इधर कॉलेज से घर पहुँचते ही विपुल बिस्तर पर ढह गया।
लेकिन दिमाग में बार-बार वही पल घूम रहा था —
जब उसने विकास से हाथ मिलाया था, मुस्कुराकर उसे बधाई भी दी थी।
लेकिन सुमि की मुस्कान, उसका शरमाना, नज़रें झुकाना, हर बात उसके दिमाग में घूम रही थी—सुमि, जिसे वह न जाने कब से पसंद करता था। तब से… जब वो विकास को जानती भी न थी।
वह सोच रहा था—
“क्यों वो मुझे पहचान न पाई… क्यों उसे मेरा चेहरा पहचाना सा न लगा ?
“वो क्यों न समझ पाई कि क्यों मैं उसे बचाने के लिए दूसरों से पंगा ले लेता था।”
“काश, मैं पहले ही उसके सामने दिल का हाल खोल देता… काश!”
दिल की धड़कन तेज थी, लेकिन जवाब कहीं नहीं था।
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उधर देर शाम जब सुमि घर लौटी तो देखा, पापा-मम्मी किसी गहरी चर्चा में थे।
पापा ने उसकी ओर देखकर कहा—
“सुमि, कल दोपहर प्रतीक अंकल के घर जाना है। वो लोग कई बार बुला चुके हैं, इस बार खास तौर पर कहा है कि तुम्हें साथ लाना।”
आंटी-अंकल से तो वह भी मिलना चाहती थी। पर उसके चेहरे पर दुविधा थी।
वो सोच रही थी कि—अगर कल वहाँ गई, तो विकास और सुमन से मिलने का मौका हाथ से निकल जाएगा… लेकिन मना भी कैसे करूँ?
मम्मी – पापा को यह कारण दिया नहीं जा सकता था, इसलिए हाँ करने के अलावा कोई चारा न था।
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प्रतीक अंकल का घर आर.के. पुरम में था।
हालाँकि, अंकल-आंटी को वह बचपन से जानती थी—जब वे आगरा में उनके पड़ोसी हुआ करते थे। पर उनका दिल्ली वाला घर सुमि पहली बार देख रही थी।
सुमि को देखते ही आंटी खिल उठीं।
“अरे, हमारी छोटी राजकुमारी! याद है बचपन में हमारे घर ही रुकी रहती थी और कहती थी कि मैं ही आपकी बेटी हूँ। ”
फिर हँसते हुए बोलीं— “और मैं कहती थी कि बड़ी हो जा, तो हमेशा के लिए तुझे अपने घर ले आऊँगी।”
उस बात का अर्थ समझ सुमि शरमा गई।
पीछे से किसी के आने की आहट सुन, वे बोलीं —
“लगता है, बंटी भी आ गया।”
सुमि ने जैसे ही मुड़कर देखा, उसकी आँखें फैल गईं—
“विपुल… तुम… बंटी?”
क्षणभर को उसकी साँस जैसे अटक गई। यादों की परतें अचानक सामने आने लगीं।
बचपन के दिन… जब दोनों मिलकर आँगन में क्रिकेट खेलते थे, जब बारिश में कागज़ की नावें बहाते हुए झगड़ पड़ते थे कि किसकी नाव सबसे दूर जाएगी।
वही बंटी, जो हमेशा उसकी चोटी खींचकर भाग जाता था और फिर पकड़े जाने पर मासूमियत से कहता था— “मैंने तो कुछ किया ही नहीं।”
सुमि की आँखों के सामने एक-एक कर सारे दृश्य तैरने लगे।
विपुल ने उसकी ओर देखा—ठीक वैसे ही जैसे कभी बचपन में क्रिकेट का शॉट लगाकर वह तुरंत उसकी प्रतिक्रिया जानने को देखता था।
विपुल सुमि के पापा-मम्मी के पैर छुए और फिर उसकी ओर देखकर मुस्कुराया और बोला, “हेलो सुमि “
“तुमने इसे कैसे पहचाना ?” विपुल की मम्मी बोलीं।
“माँ, सुमि मेरी ही क्लास में पढ़ती है,” विपुल ने सहजता से कहा। “मुझे पता था कि जल्दी ही या तो इसके घर या हमारे घर में मुलाक़ात हो ही जाएगी। इसलिए किसी को नहीं बताया… चाहता था कि ये सरप्राइज़ बने।”
सुमि ने उसकी ओर देख कर मुस्कुराते हुए कहा—
“अच्छा… तभी तुम मुझे इतने जाने-पहचाने लगते थे। दिल कहता था कि कहीं देखा है, पर याद नहीं आता था।”
फिर अपनी मम्मी की ओर देखते हुए बोली—
“मैंने तो सुमन और विकास से भी कहा था कि विपुल मुझे बहुत फेमिलियर लगता है, जैसे कहीं पहले मिल चुकी हूँ।”
विकास का नाम सुनते ही विपुल की मुस्कान जैसे ठहर गई। चेहरे पर एक अनकहा दर्द उभर आया, जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था।
सुमि उस बदलाव को देख तो लिया, पर चुप रही।
फिर थोड़ी देर बाद बड़ों के कहने पर दोनों दूसरे कमरे में चले गए।
चुप्पी तोड़ते हुए विपुल ने कहा—
“मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान गया था। इसलिए कॉलेज के पहले ही दिन वो सब बोल गया… पर हैरानी है कि तुमने मुझसे कुछ पूछा तक नहीं।”
उसकी आँखों में हल्की शिकायत झलक रही थी ।
सुमि ने हल्की-सी हँसी में अपनी झिझक छिपाई।
उसने नज़रें झुका लीं, फिर पल भर बाद विपुल की ओर देखा—
“पूछना तो चाहती थी… बहुत बार। लेकिन तुम हर बार हालात ऐसे बना देते थे कि डर लगता था… कहीं तुम गलत मतलब न निकाल लो।”
उसके होंठों पर मुस्कान थी, पर आँखों में एक सच्चाई झलक रही थी, जैसे वो मान रही हो कि उसने भी कभी उस अनकहे रिश्ते की आहट महसूस की थी।
कुछ पल की चुप्पी के बाद विपुल ने जैसे हिम्मत जुटाई। उसकी आँखें सुमि के चेहरे पर टिक गईं, आवाज़ हल्की काँप रही थी—
“विकास और तुम… कब से… मेरा मतलब… तुम दोनों के बीच…।”
“बोलो न, जो भी पूछना चाहते हो बेझिझक हो कर पूछ सकते हो।” पता नहीं क्यों, विपुल की सच्चाई जानने के बाद वो बेहद कॉन्फिडेंट महसूस कर रही थी ।
विपुल ने गहरी साँस लेते हुए उसकी आँखों में झाँककर पूछा—
“क्या तुम्हें कभी… मेरी तरफ, या मेरी बातों से… मेरी फीलिंग्स का ज़रा-सा भी आभास नहीं हुआ, सुमि?”
