लाख टके का हीरा – विभा गुप्ता 

   ” अब तो सभी आ गए हैं किशोरी अंकल..आप पापा का वसीयत खोलकर पढ़िए और…।” 

     ” नहीं..अभी कन्हैया को आने दीजिये..।” बेटे राघव की बात पूरी होने से पहले ही जानकी जी ने वकील किशोरी लाल को हिदायत दे दी जिसे सुनकर उनके बच्चों के माथे पर बल पड़ गये।दो मिनट बाद ही कन्हैया आ गया,” काकी माँ…आपने हमें बुलाया..।” 

   ” हाँ..मेरे पास बैठ…किशोरी भाईसाहब..अब आप मेरे पति का वसीयत पढ़कर सभी को सुना दीजिये।” कहते हुए उन्होंने कन्हैया का हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया।किशोरी लाल जी ने एक बड़े लिफ़ाफे में कागजात निकाले और पढ़ने लगे,” मैं मनोहर प्रसाद अपने पूरे होशोहवास में अपनी संपत्ति दुकान और घर अपनी पत्नी जानकी देवी के नाम करता हूँ।उसके बाद दोनों चीज़ें हमारे बेटे कन्हैया के नाम हो जाएगी।” कहते हुए वो कागजात जानकी देवी के हाथ में देकर वहाँ से चले गये तब राघव चिल्लाया,” ये क्या माँ! पापा ने अपनी पूरी जायदाद इस दो टके के आदमी के हाथ में सौंप दिया..।” कन्हैया का हाथ कसकर पकड़ती हुई जानकी जी बोलीं,” दो टके का नहीं…ये तो मेरा लाख टके का हीरा है..।”

       मनोहर बाबू की किराने की दुकान थी जिसकी आमदनी से उनके परिवार का मज़े-से गुजारा हो रहा था।राघव और माधव, दो बेटे थे जिनका पालन-पोषण उनकी पत्नी जानकी अच्छे-से करती थी।

       एक दिन जानकी अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने मायके आई हुई थी।राघव तब छह बरस का था, गाँव में खुली-खुली जगह देखकर वो खेलने लगा।तेज़ी-से एक मोटरसाइकिल उसकी तरफ़ आता देख पास में घास काटती महिला चिल्लाई,” बाबू..हट जा..।” उसने सुना नहीं तब वो उसे बचाने दौड़ी।राघव तो बच गया लेकिन वो महिला लहूलुहान हो गई।शोर सुनकर जानकी आई।राघव को गोद में लेकर वो चूमने लगी।फिर तुरंत उस महिला को लेकर अस्पताल गई लेकिन तब तक उसकी साँस उखड़ चुकी थी।गाँव वालों से उसे पता चला कि महिला का नाम राधा था।पति मजदूरी करता था।उसकी मृत्यु के बाद अपनों ने उससे मुँह मोड़ लिया, तब वो खुद खेतों में मजूरी करके अपने बेटे को पाल रही थी, अब वो अनाथ…।

     ” नहीं-नहीं..जिसने अपनी जान देकर मेरे बच्चे को ज़िंदगी दी है,उसका बेटा कभी अनाथ नहीं हो सकता..मैं हूँ ना उसकी काकी माँ..।” कहकर उसने तीन साल के नन्हें कन्हैया को अपनी छाती से लगा लिया और राधा का अंतिम संस्कार करके दोनों बेटों के साथ कन्हैया को भी साथ लेकर अपने घर आ गई।अपने पति को सारी बात बताकर वो बोली,” आज से हमारे तीन बेटे हैं..आपको कोई आपत्ति तो…।” 

   ” नहीं जानकी..तुम्हारे निर्णय से तो मैं बहुत खुश हूँ।” कहते हुए मनोहर बाबू ने कन्हैया के सिर पर प्यार-से हाथ फेरा और उसका मस्तक चूम लिया।

        मनोहर बाबू जी-जान लगाकर दुकान चलाते और जानकी तीनों बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा में व्यस्त रहती।कन्हैया के प्रति उसका असीम प्यार देखकर मोहल्ले की औरतें और रिश्तेदारों उससे कहते रहते,” जानकी…पराये पर अपना पैसा बर्बाद क्यों करती है…उसे पढ़ाने से क्या फ़ायदा..उससे तो घर का काम काम करवा, वगैरह-वगैरह..।” लेकिन जानकी ने कभी भी उनकी बातों पर कान नहीं दिया।तब उन लोगों ने राघव-माधव के कान भरने शुरु कर दिए,” कन्हैया तुम्हारा कोई है…वो तुमलोगों से तुम्हारी माँ को छीन लेगा..।” 

