रसोई से आती हल्दी और मसालों की खुशबू के बीच संध्या बरसों से अपने दिन की शुरुआत करती रही। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक, बच्चों की पढ़ाई से लेकर पति अमित की जिम्मेदारियों तक, उसने अपनी पूरी ज़िंदगी घर और परिवार में समर्पित कर दी।
अमित इंदौर में एक अच्छी नौकरी कर रहा था।
घर को सुरक्षित चलाने लायक उसकी तनख़्वाह थी और दफ़्तर का माहौल भी संतुलित।
कभी-कभी उसके ऑफिस में गेट-टुगेदर पार्टियाँ होतीं, जहाँ कर्मचारियों के परिवार भी बुलाए जाते।
हॉल सजता, बच्चे खेलते, बड़े लोग गपशप करते और चाय-नाश्ते के साथ हल्की-फुल्की मौज-मस्ती होती।
इन्हीं मौक़ों पर अक्सर कलीग्स की पत्नियाँ एक-दूसरे से पूछतीं—
“तो आप क्या करती हैं?”
संध्या हल्की मुस्कान के साथ कहती—“मैं होममेकर हूँ।”
ज़्यादातर लोग चुप हो जाते, मगर कभी-कभी कोई सहज ही पूछ बैठता—
“आप जॉब नहीं करतीं?”
संध्या एक पल को ठहर जाती और मन ही मन जवाब देती—
“सबका जीवन अलग होता है। मैं तब बी.ए. सेकंड ईयर में थी, मुश्किल से उन्नीस वर्ष की, जब घर में मेरी शादी की बात होने लगी। दादी की तबियत बहुत खराब थी, वो चाहती थीं कि मेरी शादी उनकी आँखों के सामने हो जाए। और ऐसे में मेरा रिश्ता तय कर दिया गया। मेरे पति मुझसे दस साल बड़े थे, पर उस वक़्त इतनी हिम्मत कहाँ थी कि मैं माँ-बाप से कह पाती कि उम्र का फासला ज़्यादा है। बस चुपचाप शादी कर ली।
ससुराल आई तो वहाँ भी सास-ससुर का बहुत सम्मान करना पड़ता था। कभी इतनी हिम्मत ही नहीं हुई कि कुछ ज़्यादा बोल सकूँ। पति के साथ भी उम्र का अंतर था, और मैं बस चुपचाप अपने हालात को निभाती चली गई। अपने बारे में कुछ करने का समय ही कहाँ बचा।”
उसे याद आता—“अभी मैं बीस की भी नहीं थी कि आदित्य हो गया। उसके बाद आर्या हुई। उनके पीछे-पीछे दौड़ते, उनकी देखभाल करते, कब मेरे जीवन के साल निकल गए, पता ही नहीं चला।”
वक्त ने और भी इम्तिहान लिये। एक बार अमित की नौकरी चली गई थी।
कुछ समय तो जमा किए अमाउंट से घर खर्च, किराया और फीस भरती रही, लेकिन जब हालात और तंग हुए तो अमित ने भारी मन से पत्नी के गहने गिरवी रखकर बच्चों की पढ़ाई जारी रखी।
घर चलाना आसान नहीं था, पर संध्या ने ठान लिया था कि आदित्य और आर्या की पढ़ाई किसी भी हालत में अधूरी न रहे।
वह रोज़ उनके पास बैठती—कभी होमवर्क देख लेती, कभी चुपचाप दूध का गिलास रख देती।
ज़्यादा कुछ नहीं, लेकिन इतना भर कि बच्चों को लगे—“माँ हमारे साथ है।”
यही उसका सबसे बड़ा योगदान था—हर मोड़ पर बच्चों का सहारा बनना।
धीरे-धीरे वक्त बदला। अमित को फिर से अच्छी नौकरी मिली, बच्चे बड़े हुए, पढ़ाई पूरी की और अपने पैरों पर खड़े हो गए।
फिर वह दिन आया जब आदित्य अपनी पहली सैलरी का लिफ़ाफा लेकर घर आया।
“माँ, ये मेरी पहली कमाई है।”
आर्या ने रिज़ल्ट दिखाते हुए कहा—
“माँ, आपने हमेशा कहा था मेहनत का फल मीठा होता है… देखो, ये रहा।”
संध्या की आँखों में आँसू छलक आए। बच्चे घबराए—“माँ, आप क्यों रो रही हो?”
