ये इतनी रात को अलमारी में क्या ढूंढ रही हो? रंजीत ने अधखुली आंखों को मसलते हुए कहा।
चेतना के माथे पर पहले से ही पसीने की बूंदें थी,उस पर रंजीत की आंख खुल गई तो वो हड़बड़ा गई, कुछ नहीं आप सो जाइये, मैं बिजली बंद कर देती हूं, और वो मोबाइल की रोशनी से अलमारी के कपड़े इधर-उधर करने लगी, हांलांकि नींद आ रही थी, पर मन घबरा रहा था, दीपावली के त्योहार पर उसने सारे गहने पहने थे, और सब उतारकर रख दिये थे, लेकिन उसे याद नहीं आ रहा था कि वो सोने के कंगन कहां पर रखें?
रात को सबने खाना खा लिया था, तो वो रसोई में रात के बर्तन मांजने गई थी, क्योंकि त्योहार पर काम वाली भी छुट्टी कर देती है, अब कामवाली भी नहीं आई ये एक सूकून था, वरना सबसे पहले शक उसी पर जाता, और तसल्ली भी थी कि घर में ही मिल जायेंगे, जब घर में कोई बाहर से आया नहीं तो कंगन जायेंगे कहां पर ?
अलमारी में नहीं मिले तो वो बेचैन हो गई और याद करने लगी, कि कब-कब क्या काम किया था, दरअसल वो जब भी रसोई का काम करती या बर्तन साफ करती तो वो कंगन उतारकर पुरानी चूड़ियां पहन लेती थी, ताकि सोने के कंगन घिस नहीं जायें, बदरंग नहीं हो जायें।
इन्हीं कंगनों से उसकी यादें जुड़ी हुई थी, मां हर त्योहार पर ये मोटे-मोटे कंगन पहनती तो उसका मन खिल जाता था, मां आप ये रोज क्यों नहीं पहनती हो? जब आप अपने इन हाथों से पूजा करती हो, आपके हाथों में ये कितने सुंदर लगते हैं।
मां हंस देती थी, रोज-रोज पहनूंगी तो खराब हो जायेंगे, मुझे ये सोने के जड़ाऊ कंगन तेरी नानी ने दिये थे, और मैं तुझे दूंगी, अभी तो तुझे भी पहनने है।
अच्छा!! आप ये मुझे देने वाली है, ये सुनते ही मेरा मन खुश हो गया, तो लाओं अभी दे दो… मां हंसने लगती, अरे!! पगली अभी नहीं, अभी तो तू बहुत छोटी है, जब तेरी शादी होगी, तब दूंगी।
आप मेरी शादी कब करा रहे हो? ये सुनकर मां और ज्यादा हंसने लगती थी, और मैं मां की मुस्कुराहट के बीच उन चमकते कंगनों को ललचाई नजर से देखती, और सपनों में खो जाती कि जैसे मेरी शादी हो रही है, और वो कंगन मुझे मिलने वाले ही है।
त्योहार के बाद मां वो कंगन उतारकर संदूक में रख देती थी। धीरे-धीरे मैं भी बड़ी हो रही थी, मेरी पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी, तभी मेरे लिए रिश्ता देखा जाने लगा, मैं शादी को लेकर उत्सुक थी, मेरे लिए गहने बनवायें जा रहे थे, लेकिन मुझे कंगन मिलने की खुशी हो रही थी।
शादी का दिन आया और मेरी विदाई भी हो रही थी, मैं मां से लिपटकर रोये जा रही थी, मां से दूर होने का दुःख मन को रूला रहा था, अम्मा ने हमें अलग किया और मेरी विदाई हो गई।
ससुराल में आकर मुंहदिखाई हुई, भरे-पूरे परिवार में मेरी शादी हुई थी, सब मेरे मायके से मिले गहनों की तारीफ कर रहे थे, सोने के सेट, झूमका, मांग टीका, सभी बहुत सुंदर थे, मुझे सब अच्छा लग रहा था, अचानक मुझे याद आया कि मां ने कंगन तो दिये ही नहीं, मेरा चेहरा उतर गया, मैं पगफेरे पर मायके जाने का इंतजार करने लगी।
पगफेरे पर रंजीत के साथ गई, सबने घेर लिया, पड़ौस से इतने लोग आये हुए थे, आस-पास की चाची, काकी, बुआ, सभी हंसी ठिठोली कर रही थी, पर मेरा इन सबमें मन नहीं लग रहा था, मां थोड़ी देर के लिए बैठी थी, तो मैंने धीरे से कहा दिया, मां अब तो मेरी शादी हो गई है, मुझे वो सोने के कंगन चाहिए।