        राघव और माधव जब तक छोटे थे, तब तक तो सब ठीक था लेकिन जैसे-जैसे वो सयाने होते गये, वैसे-वैसे नफ़रत का बोया बीज भी पौधा बनकर बड़ा होने लगा।अब वो दोनों छोटी-छोटी बातों पर कन्हैया को डपट देते थे।कभी उसकी किताबें- पेंसिल छिपा देते तो कभी उसपर हुक्म चलाकर अपने बड़े होने का रौब दिखाते।जानकी ने उन्हें कई बार टोका और ऐसा व्यवहार न करने के लिए समझाया भी लेकिन..।फिर मनोहर बाबू ने ही पत्नी को समझाया कि चिंता न करो…अभी उनमें बचपना है..।कन्हैया के लिये तो इतना ही काफ़ी था कि उसे काकी माँ और काका का आशीर्वाद मिल रहा है।

        देखते-देखते राघव-माधव काॅलेज़ जाने लगे।कन्हैया अपने काका की पसीने से भीगी कमीज़ देखता था तो उसकी आँख भर आती थी।इसीलिये उसने निश्चय किया कि वो दसवीं के आगे नहीं पढ़ेगा और अपने काका का हाथ बँटाएगा।लेकिन जानकी और मनोहर बाबू तैयार नहीं हुए।तब उसने उन्हें विश्वास दिलाया कि दुकान पर बैठकर ही मैं आगे की पढ़ाई कर लूँगा लेकिन महीने भर बाद उसने किताबों को किनारे कर दिया।उसकी मेहनत से दुकान में ग्राहकों की संख्या दोगुनी-चौगुनी होने लगी।मनोहर बाबू अक्सर ही राघव-माधव के सामने कन्हैया की प्रशंसा करते हुए कहते है कि तुम दोनों भी ऐसे ही मेहनत करना और पत्नी से कहते कि हमारा कन्हैया तो लाख टके का हीरा है।दुकान पर मेरी और घर पर तुम्हारी सेवा करते-करते वो नहीं थकता है।

       कन्हैया की प्रशंसा से दोनों को चिढ़ होने लगी थी।एक दिन दोनों दुकान पर गये और कन्हैया से जेबखर्च के लिए दो हज़ार रुपये माँगे।कन्हैया उन्हें रुपये देकर खाता पर लिखने लगा तो राघव बोला,” कन्हैया भाई..लिखने की क्या ज़रूरत है..मैं पापा को बता दूँगा।” कन्हैया ने उनकी बात मान ली।

     मनोहर बाबू जब हिसाब करने लगे तब कन्हैया ने दो हज़ार रुपये की बात बता दी।उन्होंने राघव से पूछा तो वो साफ़ मुकर गया।माधव ने भी कहा कि हम तो यहाँ महीने भर से नहीं आये हैं, कन्हैया ने खुद ही रख लिये होंगे..।

       मनोहर बाबू को कन्हैया पर पूरा विश्वास था और वे बेटों के स्वभाव से भी भलीभांति परिचित थे लेकिन गृह-शांति बनाये रखने के लिए उन्होंने बात को वहीं खत्म कर दिया।बस कन्हैया से इतना ही कहे कि आगे से खाता पर लिखना मत भूलना।

     लेकिन ये बात कन्हैया के हृदय पर लग गई।एक बार विश्वास टूट गया तो फिर..अब तो बार-बार होगा..वो कब तक..।दुकान के दूसरे स्टाफ़ उसकी ईमानदारी से ईर्ष्या करते थे, मौके का फ़ायदा उठाते हुए उन्होंने कन्हैया से कहा,” देखा कन्हैया..मालिक ने कैसे अपने बेटों की गलती पर परदा डाल दिया और तुम्हें..अब तो तुम्हें# अपनों की पहचान हो गई ना..मैं तुम्हारी जगह होता तो इक पल भी…।” बस उसी पल कन्हैया ने वहाँ से जाने का निश्चय कर लिया।

      घर आकर जानकी जी से बोला,” काकी माँ..अब मेरा यहाँ जी नहीं लगता..मैं जाना चाहता हूँ..काका का हाथ बँटाने के लिए तो बड़े भइया और छोटे भइया हैं ना..।” जानकी जी कन्हैया के दुख को समझ रही थी।उन्होंने रोकना चाहा,” तेरे बिना तेरा काका..।” तभी राघव बोल पड़ा,” जाने दो ना माँ..हम दोनों भाई पापा का हाथ बँटायेंगे और आपकी सेवा भी करेंगे।”

         कभी-कभी इंसान अपने खून के आगे हार जाता है।जानकी जी और मनोहर बाबू के सामने भी ऐसी ही स्थिति आ गई थी।कन्हैया चला गया और राघव-माधव बारी-बारी से पिता के साथ दुकान पर जाने लगे।

      महीने-दो महीने बाद दोनों ने दुकान पर जाना कम कर दिया और पिता से कहा कि वो अपना अलग बिजनेस करना चाहते हैं।पिता के पैसे पर अपना अधिकार समझकर पिता से रुपये लेते रहे और बेटों के मोह में मनोहर बाबू देते रहे।दोनों घर पर मेहमान की तरह आते और चले जाते।दोनों ने अपनी पसंद से शादी भी कर ली और अपनी-अपनी दुनिया बसाकर उसी में रम गये।