वह दोनों को सीने से लगाकर बोली—
“किसी ने मुझसे पूछा था, तुम्हारी कमाई क्या है?
मैंने कहा था—कुछ खास नहीं…
बस जीवन के दिए मकान को घर से आशियाना बनाया,
उस आशियाने को दो कलियों से सजाया,
उन कलियों को संस्कारों की खाद और नित प्रेम से सींचकर
मैंने सुगंधित पुष्प बनाया।
और आज यही पुष्प मेरे सामने खड़े हैं—
मेरे बच्चे, मेरी सबसे बड़ी कमाई।”
बच्चे उसकी गोद में सिमट गए। आँसू की नमी थी, पर संध्या के चेहरे पर गर्व और संतोष की चमक भी।
तभी आदित्य ने धीरे से कहा—
“माँ, अब मैं नौकरी करने लगा हूँ। आर्या भी जल्दी ही सेटल होने वाली है। आपके पास अब खाली समय होगा… क्यों न आप भी अपने लिए कुछ करिए?”
आर्या ने माँ का हाथ पकड़ते हुए मुस्कुराकर जोड़ा—
“हाँ माँ, आपने हमेशा हमारा ख्याल रखा। अब हमें अच्छा लगेगा अगर आप खुद को भी बिज़ी रखें। आप तो इतना अच्छा खाना बनाती हो, अगर चाहो तो इसे आगे बढ़ाओ। और याद रखना… हम दोनों हर कदम पर आपके साथ रहेंगे।”
संध्या के दिल में जैसे एक नई खिड़की खुल गई।
वह सोचने लगी—“सही वही है जो वक्त और दिल दोनों को सुकून दे। कभी सही था घर और बच्चों में खुद को समर्पित करना… और अब सही है अपने हुनर को पहचान देना।”
यहीं से उसने एक छोटे-से स्मृति टिफ़िन सेंटर की शुरुआत की।
शुरुआत में बस घर की रसोई से ही कुछ टिफ़िन तैयार होते—आदित्य के ऑफिस के दोस्त, आर्या की सहेलियाँ और पास के दो-चार लोग।
लेकिन धीरे-धीरे उसके हाथ का स्वाद सबके दिल में उतरने लगा।
किसी ने कहा—“आपकी दाल में तो घर जैसी खुशबू है।”
कोई बोला—“आपके टिफ़िन से मुझे माँ का खाना याद आता है।”
और ये सुनकर संध्या के चेहरे पर मुस्कान फैल जाती।
महिनों में उसके ग्राहक बढ़े, काम चल निकला और धीरे-धीरे उसकी अपनी कमाई होने लगी।
अब लोग पूछते—“आज खाना कहाँ से मंगाएँ?” और जवाब मिलता—
“स्मृति टिफ़िन सेंटर से, वहाँ का खाना एकदम घर जैसा है।”
नाम अपने आप फैल गया।
संध्या को लगता जैसे उसका बरसों पुराना खालीपन भर गया हो।
अब वह सिर्फ़ माँ और पत्नी नहीं थी, बल्कि अपने हाथों के स्वाद से एक पहचान बना चुकी थी।
वह मन ही मन मुस्कुराई—
“लोग तो पल-पल में बदल जाते हैं।
पहले कहते थे—कुछ करती क्यों नहीं?
और अब वही कहते हैं—तुम्हारा टिफ़िन पूरे शहर में मशहूर है, अच्छी कमाई होती होगी।
सच तो यही है… लोगों का तो काम ही है कहना।
इन्हें चैन कहाँ?
हमें वही करना चाहिए जो हमें सही लगे।
आख़िर में, याद बस यही रह जाता है—कुछ तो लोग कहेंगे।”
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ज्योति आहूजा
#कुछ तो लोग कहेंगे