मतों का भेद स्वाभाविक है – करुणा मलिक : Moral Stories in Hindi

नितिन, प्लीज़ तुम ख़ुद ही आगरा चले जाओ , दो-चार दिन या एक आध हफ़्ता, मैं यहाँ मैनेज कर लूँगी । तुम्हारी मॉम के आते ही हैडेक हो जाती है….

शानू ….यार मैं भी समझता हूँ मॉम की रोक-टोक पर …. लगातार एक महीने से वो कह रही है कि घर में मन नहीं लग रहा …. शी वांटस चेंज…..

तो उनको लेकर कहीं घूम आओ …… उनके यहाँ आने की सोचकर ही मेरा दिल घबरा रहा है । आख़िर वो पढ़ी-लिखी हैं ,अपनी सहेलियों के साथ घूमने जा सकती हैं …. कोई अनपढ़ तो हैं नहीं…… उफ्फ उनके  उपदेश कानों में गूँजने लगते हैं——

 शानू बेटा ! दो दिन से इतने बड़े पतीले में एक गिलास दूध पड़ा है….. इसे छोटे बर्तन में निकाल कर रख दो ….. फ्रिज में जगह बन जाएगी । उहँ….. जगह बनाकर क्रिकेट खेलना है….. अरे बाद में साफ़ हो जाएगा….पर नहीं जब तक बर्तन ख़ाली ना हो जाए …. बोलती रहेंगी …..मेरी पूरी किचन की सेटिंग अपने हिसाब से कर देंगी …… 

शानू , बाई से कहकर बीच-बीच में चिमनी की जाली साफ़ करवाती रहा करो , बिल्कुल बंद हो चुकी थी ।

बेटा ! महीने में एक छुट्टी के दिन अपनी निगरानी में पोंछा लगवाया करो , आज कोनों में से बहुत कूड़ा निकला …..

बेटा, डिब्बों पर चिकनाई जमी थी …… आज सारे डिब्बे साफ़ कर दिए…… क्या दिखाना चाहती है कि मैं बड़ी गंदगी रखती हूँ….. क्या-क्या बताऊँ …. ना बाबा …. यहाँ नहीं…. 

कालिंदी जी का इकलौता बेटा नितिन और बहू शीना बंगलौर की एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करते थे । पति की मृत्यु को कई साल हो चुके थे पर अपने रिटायरमेंट के बाद, वे काफ़ी अकेलापन महसूस करती थीं ।जब भी छुट्टियों में बेटे के पास रहने आती तो अक्सर नितिन को बीच छुट्टियों में ही कोई न कोई बहाना बना कर उन्हें आगरा भेज दिया जाता था । 

शुरू में तो कालिंदी जी का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया पर जब दो साल पहले उनके पड़ोस में रहने वाली उनकी भतीजी ने पूछा—-

ऐसा भी क्या, बुआ! जब भी जाती हो पंद्रह-बीस दिन बाद ही नितिन और शीना को ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ता है? ऐसा तो नहीं कि आपको भेजने का बहाना बनाते हों ..

तेरा भी दिमाग़ उल्टा ही चलता है हमेशा…. मुझसे क्या दिक़्क़त … अकेली जान हूँ… चार काम उनके ही करती हूँ ।

कालिंदी जी के दिमाग़ में भतीजी की बातें बैठ गई और उन्होंने गौर किया कि अलका कह तो ठीक रही है , उनका तो ध्यान ही नहीं गया कि पिछले कई मौक़ों पर नितिन ने इसी तरह रवाना किया है । बस इस बार उन्होंने जाँचने की ठान ली ।

अलका  , सच में मैंने ग़ौर किया कि तुम्हारी बातें सच हैं …..कैसे पता करूँ?

अरे बुआ….. ऐसी परेशानी की बात नहीं है बस इतना पता करो कि उन्हें आपकी कौन सी बातें अच्छी नहीं लगती….. उन्हें नहीं, केवल शीना को …. अब ये तो खुद आपको करना पड़ेगा क्योंकि अगर मैं नितिन को कुछ कहूँगी तो ……

हाँ….तू क्यों बुरी बनती है…. चल मैं ही सोचती हूँ ।

उसी शाम कालिंदी जी ने नितिन से कहा—-

बेटा! घर में मन नहीं लगता, जी करता है कि भाग जाऊँ यहाँ से…. कई दिन से मीना भी काम पर नहीं आ रही, उसके भाई का ब्याह है …. कुछ टाइम तो घर के काम करने में कट जाता है फिर…..

मॉम ….. किताबें पढ़ा करो , अपनी सहेली के साथ मूवी देखने चली जाओ …. अलका के यहाँ चली ज़ाया करो या उन्हें बुला लो , आप ऐसा क्यों नहीं करती कि एक दो दिन मामाजी के यहाँ चली ……

कालिंदी जी के मन को गहरी ठेस पहुँची कि बेटे ने झूठ से भी नहीं कहा—

मॉम , सामान पैक करो …. मैं आपको लेने आ रहा हूँ , हज़ार तरीक़े गिनवा दिए अपने को बिजी रखने के ।

पर उन्हें तो पता करना था कि प्राब्लम कहाँ है इसलिए दो एक दिन बाद फिर बात दोहरा दी । नितिन ने उसी तरह माँ को बहकाने फुसलाने वाली बात की और फ़ोन करके हाल-चाल पूछने की ज़िम्मेदारी पूरी कर दी ।

अलका , रोहनजी से कहकर मेरी टिकट बुक करवा दे……

मेरे हिसाब से तो बुआ , इस तरह बिना बताए मत जाओ …..

