेंगी और बहू को रोकती रहेंगी, तो इससे ननद–भाभी के रिश्ते में खटास आएगी। बहू का भी मन टूट जाएगा। और याद रखिए, जब बहू चुपचाप सहती रहती है, तो घर की शांति बनी रहती है। लेकिन अगर उसने जवाब देना शुरू कर दिया तो रिश्तों में दरार आ जाएगी। तब आप रोकते रह जाएँगी और वह मायके चली जाएगी। मेरी आपसे बस यही गुज़ारिश है कि इस बार आप अपनी बहू को मायके भेज दें। जब वह लौट आएगी, तब मैं रश्मि को आपके पास भेज दूँगी।”

कमला देवी की बातें सुनकर शारदा देवी के भीतर जैसे कोई तूफ़ान मच गया। उन्हें अपनी गलती का गहरा एहसास हुआ। सचमुच, उन्होंने कभी संगीता की तकलीफ़ पर ध्यान ही नहीं दिया था। उनकी आँखें सिर्फ अपनी बेटी की ओर खुली थीं।

वह सोचने लगीं—
“सच ही तो कहा समधन जी ने। मैं तो भूल ही गई थी कि संगीता भी किसी की बेटी है। उसकी भी एक माँ है, जो उसे देखने को तरसती होगी। मैं तो बेटी मोह में अंधी हो गई थी।”

अब उनके सामने एक अवसर था—बहू और बेटी दोनों के दिल में जगह बनाने का।

शारदा देवी संगीता के कमरे में पहुँचीं। संगीता अलमारी से कपड़े निकाल रही थी। उसके चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी।

“सुन बहू,” शारदा देवी ने कोमल स्वर में कहा,
“रश्मि तो त्योहार पर मायके गई ही है। इस बार तुम भी अपने घर हो आओ। वहाँ तुम्हें भी अच्छा लगेगा और सब से मुलाक़ात भी हो जाएगी।”

संगीता ने हैरानी से सास की ओर देखा। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान आ गई।
“सच कह रही हैं आप?”

“हाँ बहू, बिल्कुल। अब तैयारी कर लो। राजेश से कह दूँगी कि तुम्हें छोड़ आए।”

संगीता का चेहरा खुशी से खिल उठा। उसके मन का बोझ हल्का हो गया। उसने सास के पैर छुए—
“धन्यवाद माँ जी। आपने मेरा दिल जीत लिया।”

कुछ ही दिनों बाद संगीता मायके पहुँची। बरसों बाद अपनी माँ और भाई से मिलकर उसकी आँखें भर आईं। माँ ने बेटी को गले लगाया और कहा—
“बेटी, तू तो दुबली हो गई है। कितना काम करती होगी वहाँ?”

संगीता बस मुस्कुराती रही। कुछ दिन मायके में रहकर वह खुद को नया-सा महसूस करने लगी। माँ का लाड़-प्यार, अपनेपन का अहसास—सब उसकी थकान हर ले गए।

उधर, जब रश्मि को पता चला कि उसकी भाभी मायके गई हैं, तो उसके दिल में पहली बार भाभी के लिए सहानुभूति जागी। उसने अपनी माँ से कहा—
“माँ, मैंने कभी भाभी के बारे में नहीं सोचा। हमेशा अपने मायके आने के बारे में ही सोचती रही। लेकिन अब समझती हूँ, भाभी को भी मायके की उतनी ही याद आती होगी जितनी मुझे। आपने और मेरी सास ने सही किया जो इस बार उन्हें मायके भेजा।”

जब संगीता मायके से लौटकर आई, तो उसके चेहरे की चमक देखते ही शारदा देवी समझ गईं कि उनका फैसला सही था।

कुछ ही दिनों बाद कमला देवी ने अपनी बेटी रश्मि को भी मायके भेज दिया। इस बार रश्मि और संगीता के बीच कोई खटास नहीं हुई। बल्कि दोनों के रिश्ते में अपनापन बढ़ गया।

रश्मि ने भाभी से कहा—
“भाभी, अबकी बार सचमुच आपके लिए भी अच्छा लगा होगा। अब आगे से हम दोनों साथ मिलकर सोचेंगे कि मायके–ससुराल का संतुलन कैसे बनाया जाए।”

संगीता मुस्कुराई—
“हाँ, बिल्कुल। अगर सासू माँ हमें बराबर समझेंगी तो सब रिश्ते खुद-ब-खुद अच्छे हो जाएँगे।”

उस रात शारदा देवी अकेली बैठी सोच रही थीं—
“रिश्तों की मिठास तभी बनी रहती है जब सबको बराबरी का हक़ मिले। बेटी और बहू दोनों ही किसी माँ के दिल के टुकड़े हैं। बेटी को मायके भेजने का अधिकार है तो बहू को भी। फर्क सिर्फ नज़रिये का है।”

उनकी आँखों से आँसू बह निकले। लेकिन यह आँसू पछतावे के नहीं, बल्कि सच्चाई को स्वीकार कर लेने के थे।

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