उसकी आवाज़ में बेचैनी और उम्मीद दोनों घुली हुई थीं।
सुमि ने पल भर को नज़रें चुराईं, फिर धीरे-धीरे उसकी ओर देखती हुई बोली—
“सच कहूँ तो… कॉलेज के शुरू में मैं खुद बहुत उलझ गई थी। कई बार लगा कि तुम्हारी निगाहों में कुछ और भी है, पर समझ नहीं पाई।”
उसने गहरी साँस ली और होंठ भींचकर आगे कहा—
“फिर हालात ऐसे बने कि विकास और मैं… और जब कुछ दिन पहले उसने मुझे प्रपोज़ किया, तभी दिल की तस्वीर साफ़ हो गई।”
विपुल ने धीमे स्वर में कहा, मानो हर शब्द उसके गले में अटक रहा हो—
“और अगर… उससे पहले मैं तुम्हें अपने दिल की बात कह देता तो?”
कुछ क्षण खामोशी के बाद, सुमि ने गहरी साँस ली और फिर धीमे से बोली—
“पता नहीं… सच में, मुझे खुद नहीं पता।”
विपुल ने हल्की मुस्कान ओढ़ ली, मगर उसकी आँखों में नमी साफ़ झलक रही थी। वो धीमे से बोला—
“मतलब… मैं बस कुछ ही दिन लेट हो गया।”
सुमि ने उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर दर्द तो था, लेकिन उसमें कोई कड़वाहट नहीं थी।
धीरे से बोली—
“अब क्या कहूँ, विपुल? बस इतना ज़रूर कहूँगी… दिल की बात दिल में दबाकर नहीं रखनी चाहिए। कह देना ही बेहतर है। शायद तब मंज़िल वही न हो, लेकिन रास्ता आसान हो जाता है।”
यकायक माहौल हल्का करने के लिए सुमि मुस्कुराई और बोली—
“वैसे… कशिश के बारे में क्या ख्याल है? थोड़ी पागल है, पर लड़की तो बेहद सुंदर है !”
विपुल उसकी शरारत भरी बात सुनकर हँस पड़ा।
“ख्याल तो नेक है… लेकिन तेरे ख्याल को दिल से निकालने में वक्त लगेगा, सुमि। बचपन से ही माँ के मुँह से तेरे और मेरे नाम साथ-साथ सुनता आया हूँ। लगता था जैसे दोनों नाम हमेशा एक-दूसरे से जुड़कर ही पूरे होते हैं।”
उसकी हँसी में मिठास थी, लेकिन आवाज़ में हल्की-सी कसक घुली हुई थी।
थोड़ा रुककर उसने सुमि की ओर हाथ बढ़ाया, आँखों में पुरानी शरारत और नयी परिपक्वता साथ-साथ चमक रही थी—“नो हार्ड फीलिंग्स… फ्रेंड्स?”
सुमि ने उसकी हथेली को देखा। पलभर के लिए जैसे उसे बचपन की वही तस्वीर याद आ गई—वो छोटा-सा बंटी, जो हर बार लड़ाई के बाद हाथ बढ़ाकर कहता था, ‘चल, फिर से दोस्त।’
वह मुस्कुराई, और धीरे से उसका हाथ थाम लिया—
“फ्रेंड्स। और हाँ, मुसीबत में अब भी मदद करनी पड़ेगी, बंटी।”
विपुल ने उसकी हथेली कसकर थाम ली— “हमेशा।”
उस पल दोनों ने महसूस किया कि कुछ रिश्ते चाहकर भी बदलते नहीं।
वो दोस्ती, जो आँगन में कागज़ की नावों से शुरू हुई थी, आज भी उतनी ही सच्ची और गहरी थी—बस अब उसमें ज़िन्दगी के अनुभवों की परिपक्वता जुड़ गई थी।
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अंजु गुप्ता ‘अक्षरा ‘