भोपाल की उस दोपहर धूप कुछ तेज़ थी। पड़ोसन वर्मा आंटी ने जैसे ही देखा कि रानी मिश्रा गली के मोड़ से रिक्शे में बैठकर आ रही हैं, तो वह हैरान रह गईं।
“अरे, रानी जी! इतनी जल्दी? कहकर गई थीं कि पूरी गर्मी दिल्ली में ही रहेंगी, अब चार दिन में ही लौट आईं? सब ठीक तो है?”
रानी मुस्कुरा दीं, पर मुस्कान में थकान और आँखों में नमी साफ झलक रही थी। बस इतना कहा—“वहाँ मन नहीं लगा। अकेलापन अच्छा नहीं लगता। इसलिए लौट आई।”
लेकिन भीतर का दर्द किसी से कह पाना आसान नहीं था। जब सब चले गए और घर का दरवाज़ा बंद हुआ, तो रानी बिस्तर पर लेट गईं। जैसे ही आँखें मूंदी, अतीत की परतें खुलने लगीं।
बीस साल पहले की बातें उन्हें साफ-साफ याद थीं। उनके पति कपिल मिश्रा पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे। जीवन संघर्षों से भरा था, लेकिन घर-परिवार के साथ सब आसान लगता था। तीन बच्चे हुए—दो बेटियाँ और एक बेटा।
बड़ी बेटी सुधा की शादी मुंबई में हुई। अब उसके दोनों बेटे भी शादीशुदा होकर अपने-अपने परिवार में खुश थे।
दूसरी बेटी माया सतना में थी। उसके पति सरकारी नौकरी में लेखापाल थे। माया की दोनों बेटियाँ इंजीनियरिंग कर रही थीं।
और इकलौता बेटा पवन—घर का चिराग, जिसे रानी और कपिल ने अपनी आखिरी उम्मीद समझकर पाला था।
पवन भोपाल से बीटेक करके दिल्ली चला गया और वहीं नौकरी मिल गई। अब उसका अपना फ्लैट था, जहाँ वह पत्नी और छोटे बच्चों के साथ रहता था।
पति के गुजर जाने के बाद रानी भोपाल के पुश्तैनी घर में अकेली रह गईं। बच्चों का अपना-अपना संसार था। रानी को लगता—अम्मा की तरह मैं भी अकेले ही समय काट लूँगी। पर उम्र बढ़ने के साथ शरीर ने जवाब देना शुरू कर दिया।
पिछले महीने की ही बात थी। एक सुबह चक्कर खाकर वह आँगन में गिर पड़ीं। पड़ोसियों ने हड़बड़ी में पवन को फोन लगाया। बेटा भागा-भागा दिल्ली से आया और माँ को साथ ले गया।
रानी को लगा—चलो, अब कुछ दिन बेटे-बहू और पोते-पोतियों के बीच रहेंगी। अकेलेपन की दीवार टूटेगी। लेकिन जो हुआ, उसने उनकी उम्मीदें तोड़ दीं।
दिल्ली पहुँचीं तो अस्पताल में भर्ती कराया गया। इलाज अच्छा हुआ, पर जैसे ही रानी को होश आया, उन्हें कमरे से बाहर बहू की ऊँची आवाज़ सुनाई दी।
“मेरी शादी तुमसे हुई है, तुम्हारी माँ से नहीं। समझते क्यों नहीं?” बहू गुस्से में बोल रही थी।
पवन समझाने की कोशिश कर रहा था—
“देखो, मैं इकलौता बेटा हूँ। माँ बुढ़ापे में अकेली कहाँ जाएँगी? उन्हें हमारे पास रहना ही होगा।”
“कहीं भी रहें, यह उनकी समस्या है। मैं अपनी प्राइवेसी खो नहीं सकती। घर छोटा है, बच्चे बड़े हो रहे हैं। मैं यह बोझ नहीं उठाऊँगी।”
“मगर अभी बीमार हैं, ठीक तो होने दो।”
“ठीक होते ही छोड़ आना या फिर वृद्धाश्रम में…”
इसके आगे रानी सुन नहीं पाईं। दिल काँप उठा। आँखों से आँसू बहने लगे। वह चार दिन अस्पताल में तो रहीं, पर भीतर से टूट चुकी थीं।
ठीक होते ही उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। रात की गाड़ी पकड़ी और अगली सुबह भोपाल लौट आईं।
गली में जब लोग पूछने लगे—“इतनी जल्दी क्यों लौट आईं?” तो वह बस मुस्कुरा दीं। किससे कहतीं कि बहू ने साफ़ मना कर दिया था और बेटा मजबूर था।
शाम को शुक्ला आंटी मिलने आईं। वह वर्षों से पड़ोस में रहती थीं, खुद भी विधवा थीं।
रानी का चेहरा देखते ही सब समझ गईं। बिना पूछे उन्होंने चाय चढ़ाई और ब्रेड पकौड़े बना दिए।
“लो, खाओ। चिंता मत करो। हम सब इसी दौर से गुजर रहे हैं। बेटा-बहू रखना नहीं चाहते और हम शरीर से कमजोर होकर अकेले रह नहीं सकते। यह नई पीढ़ी रिश्तों को जिम्मेदारी समझती है, अपनापन नहीं।”
रानी के गले में आँसू भर आए। वह शुक्ला आंटी के कंधे से लगकर फूट-फूटकर रो पड़ीं।
उस रात जब सब सो गए, तो रानी आँगन में बैठी आसमान को देखती रहीं।
सोचती रहीं—“क्या सचमुच मातृत्व का यही अंत होता है? जिन बच्चों को पालने में पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी, वही अब बोझ समझते हैं?”
पर मन ही मन खुद को समझाया—
“शायद यही समय का नियम है। अब हमें भी दूसरों पर निर्भर न होकर खुद को मजबूत बनाना होगा।”
अगले दिन उन्होंने ठान लिया—अब अकेलापन उन्हें नहीं तोड़ेगा। पड़ोस की और बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ समय बिताएँगी, भजन मंडली में जाएँगी, बच्चों से ऑनलाइन बातें करेंगी।
दिल तो टूट चुका था, पर जीना तो था। आखिर रानी मिश्रा जान गई थीं कि—
“औलाद हमेशा अपना नहीं होती। पर पड़ोसी, हमउम्र और दोस्त अक्सर सच्चा सहारा बन जाते हैं।”
दोस्तो रानी मिश्रा की यह पीड़ा अनकही नहीं रही। शुक्ला आंटी ने उन्हें गले लगाकर कहा—
“मत सोचो कि तुम अकेली हो। हम सब इसी नाव में बैठे हैं। बच्चों से उम्मीद मत रखो। अपने लिए जीना सीखो।”
रानी की आँखों से आँसू गिर रहे थे, लेकिन इस बार चेहरे पर हल्की मुस्कान भी थी।
वह समझ चुकी थीं—
जीवन का आख़िरी पड़ाव अपने सहारे, अपने हौसले से ही पार करना होगा।
#आप अपने बेटे के साथ क्यों नहीं रहते?
#रचनाकार-परमा दत्त झा, भोपाल।