अरे बेटा, ऐसा भी क्या कि अपने बच्चों के पास जाने के लिए इतनी औपचारिकता …..माना कि जेनरेशन गैप के कारण मतों में भेद आ गया है पर मन में भेद नहीं आना चाहिए ।

और अगले ही इतवार सुबह दस बजे वे बैंगलोर रेलवे स्टेशन पर उतर गई । उन्हें पता था कि  शीना इतवार को साढ़े नौ बजे तक उठती है । आज उन्होंने जानबूझकर बहू को फ़ोन किया क्योंकि वे जानती थी कि नितिन इस समय फ़ोन नहीं उठाएगा 

— शानू …. बहुत दिन बाद तुम्हारी आवाज़ सुनी ….. उठ गई , मैं रेलवे स्टेशन पर हूँ । नितिन तो देर लगाएगा, टैक्सी से पहुँच रही हूँ, चल पहुँच कर मिलते हैं ।

एक ही झटके में अपनी बात कहकर उन्होंने फ़ोन रख दिया । कालिंदी जी के दिमाग़ में वे दृश्य  घूमने लगे जो उनके फ़ोन रखने के बाद शीना और नितिन के घर में तराशे गए होंगे ।

दरवाज़ा नितिन ने खोला—-

वॉह्ट  ए सरप्राइज़ मॉम ! आपने बताया भी नहीं…..

कालिंदी जी का मन किया कि कह दें —-

तुम्हें फिर से ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़ सकता था पर उन्होंने अपने विचारों और वाणी पर नियंत्रण करते हुए खुद को सुधारा —

कालिंदी, तुम इसी मतभेद को समझने और सुलझाने आई हो । हमारे जमाने में दूसरी तरह से सोचते थे और आजकल के बच्चे अपने तरीक़े से सोचते हैं । सिर्फ़ विचारों का अंतर है…

चाय  के पश्चात कालिंदी जी बोली—-

शानू! चलो आज तुम दोनों की छुट्टी है , लंच के लिए बाहर चलते हैं…. तुम क्या कहती  हो?

वॉओ मॉम, लेट्स मूव …बट आप थकी होंगी वैसे हमारा तो बाहर जाने का प्रोग्राम ही था ।

अरे ! थकान कैसी ? तुम दोनों को देखकर तो मुझमें दुगुना जोश आ गया है ।

कालिंदी जी ने पूरा दिन नोटिस किया कि शीना और नितिन बिल्कुल सही है, उनके चेहरे पर किसी तरह की कोई परेशानी भी नहीं दिखी ।कुल मिलाकर पहला दिन बहुत मज़ेदार गुजरा।

अगले दिन नितिन और शीना ऑफिस जाने की तैयारी करने लगे तो कालिंदी जी ने बहू से कहा—-

बेटा, तुम दोनों आराम से ऑफिस जाने की तैयारी करो, लंच में क्या बनाकर दूँ ? तुम्हारे पास तो इतना टाइम ही नहीं होता कि…..

नो मैटर मॉम , ऐसा नहीं कि हम दोनों अपनी पसंद का खाना नहीं खाते । और आप क्यों बनाएगी,अभी आँटी आने वाली है वो सब जानती है बना लेंगी । आप आराम कीजिए ।

कालिंदी जी ने महसूस किया कि अचानक शीना का स्वर बदला पर उसने बड़ी चतुराई से बात सँभाल ली ।

उस दिन कालिंदी जी ने भी पूरा दिन आराम ही करने की सोची क्योंकि शीना की तीखी आवाज़ ने उनका ध्यान अपने आने के असली मक़सद की ओर मोड़ दिया था । 

बच्चों के ऑफिस जाने के बाद मेड अपना काम करके चली गई। उनका नाश्ता -खाना टेबल पर रखा था , थोड़ी देर बालकनी में खड़ी हो गई पर कितनी देर वहाँ रहती , सोचा — अच्छी से कॉफी बनाकर अलका से बात करती हूँ ।

हाँ बुआ, पहुँच कर फ़ोन भी नहीं किया ….

अरे बेटा. कल इतवार था तो दोनों के साथ बाहर चली गई फिर आकर लेटी तो सुबह ही नींद खुली । 

हाँ-हाँ मैं समझ गई थी…. यूँ ही मज़ाक़ कर रही हूँ ।….और सब ठीक रहा….

इतना कहते ही कालिंदी जी ने सुबह की घटना सुनाई ।

बुआ…. इतनी भी नेगेटिव मत बनो …. एक तो बेचारी आपका ख़्याल कर रही है….. 

