शांति देवी अपने कमरे में चुपचाप बैठी थीं। खिड़की से आती हल्की हवा में उनके कागज़ हिल रहे थे। वह अपनी आठवीं कहानी लिख रही थीं। लिखना उनका शौक भी था और जीवन का सहारा भी। पति के निधन के बाद उन्हें सरकारी पेंशन मिलती थी और कभी-कभी उनकी कहानियाँ पत्रिकाओं में छपती थीं, तो कुछ सम्मान-धन भी मिल जाता था।
परिवार उसी पैसे से चलता था। मकान भी उन्हीं का था, जो उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर खून-पसीने से बनाया था। पर यह सच शायद घर के बाकी लोगों को कभी समझ नहीं आया।
इतने में अचानक उनकी बहू, रानी, कमरे में आ धमकी। चेहरे पर तमतमाहट थी और आवाज़ में तिरस्कार।
“बस, कागज़-कलम काले करते रहो, पेट भर जाएगा क्या? रोटी क्यों नहीं बनी आज? मैं और बच्चे क्या खाएँगे?”
शांति देवी ने चौंककर उसकी ओर देखा। ठंढे स्वर में बोलीं—
“क्यों नहीं बनी? आखिर तुम कर क्या रही थी?”
रानी और भड़क गई—
“मैं कोई नौकरानी हूँ क्या? सारा काम मैं ही करूँगी और आप बस रोटियाँ तोड़ेंगी! अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती।”
शांति देवी ने गहरी साँस ली। वह जानती थीं कि बहू का गुस्सा सिर्फ आज का नहीं, कई दिनों से पनप रहा था। शांत स्वर में बोलीं—
“ठीक है, तुम मत बनाओ। मैं अपना देख लूँगी। बाकी, शाम को जब राजेश आए तो कहना, मुझसे मिल ले।”
यह कहकर वह धीरे-धीरे तैयार होकर बाहर निकल गईं।
रानी गुस्से में बड़बड़ाती रह गई—“बाप रे, इतनी गर्मी में बाहर निकली हैं, देखें कब तक अकड़ टिकती है।”
शांति देवी के जाने के बाद रानी घर के काम में लग गई, लेकिन उसके मन में कहीं न कहीं डर भी था। उसे पता था कि सास के पैसे और मकान पर ही उनकी गृहस्थी टिकी हुई है। लेकिन यह सच अक्सर उसके गुस्से और अहंकार के पीछे छिप जाता था।
वह यह नहीं समझ पाती थी कि शांति देवी की पेंशन से ही बच्चों की स्कूल फीस, बिजली-पानी का बिल और कई खर्च पूरे होते हैं। और जिस मकान में वह शान से रहती है, वह भी शांति देवी का है।
दिन किसी तरह कट गया। शाम को आठ बजे राजेश, शांति देवी का बेटा, घर पहुँचा।
“माँ कहाँ हैं?” उसने आते ही पूछा।
रानी सहज बनकर बोली—“कहीं गई हैं, बताकर नहीं गईं। बस इतना कहा कि आपसे बात करनी है।”
राजेश थोड़ा चिंतित हुआ। लेकिन फिर सोचने लगा—माँ कहीं मंदिर गई होंगी, या किसी परिचित के यहाँ।
वह बच्चों के साथ खाने में लग गया। सब सामान्य दिख रहा था, पर मन में हल्की बेचैनी थी।
सुबह सात बजे दरवाज़े पर आहट हुई। शांति देवी लौटीं। उनके चेहरे पर थकान थी लेकिन आँखों में अजीब-सी दृढ़ता।
रानी ने फिर वही जुमला दोहराया—
“यहाँ रहोगी तो काम करना होगा। मैं और नौकरानी नहीं बन सकती।”
तभी दरवाज़े की घंटी बजी। बाहर पुलिस खड़ी थी।
“राजेश मिश्रा और उनकी पत्नी रानी?” पुलिस वाले ने पूछा।
“जी, हम ही हैं। पर हुआ क्या है?” राजेश घबराया।
“आपके खिलाफ शिकायत है। माँ की पेंशन का पैसा खा रहे हो, उनके मकान का उपयोग कर रहे हो, और उन्हें ही दाने-दाने को तरसा रहे हो। यह सब क्या है?”
रानी और राजेश सकते में रह गए।
“माँ! इतनी-सी बात के लिए आपने पुलिस बुला ली?” राजेश हड़बड़ा गया।
शांति देवी ने दृढ़ स्वर में कहा—
“इतनी-सी बात? कल जब मैं अपनी कहानी लिख रही थी, तो तुम्हारी पत्नी ने जिस तरह का सलूक किया, क्या वह छोटी बात थी? क्या माँ को अपमानित करना इतना आसान है?”
अब सबके सामने रानी की हालत खराब थी। पुलिस अधिकारी ने सख्त लहजे में कहा—
“अगर आप लोग इस घर में रहना चाहते हैं, तो माँ का सम्मान करना सीखो। वरना घर खाली करना होगा।”
रानी की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने हाथ जोड़कर कहा—
“माँ जी, मुझे माफ कर दो। गुस्से में गलत बोल गई। आज के बाद कभी कोई काम आपसे नहीं कहूँगी। बस हमें माफ कर दो।”
शांति देवी ने गहरी साँस लेकर कहा—
“देखो, हर संबंध की अपनी मर्यादा होती है। पति-पत्नी, माँ-बेटे, सास-बहू—सब रिश्तों की नींव सम्मान पर टिकी होती है। अगर मर्यादा की लकीरें पार कर दीं, तो रिश्ते टूट जाते हैं। मैं बहू से नौकरानी का काम नहीं चाहती। बस, थोड़ी इज्जत, थोड़ी अपनापन चाहती हूँ। यही मेरे लिए काफी है।”
राजेश भी आँसू रोक न पाया। उसने माँ के पैरों में सिर रख दिया।
“माँ, हमसे गलती हो गई। अब ऐसा कभी नहीं होगा।”
पुलिस ने भी कहा—“अच्छा है कि आपने समय रहते सबक ले लिया। वरना हालात और बिगड़ सकते थे।”
उस दिन के बाद घर का माहौल बदल गया। रानी ने सचमुच अपने व्यवहार में सुधार किया। काम बँटने लगा—कभी वह रसोई करती, कभी राजेश मदद करता, और शांति देवी बस अपने लिखने-पढ़ने के काम में लगी रहतीं।
रानी को धीरे-धीरे समझ आया कि यह मकान और पेंशन सिर्फ सुविधा नहीं, बल्कि आशीर्वाद है। और अगर आशीर्वाद का अपमान हुआ, तो जीवन में कभी सुख नहीं मिलेगा।
शांति देवी भी मन ही मन सोच रही थीं—“आज मेरा लिखना ही मेरे काम आया। अगर मैं चुप रहती, तो शायद यह अपमान जीवनभर चलता रहता। लेकिन अब परिवार को मर्यादा की अहमियत समझ में आ गई है।”
दोस्तों बुज़ुर्गों का सम्मान करना केवल फर्ज़ नहीं, बल्कि संस्कार है।
हर संबंध में मर्यादा ज़रूरी है। अगर हम मर्यादा की लकीरें लांघ जाते हैं, तो रिश्ते सिर्फ नाम के रह जाते हैं।
उस शाम शांति देवी ने अपनी डायरी में लिखा—
“रिश्ते प्यार से चलते हैं, दबाव से नहीं। मर्यादा ही हर संबंध का सबसे बड़ा आभूषण है।”
#अपनों की पहचान
#रचनाकार-परमा दत्त झा, भोपाल।