कुछ तो लोग कहेंगे – सुनीता मुखर्जी “श्रुति”

चल हटटटठ..!

जा यहांँ से… !! कितनी बार बोल चुका हूँ, लेकिन, कान पर जूंँ नहीं रेंग रही है, कैसी औरत है यह…? चौकीदार चिल्लाते हुए बोला। दीपशिखा ऑफिस के सामने खड़ी चौकीदार से बार-बार अंदर जाने की गुहार लगा रही थी। चौकीदार उसे अंदर नहीं जाने दे रहा था। इस बार चौकीदार ने सख्त लहजे से उसे वहां से जाने के लिए कहा। 

दीपशिखा हाथ जोड़ते हुए बोली – भैया..! मुझे साहब से मिलना बहुत जरूरी है, कृपया मुझे साहब से मिलने दो..! 

लेकिन चौकीदार टच से मस न हुआ। 

कुछ देर के बाद चमचमाती गाड़ी में प्रसन्नजीत साहब आ गए। कांच के अंदर से ही उन्होंने वहां एक युवती को परेशान हालत में देखा। 

उन्होंने अपने ड्राइवर शंभू से कहा देखो…!  क्या माजरा है..? देख कर बताओ। और हांँ, चौकीदार को पहले भेजो..! बोलकर साहब दफ्तर के अंदर चले गए।

जी साहब..! चौकीदार अन्दर आया।

चौकीदार को अंदर आते ही प्रसन्नजीत ने बहुत डांटा, और कहा- तुम्हें महिलाओं से बात करने की तमीज नहीं है…!  सबसे पहले महिलाओं का सम्मान करना सीखो। अगर दोबारा इस तरह की हरकत की, तो नौकरी से हटाने में मुझे ज्यादा देर नहीं लगेगी। 

जी साहब….अब आगे से ऐसा नहीं होगा।

जाओ यहांँ से..! 

थोड़ी देर बाद शंभू ने केबिन में प्रवेश किया और बताया। उस युवती का नाम दीपशिखा है। उसके पति इसी ऑफिस में काम करते थे, एक सड़क दुर्घटना में वह चल बसे। अब उनकी रोजी-रोटी का सवाल है, इसलिए वह आपसे मिलना चाहती है। 

प्रसन्नजीत ने कहा- ठीक है अंदर बुलाओ..!

थोड़ी देर बाद शंभू, दीपशिखा को अंदर लेकर आया। दीपशिखा ने हाथ जोड़ते हुए कहा, साहब..! मेरे छोटे-छोटे दो बच्चे हैं।  मेरे पति की नौकरी ही एकमात्र रोजी-रोटी का जरिया था। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं…मैं बच्चों की देखभाल कैसे करूंँगी। बिना पैसों के हम भूखे मरने की कगार पर है। अब आपका ही एक मात्र सहारा है, बोलते हुए दीपशिखा फूट-फूटकर रोने लगी।

प्रसन्नजीत ने बेल बजाकर बड़े बाबू को बुलाया, और कहा इनके पति का प्रोविडेंट फंड एवं अन्य भत्ते क्या -क्या है, कितना एमाउंट बनता है एवं यह सब कब तक मिल जाएगा..? प्रसन्नजीत ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

बड़े बाबू बोले कि इस प्रक्रिया पूर्ण होने में कम से कम एक से दो महीने लग जायेंगे। दो महीने में पूर्ण भुगतान हो जायेगा।

लेकिन तब तक यह क्या करेंगी…? साहब ने एक और प्रश्न दाग दिया। बड़े बाबू चुपचाप खड़े रहे।

एक काम करो, तब तक इनको कुछ एडवांस पैसा दे दो..!

जी साहब।

प्रसन्नजीत ने दीपशिखा से कहा, आप बड़े बाबू के साथ जाइए और कुछ पैसा ले लिए। 

दीपशिखा ने हाथ जोड़ लिए। उसकी आंँखों में कृतज्ञता साफ दिख रही थी।

बड़े बाबू ने कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करवाकर पैसे दे दिए।

दीपशिखा के दोनों बेटे पढ़ रहे थे। पति के जाने के बाद बच्चों की पढ़ाई पर असर पड़ा था, लेकिन दीपशिखा ने सोच रखा था कि बच्चों की पढ़ाई किसी कीमत में भी बंद नहीं होने देगी। चाहे कितनी ही उसे दिन रात मेहनत क्यों न करनी पड़े..? 