कालिंदी जी भी इतनी जल्दी कमेंट्स देने से बचते हुए बोली—-

ठीक है….. सौ तरह की उलझनें होती हैं दिमाग़ में ….. चल तो फिर बात करेंगे….

दोपहर का खाना खाकर बर्तन सिंक में रखने गई तो चाय की छलनी पर ध्यान पड़ा—-

हाय राम ! चारों तरफ़ से कैसी पत्ती जमकर काली पड़ी है—-

ये बाइयाँ भी ना …… ध्यान ना दो तो चलता काम करती हैं पर शीना को कम से कम देखना तो चाहिए…… कौन सा खुद करना है पर ….. नहीं ।

इतना कहकर उन्होंने ब्रश लेकर चाय- छलनी को चमका दिया और अलमारी खोलने की सोची ही थी कि नितिन का फ़ोन आ गया—-

मॉम , क्या कर रही हो, खाना खा लिया…..

हाँ बेटा, ज़रा बर्तन रखने आई थी…… तो छलनी पर नज़र पड़ गई….. काली हुई पड़ी है……

मॉम , आप छोड़ो ना …. शीना की किचन है अपने आप देखेगी … लीव…. चलिए शाम को मिलता हूँ ।

कालिंदी जी ने सोचा कि बेटा लाड़ में रसोई का काम न करने के लिए कह रहा है । बस उन्होंने भी  अधिक प्यार के चक्कर में 

सिंक के नीचे का हिस्सा  यह सोचकर खोल दिया कि एक दिन की छुट्टी होती है….. थक भी जाती होगी ….. अगर कुछ फेंकने वाला हुआ तो निकाल दूँगी । 

जितने भी ख़ाली डिब्बे पड़े थे सब उठाकर कचरे में डाल दिए । और पूरा काम समेटकर शाम होने का इंतज़ार करने लगी । पाँच बजे बच्चे आए तो चाय बनाने के लिए किचन की तरफ़ मुड़ी—-

मॉम … आप बैठिए….शाम की चाय  वैसे तो नितिन बनाते हैं पर मैं बना लाऊँगी…..

शीना ने जिस रूखेपन से बात कही , कालिंदी जी के उठते कदम रुक गए । वे चुपचाप आकर सोचने लगी कि शीना को कौन सी बात से प्राब्लम हुई होगी ?

तभी रसोई से शीना की तीखी और धीमी आवाज़ सुनाई पड़ी——

नितिन! देख लो…. आज तो पहला ही दिन है ….. अरे भई! मेरी किचन है …. मैं खुद मैनेज नहीं कर सकती क्या  ? या पूरी दुनिया में इन्हें ही सफ़ाई आती है…. ये छलनी आँटी ने दो दिन ही साफ़ की थी पर नहीं….. इन्हें तो किसी का काम …

अब कालिंदी जी समझ गई कि बहू को क्या समस्या है …. नितिन उनके सामने चाय का कप रखके चला गया । उसका उतरा चेहरा उसके मन की बात को बयाँ कर रहा था पर कालिंदी जी ने ऐसा जताया मानो उन्होंने शीना की आवाज़ सुनी ही नहीं । 

अब उनके सामने पूरी बात साफ़ हो चुकी थी । हाँ…. उन्होंने प्रण कर लिया कि वे बहू की गृहस्थी में किसी तरह की रोकटोक नहीं करेंगी….. वो कैसे रहना चाहती है, कैसे खर्च करना चाहती है, अपने घर को कैसे चलाना चाहती है….. उसके बाद उन्होंने किसी भी प्रकार की हिदायत देनी बंद कर दी । इस बार कालिंदी जी पूरे दो महीने बहू – बेटे के पास रही और दोनों को ऑफिस के काम से बाहर जाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी । 

बस जाने से पहले दिन उन्होंने बहू से कहा —

शानू…. कोई भी बात मन में आए तो वादा करो कि मन में नहीं रखोगी….. घरों में परिवार के सदस्यों के बीच मतभेद ( विचारों का अंतर) स्वाभाविक है पर जब हम एक-दूसरे के मतों को सम्मान देना छोड़ देते हैं तो मन में भेद बढ़ जाते हैं जो बिल्कुल भी सही नहीं है….परिवार बिखर जाते हैं । 

सॉरी मॉम । मैं समझ गई कि आपका इशारा किधर है? आपने एकदम से किनारा करके , मुझे बहुत कुछ सिखा दिया है । साल भर में ही सही पर आपके अनुभवी और अपनेपन की ख़ुशबू, इस घर के कोने-कोने पर एक छाप छोड़ जाती थी, जिसकी कमी ……. ख़ैर … मैं और नितिन दीवाली पर घर आएँगे और आपको साथ आना ही पड़ेगा ।

कालिंदी जी ने चलते समय बहू-बेटे को हमेशा की तरह दिल से आशीर्वाद दिया ….. हाँ इस बार शीना ने उनके आशीर्वाद की क़ीमत सच्चे मन से पहचानी थी ।

करुणा मलिक

VM

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