        मनोहर बाबू अस्वस्थ रहने लगे।दुकान पर जाना कम कर दिये तो स्टाफ़ अपनी मनमानी करने लगे।बेटे एक ही शहर में रहते हुए भी पराये हो गये थे।जानकी जी पति की सेवा करतीं और अपने कन्हैया को याद करतीं रहतीं।फिर एक दिन मनोहर बाबू ने अपनी आँखें हमेशा के लिए बँद कर ली, तब उनके दोनों बेटे आए।जायदाद में अपना हिस्सा न देखकर राघव-माधव आग-बबूला हो उठे..पिता की वसीयत का विरोध किया तब जानकी जी ने उन्हें जवाब दिया।तब माधव कन्हैया की तरफ़ ऊँगली दिखाता हुआ बोला,” पापा के तो हम अपने थे..ये तो..।” 

    ” अपने! अपने होने का मतलब भी जानते हो..।” जानकी जी ने पूछा तो राघव बोला,” हम उनकी संतान है।” जानकी जी बोलीं,” संतान हो तो क्या कभी संतान होने का फ़र्ज़ निभाया? ये कन्हैया..।” उनका गला भर आया।तब कन्हैया बोला,” काकी माँ..रहने भी दीजिये ना..।”

     ” नहीं रे..आज मत रोक मुझे..।” फिर राघव की तरफ़ देखकर बोलीं,” तुम दोनों तो अपनी-अपनी दुनिया बसा कर हमें भूल गये..ये भी नहीं सोचा कि तुम्हारे पिता की उम्र हो रही है।तुम लोग मौज उड़ा रहे थे और हम..।अस्वस्थता के कारण दुकान स्टाफ़ के हवाले करनी पड़ी जिन्होंने उसकी साख मिट्टी में मिला दी।जब डाॅक्टर ने बताया कि उन्हें टीबी है तो तुझे फ़ोन किया था ना..तब तू अपने साले की शादी में व्यस्त था और माधव अपनी साली का जन्मदिन मना रहा था।मैं अकेली उन्हें लेकर अस्पताल जाती..दवाएँ खिलाती लेकिन उनकी आँखें तो अपनी औलाद की राह तकती रहतीं।

       एक दिन मैं उनकी जाँच की रिपोर्ट लेकर ऑटोरिक्शा में बैठ रही थी कि मुझे चक्कर आ गया।उस समय भगवान का अवतार बनकर इसी कन्हैया ने मेरा हाथ थामकर हमें सहारा दिया था।बेचारा, इस भ्रम में था कि उसके बड़े भाई-भाभी उसकी काकी माँ और काका की खूब सेवा कर रहें हैं लेकिन..।” कहते-कहते वो हाँफ़ने लगीं।

  ” बस भी कीजिये काकी माँ..।” कन्हैया ने उन्हें टोका लेकिन वो नहीं रुकीं, बोलीं,” कन्हैया ने उनकी दिन-रात सेवा करके उन्हें बीमारी से मुक्त कराया और उनकी दुकान को फिर से चलाकर इस मुकाम पर ले आया कि आज वो एक पहचान बन गई है।तब उन्होंने मुझसे कहा था,” जानकी..कन्हैया ने अपनी निस्वार्थ सेवा से हमें # अपनों की पहचान करा दी है।” उनके अंत समय में कन्हैया ने तुम दोनों को कितनी बार फ़ोन किया था..जब तुम लोग नहीं आये तब उन्होंने किशोरी भाईसाहब को बुलाकर अपनी वसीयत बदलवाई और कन्हैया का हाथ मेरे हाथ में देकर बोले,” जानकी..हमारा एक ही बेटा है।मुझे इसी के हाथों मुक्ति दिलवाना..।” मैं तब भी तुम दोनों का इंतज़ार करती रही, फिर कन्हैया ने ही सारे फ़र्ज़ निभाये..।अरे..जिसकी माँ ने अपना जीवन देकर तुम्हारी जान बचाई…जो बिना किसी चाह के हमारे लिये एक पैर पर खड़ा रहा..वो हमारे लिये पराया कैसे हो सकता है। मैं इसकी जन्मदात्री तो न बन सकी लेकिन ईश्वर की कृपा से मुझे इसकी यशोदा बनने का सौभाग्य मिला, यही मेरे लिए बहुत है।अब तुमलोग आज- कल में वापस जाना चाहते हो तो जा सकते हो..।चल कन्हैया…।कहकर वो अपने बेटे के हाथ का सहारा लेकर कमरे से बाहर निकल गईं, पीछे से राघव-माधव माँ-माँ पुकारते रहें लेकिन….।

                                       विभा गुप्ता 

#अपनों की पहचान        स्वरचित, बैंगलुरु 

              दुख की घड़ी में ही अपनों की पहचान होती है।उस वक्त पर जो आपका हाथ थामकर साथ चलता है, सही मायने में वही अपना होता है जैसे कि कन्हैया ने अपने काकी माँ और काका का साथ निभाया।

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