बहू ये कैसी चाय बनाई है तूने??? ना चीनी है ना चायपत्ती…
बिल्कुल पतली सी…
शालू के ससुर का हर दिन का एक हीं ड्रामा था..
कभी चाय पतली तो कभी दाल…
कितना भी दिल से वो खाना बना दे उसमें मीन-मेख निकालते रहते थे…
शालू ने कहा – बाबूजी!! कल आपने हीं तो कहा था कि, चाय में चीनी कम हीं डाला करो और चायपत्ती कम रखो वरना कसैला स्वाद आने लगता है…
और आप तो जानते हीं हैं कि दूध वाला दूध कितना अच्छा देता है…
सो जैसा मुझे समझ में आया मैंने बना दिया…
ससुर शालू की बात सुनते हीं भड़क उठे..
अरे वो कल की बात थी कल कह दिया सो कह दिया…
ये कहो ना कि तुम्हारा मन हीं नहीं लगता रसोई के कामों में…
हर बात पर एक बात खड़ा करना जरूरी है क्या???
ससुर बोल हीं रहे थे कि सास भी बीच में बोल पड़ी – हां इसका तो यहीं हाल है खुद तो बनाना आता नहीं और बिगड़ने पर दूसरों के मत्थे मढ़ देती है कि आपने हीं तो कहा था…
शालू ने कुछ भी नहीं कहा और अपने हिस्से का चाय लेकर कमरे में चली गई..
अब उसे इन सब बातों का बुरा नहीं लगता था..
बुरा माने भी तो भला क्या बदल जाएगा…
रो कर या हंस कर खाना तो उसे हीं बनाना था…
घर वालों की तो आदत पड़ चुकी है…
स्वयं तो भरपेट खा लेते हैं और उसके समय में खाने कुछ बुराईयां शुरू कर देते हैं…
शुरू-शुरू में वो अपने पति मनीष से हर बात कहा करती थी..
परंतु जब उसने देखा कि मनीष को इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता तो उसने कहना हीं छोड़ दिया….
शालू को तरह-तरह का भोजन बनाने का बड़ा हीं शौक था परंतु वो एक ऐसे घर में ब्याह कर आ गई थी जहां उसे नमक तेल और मशालें तक हिसाब देना पड़ता था…
सब्जी में इतना तेल क्यों डाल दिया???
नमक अधिक हो गया…
मशालें ठीक से भूनें नहीं है तुमने???
कभी कभी तो ऐसे-ऐसे सवाल किए जाते कि शालू ना कोई जवाब दे पाती और ना हीं खुल कर रो पाती….
ससुर जी को बस इस बात का घमंड था कि घर का राशन मेरे पैसे से आता है तो भोजन भी मेरी रुचि के अनुसार हीं बनेगा…
खुद की अठ्ठाईस साल की बेटी को तो बच्चा बना कर रखा था घर में परंतु बहू से हर चीज एकदम सही अनुपात में चाहिए था…
शालू की ननद दीक्षा भी कुछ कम नहीं थी…
सुबह आफिस जाने से पहले बेड पर चाय चाहिए था… चाय पीते हीं कप वहीं छोड़ कर नहाने चली जाती नहा-धोकर आफिस जाती…
आफिस से आकर किसी महारानी की तरह हुक्म सुना देती- भाभी खाना लाइए…
मैं बहुत थक गई हूं जरा मेरे कपड़े जमा दिजिए..
और भी बहुत कुछ..
ऐसा नहीं था कि, शालू को अपनी ननद से प्यार नहीं था परंतु ननद का ये रवैया उसे कतई नहीं सुहाता था…
सास-ससुर को अपनी बेटी की एक भी गलती नहीं दिखती थी और ना हीं उन्हें उसका ब्याह करने की कोई जल्दी थी…
उनके लिए तो उनकी बेटी अभी भी छोटी सी बच्ची थी…
दिन बीतते गए…
शालू दो बच्चों की मां बन गई सब कुछ बदल गया परन्तु जो ना बदला वो था घरवालों का उसके प्रति व्यवहार..
वो शिकायत करें भी तो किससे जिसके साथ ब्याह कर आई थी वो भी तो उसका सगा नहीं था…
अब तो ननद चौंतीस की हो चली थी परंतु आज भी मैके में हीं पड़ी थी…
हर दिन उसके नखरे उठा कर शालू का सब्र जवाब देने लगा था…
एक दिन दीक्षा ने हुक्म सुनाते हुए कहा – भाभी आज कुछ अच्छे पकवान बना देना आज मेरे आफिस के कुछ लोग आ रहे हैं…
शालू की तबियत भी ठीक नहीं थी और दीक्षा ने कुछ इस अंदाज में कहा कि उसको गुस्सा आ गया…
मुझसे नहीं बनेगा आप बाहर से मंगवा लिजिए और वैसे भी आप लोगों की नजर में तो मुझे ढंग से चाय भी बनाना नहीं आता फिर मैं पकवान क्या खाक बनाऊंगी…
शालू की ऐसी बातें सुनकर घर में सब अवाक रह गए..
ससुर जी को भला कहां सहन होने वाला था कि उनकी बेटी को बहू ऐसी बात कहें..
वो गुस्से में चीख पड़े..
बहू तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बेटी के साथ ऐसा बर्ताव करने की…
तुम्हें पता भी है कि तुम मेरे खर्चे पर इस घर में रह रही हो…
शालू ने बीच में बात काटते हुए कहा – हां मैं सब जानती हूं और इस बात का मुझे बहुत दुःख है कि मैं आपके खर्चे पर इस घर में हूं परंतु आपको भी इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि, #मैं भी तो एक बेटी हूं…
मेरा भी एक अस्तित्व है मेरे भी कुछ सपने और उम्मीदें हैं…
क्या घर केवल आपके पैसों से चलता है उसमें मेरा कोई सहयोग नहीं है??
घर में अनाज हो और बनाने वाली ना हो तो क्या सबको भोजन मिल जाएगा??
बाबूजी माना कि आप अपनी बेटी से प्यार करते हैं परंतु इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि मैं भी किसी के घर की बेटी हूं और घर हमेशा बेटियों से नहीं चलता उसे चलाने के लिए बहूओं को भी बेटी वाले अधिकार देने पड़ते हैं…
बोलते-बोलते शालू का गला अवरूद्ध हो गया और सिसकते हुए अपने कमरे में चली गई…
घरवाले बस उसे जाते देखते रहे।
डोली पाठक