कुछ दिनों के बाद दीपशिखा फिर दफ्तर गई। और प्रसन्नजीत से मिली। साहब…! मुझे इसी दफ्तर में कुछ काम दे दीजिए। प्रसन्नजीत ने बाबू को बुलाकर पूछा- अनुकंपा के आधार पर इन्हें नौकरी कब तक मिल सकती है…? बाबू हकलाते हुए बोला- इसके लिए काफी समय लग जाएगा क्योंकि उसके लिए कंडिडेट की लंबी वेटिंग लिस्ट है।

प्रसन्नजीत ने कहा अगर कांटेक्ट बेसिस में भी इनको नौकरी मिल जाती है, तो भी अच्छा है। इसके बाद परमानेंट का जब नम्बर आयेगा तब कांटेक्ट बेसिस नौकरी छोड़कर उसे ज्वाइन कर लेंगी। 

कम से कम यह अपने बच्चों का पालन-पोषण तो कर पाएंगी। 

क्यों आपकी क्या राय है मैडम..!

यह तो आपकी दया दृष्टि है जो आप मेरे बारे में इतना सोच रहे हैं।

बड़े बाबू ने कहा… कांटेक्ट बेसिस में भी बहुत लंबी लाइन है। फिर भी साहब की सिफारिश से उसे अस्थाई नौकरी मिल गई। 

ऑफिस में कोई भी महिला नहीं थी। दफ्तर में एक मात्र महिला दीपशिखा ही थी। उसे कम से कम बच्चों के पालन- पोषण और पढ़ाई की समस्या से निजात मिल गयी। 

दीपशिखा के ऑफिस में आते ही लोग खुसुर-फुसुर करने लगे।

आपस में सब बातें करते…इसके ऊपर तो साहब की बड़ी कृपा है। दूसरा बोला… लगता है दीपशिखा का साहब के साथ कोई संबंध है..!

दफ्तर में जितने मुंँह उतनी बातें बनने लगी। वह घर गृहस्ती तक सीमित रहने वाली महिला, उसका प्रथम साक्षात्कार बाहरी दुनिया से हुआ था। लोगों का अलग-अलग रवैया था। कोई उससे बात करने का बहाने ढूंँढता, तो कोई द्विअर्थी शब्दों का इस्तेमाल करता। 

दीपशिखा सब समझ रही थी, क्योंकि उसे भी अच्छे बुरे की पहचान थी। अगर वह झगड़ा- झंझट करती है तो वह भी ठीक नहीं है। एक न एक दिन इन्हें जरूर समझ में आयेगा… यही सोच कर वह सभी से उलझने से बचती थी। 

दीपशिखा लोगों की कटाक्ष भरी नजरों से बचते हुए अपने काम में व्यस्त रहती। दीपशिखा ने ग्रेजुएशन किया था, इसलिए उसे कामकाज सीखने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई।

विपरीत परिस्थितियों में भी दीपशिखा अपने काम में पारंगत होती गई। ऑफिस से आने के बाद कुछ समय के लिए कंप्यूटर सीखने जाने लगी क्योंकि, उसने महसूस किया कि दफ्तर का अधिकांश काम कंप्यूटर से ही होता है। अब तो हाथ से काम करने समय धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। 

लोगों की जुबान बंद होने की बजाय और भी खुलने लगी। कुछ तो सामने ही बोलने लगे, अरे…! तुम्हें ऑफिस आने की क्या जरूरत है तुम्हें तो घर बैठे ही पैसा पहुंँच जाएगा…? 

आप लोग क्यों आते है..? जब मेरे घर पैसा पहुंच सकता है,तो आपके घर क्यों नहीं…?? दीपशिखा  व्यंग्यात्मक अंदाज में बोली।

उसके बोलने के अंदाज से वह लोग दाये-बाये देखने लगे।

दीपशिखा उनकी बातों को नजरअंदाज कब तक करती, सहन करने  की भी एक सीमा होती है। उसे अपनी जुबान खोलनी ही पड़ी – आप लोग मेरा उपहास उड़ा रहे हैं क्या यह अच्छा काम कर रहे हैं। 

ऐसा नहीं कि मुझे समझ में नहीं आता, या बोलना नहीं आता..!

जरा सोचो…! कल को यह स्थिति आपकी पत्नी के सामने भी आ सकती है, आपकी घरवाली को भी वही शब्द सुनने पड़ेगें, जो आप लोग मेरे बारे में बोलते हैं। तब कैसा लगेगा…?

आप लोग जरुर मेरी बात पर विचार करें….घर हो या कार्यक्षेत्र। साथ में काम करने वाले सब एक परिवार जैसे होते हैं। जहां सभी एक दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े होते हैं और होना भी चाहिए। ऐसे किसी का बिना वजह उपहास उड़ाना ठीक नहीं है।

एक दिन दीपशिखा ने बड़े बाबू से पूछा – कि उसका अनुकंपा के आधार पर स्थाई नौकरी कब तक मिलने की उम्मीद है। बड़े बाबू ने चश्मा थोड़ा नीचे करते हुए तंज कसा। क्यों तुम्हें अपनी नौकरी अच्छी नहीं लग रही है क्या…? 