मां ने सब सुना, वो तू फिर कभी आयेगी तब दे दूंगी, और मैं विदा होकर अपने ससुराल आ गई।
मैं रास्ते भर सोचती रही, आखिर मां ने ऐसा क्यों कहा? घर आकर भी मां से कितनी बार फोन पर बात की, लेकिन कंगन की बात पर वो चुप्पी साध लेती थी, इधर मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गई तो मैंने मां से कुछ पूछना ही छोड़ दिया, फिर अब ये भी लगने लगा था कि शादी हो गई है तो मां -पिताजी ने जितना भी दिया, वो ही बहुत है, बार-बार आगे होकर मांगना भी सही नहीं है।
एक बार मैं जब मायके रहने गई तो वहां का माहौल मुझे अजीब सा लगा, पिताजी परेशान थे और बड़े भैया -भाभी भी दुखी लग रहे थे, व्यापार में काफी घाटा चल रहा था। किसी ने कुछ ज्यादा बताया नहीं, मैं रात को मां -पिताजी को हल्दी का दूध देने गई थी, कमरे में से उनके रोने की आवाजें आ रही थी, वो पिताजी से बोल रही थी, आपको ये घाटा कब फायदे में बदलेगा ? किसी तरह तो चेतना की शादी की थी, उसे तो पता भी नहीं है कि उसकी शादी के लिए हमने ये घर और मेरे जड़ाऊ कंगन गिरवी रखे हैं, बचपन से कितना चाव था उसको, और जब शादी में कंगन देने थे, तो मेरे पास कंगन ही नहीं थे, आप कैसे भी करके मेरे कंगन छुड़ाकर मुझे दे दीजिए, कितना समय हो गया है, मैं बार-बार उसे टालती रहती हूं।
मां की आवाज सुनकर मेरे पैरों से जमीन सरक गई, मां का मन था, पर कंगन तो गिरवी रखे थे, अभी तो जैसे -तैसे घर चल रहा था। मैं कुछ मदद करने की सोचती, पर मेरे ससुराल की भी स्थिति ठीक नहीं थी, हम भी कोई बहुत ज्यादा रईस नहीं थे, तो कंगन छुड़ा लेती।
एक साल बाद मुझे बेटी हुई , उसके होने के बाद मैं व्यस्त हो गई थी, सब कुछ भुलकर अपनी गृहस्थी में लगी हुई थी, बड़े भैया व्यापार को सुधार रहे थे, इसी बीच खबर मिली की छोटे भैया की अच्छी नौकरी लग गई है तो घर की माली हालत सुधरने लगी।
कुछ साल निकले, मां अब बीमार रहने लगी थी, उन्हें हार्ट की समस्या हो गई थी, इलाज चल रहा था, पिताजी की भी तबीयत खराब रहने लगी थी, एक दिन खबर मिली की पिताजी अब नहीं रहें, पिताजी के जाने के बाद मां की हालत और खराब रहने लगी, मैं बीच-बीच में जाकर मिल आती थी, मां के प्राण अभी किसी चीज में अटके हुए थे, उनका बोलना भी बंद हो गया था, रात को अचानक छोटे भाई का फोन आया कि मां आपको बुला रही है, मैं तुरंत रंजीत के साथ चली गई , मां के प्राण अटके हुए थे, मैंने मां का हाथ थामा उन्होंने मुझे सोने के कंगन थमा दिये, वो ज्यादा कुछ बोल नहीं पाई, लेकिन उनकी आंखों को मैंने पढ़ लिया था, उन्होंने मेरी अनकही बातें समझ ली थी, थोड़ी देर बाद वो चली गई, उनके चेहरे पर संतोष के भाव थे।
भाई ने नौकरी करके गिरवी रखा घर और कंगन वापस ले लिये, मां मुझे वो कीमती कंगन देकर हमेशा के लिए चली गई, लेकिन आज भी जब वो कंगन पहनती हूं तो मां के हाथों का स्पर्श महसूस होता है, ऐसा लगता है कि मां मेरे साथ ही है।
पुरानी यादों से वापस आई, पूरा कमरा छान मारा, जब बाहर गई तो सोफे पर कुशन की तरफ वो रात को अंधेरे में जड़ाऊ कंगन दीपक की भांति चमक रहे थे, मैंने शायद रंगोली बनाते वक्त उन्हें वहीं पर रख दिया होगा, उन्हें देखकर मेरे चेहरे पर रोशनी बिखर गई, मैंने वो कंगन मां की तरह अपनी अलमारी में संभालकर रख दिये।
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खण्डेलवाल
# सोने के कंगन