दीपशिखा बोली नहीं ऐसी बात नहीं है, लेकिन स्थाई नौकरी होना किसे अच्छा नहीं लगता है..! बड़े बाबू ने कहा पैसा तो मिल रहे है न..! घर गृहस्ती चलाने के लिए। वैसे तुम्हें पैसे की क्या जरूरत है… बड़े साहब का तो तुम्हारे ऊपर हाथ है। जब चाहो तब कुछ भी कर सकती हो।

तुमने क्या जादू चला रखा है साहब पर…तुम जैसा बोलती हो, साहब वैसा ही करते हैं।

देखिए साहब…! एक अकेली औरत का उपहास न करें, क्योंकि मैं अकेली जरूर है, लेकिन कमजोर नहीं। और रही बात पैसे की….“मैं दिन भर मेहनत करती हूंँ तब पैसा मिल रहा है, कोई खैरात नहीं मिल रही है।”

और हांँ…! रही बात बड़े साहब की मेहरबानी की…? हांँ… उन्होंने मेहरबानी की है मुझ पर। मुझे इस दफ्तर में नौकरी दी है, इसके लिए मैं आजीवन उनकी आभारी रहूंँगी। लेकिन अब समय आ गया है कि मैं आपकी बात का जवाब दूंँ, और कहते हुए वह कमरे से बाहर चली गई। 

दीपशिखा ने लिखित में बड़े बाबू के खिलाफ शिकायत कर दी।

शिकायत पर प्रसन्नजीत ने बड़े बाबू के खिलाफ अनुशासनिक कार्यवाही के लिए उन्हें सूचित किया। बड़े बाबू दीपशिखा से मनुहार कर रहे थे, मेरे मुंँह से गलती से सब कुछ निकल गया मुझे माफ कर दो..! और अपनी शिकायत वापस ले लो।

दीपशिखा ने कहा- मैंने बहुत बार आप सबकी बातों को नजरअंदाज किया सोचा- जिसकी जैसी सोच, वह वैसा ही बोलेगा। यह सोच कर अपने काम में व्यस्त रहती। आप जैसे प्रतिष्ठित बड़े बाबू अपने बॉस के साथ मेरे संबंधों को उछालेंगे, तब मैं चुप नहीं रहूंँगी। इसका खामियाजा आपको भुगतना ही पड़ेगा…!

बड़े बाबू ने सारे हथकंडे अपना लिए। जब वह समझ गये, कि दीपशिखा मानने वाली नहीं है तब वो बोले- मैं तुम्हें नौकरी से हटवा दूंँगा। दीपशिखा ने तुरंत बड़े बाबू के खिलाफ एक और शिकायत पत्र दे दिया।

वह बोली मैं नौकरी से हटूंँगी या रहूंँगी यह बाद की बात है। मैं अपनी मेहनत के बल पर नौकरी कर रही हूंँ। आप लोग उसे बढ़ावा देने की बजाय, मानसिक प्रताड़ना दे रहे हैं क्या यह ठीक है..?

अब दफ्तर में तमाम लोग जो बातें बनाते थे सब शांत हो गए। उसके सामने तो किसी को कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती,किन्तु पीठ पीछे वही घिसी-पिटी बातें करते। 

दीपशिखा के लिए यही बहुत था जो सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी… पीठ पीछे बोलने वालों की वह परवाह नहीं करती..!

प्रसन्नजीत ने बड़े बाबू के खिलाफ अनुशासनिक कार्रवाई की। उन्होंने उनकी रोजी-रोटी पर लात तो नहीं मारी, किंतु आने वाली बेतनबद्धि को तीन सालों के लिए रोक दिया, एवं सभी के सामने दीपशिखा से माफी मांगने का आदेश दिया। 

प्रसन्नजीत ने दीपशिखा को अपने केबिन में बुलाकर कहा। देखिए..! आपने नौकरी करने के लिए घर की देहरी लांघी है। आप अपने स्वाभिमान की रक्षा करिए, यह बहुत अच्छी बात है, करनी भी चाहिए। 

आप अपना कर्तव्य पूर्ण मनोयोग से करिए, धीरे-धीरे इनकी मानसिकता बदल जाएगी। लेकिन सभी पुरुष तो ऐसे नहीं हैं। इसमें से कुछ आपका भला भी चाहते हैं। हाँ… कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं चाहते कि आप उनके साथ नौकरी करें।

इसलिए हम कितनी भी अनुशासनिक कार्रवाई क्यों न कर लें, लेकिन हमारे पीठ पीछे कुछ तो लोग कहेंगे। यह उनकी सोच है, जिसे बदला नहीं जा सकता।

सुनीता मुखर्जी “श्रुति”

लेखिका 

हल्दिया, पश्चिम बंगाल

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