“अरे अब हमारा पिंड क्यों नहीं छोड़ती। ना जाने ये बुढ़िया कब मरेगी? यमराज भी न जाने कहाँ जाकर बैठ गये हैं? रोज़ किसी ना किसी को तो लेकर जाते हैं। अगर इस बुढ़िया को ही लेकर चले जाते तो उनका क्या बिगड़ जाता? इसके रोज-रोज के नखरे से तो मैं तंग आ चुका हूँ। हमारे लिए कुछ बचे ना बचे पर इस महारानी को तो दोनों वक्त भर पेट भोजन चाहिए -काम के न काज के दुश्मन अनाज के।”
ये शब्द धनुष से निकले किसी तीक्ष्ण बाण से कम न थें। पर काकी करती भी तो क्या करती? अपने इकलौते बेटे के सामने बेबस और लाचार जो पड़ी थी।
काकी की आँखें नम हो चली थी। आँखों से बहती अश्रुधार काकी की सारी कहानी बयां कर रही थी। पर काकी कमरे के एक कोने में बैठी जमीन की ओर नीचे एक टक निहार रही थी।
काकी ने कभी सोचा भी न था कि जिस बेटे को वह अपने बुढ़ापे की लाठी समझ रही थी। वही बेटा उसके लिए आज एक अभिशाप बन जायेगा।
वह कयामत भरी रात काकी को आज भी याद है। जब समय की तीव्र चाल ने उसके पति के जीवन की गति को सदा-सदा के लिए विराम दे दिया था और काकी दुनियाँ की भीड़ में अपनी खुद की पहचान ढूंढने निकल पड़ी थी।
अंधविश्वासी जमाने ने तो काकी को मनहूस की संज्ञा ही दे डाली और उसके पति की मृत्यु का ज़िम्मेदार उसे ही बना डाला। नतीजा यह हुआ कि ससुराल वालों ने काकी को घर से निकाल दिया।
समय की मार और अपनों के तिरस्कार ने तो जैसे काकी के हृदय की वेदना, संवेदना एवं समस्त भावों को ध्वस्त ही कर डाला था। पर काकी के गर्भ में पलता नवजात शिशु अभी भी अपने माँ के ममत्व को पाने के लिए अपने माँ के उदर में संघर्ष कर रहा था।
काकी भी इस दुनियाँ को सदा-सदा के लिए अलविदा कर देना चाहती थी। पर अपने अजन्मे शिशु के साथ वह विश्वासघात करना न चाहती थी। बस क्या था? काकी भी जीवन के संघर्ष पथ पर चल पड़ी। कभी मजदूरी करती तो कभी किसी के यहाँ चौका बर्तन तो कभी किसी की जी हजूरी। काकी का गुजारा भी जैसे-तैसे चल जाता।
देखते-देखते काकी के जीवन में वह पल भी आया। जिस पल का काकी को बेसब्री से इंतज़ार था। काकी ने एक सुंदर से बेटे को जन्म दिया। बेटे को देख काकी के तो खुशी का ठिकाना ही न रहा। काकी अब अपनी सारी तकलीफें भूल चुकी थी। काकी को अब अपने जीवन से कोई शिकायत भी न थी क्योंकि काकी के जीवन को एक नया आधार जो मिल गया था।
समय बीतता गया। दिन, महीना और महीना, साल में बदलता गया। देखते- देखते काकी का बेटा भी एक जवान युवक बन चुका था। काकी ने अनगिनत तकलीफें झेली। पर बेटे को गम और आभाव के साये से कोसो दूर रखा।
फलस्वरूप, बेटा आज एक अच्छी नौकरी कर रहा था और उसकी शादी भी हो चुकी थी। पर जिस माँ ने उसे इस मंजिल तक पहुँचाया, इस मुकाम तक
पहुँचाया। आज उसी माँ के लिए उसके घर के एक कोने में भी कोई स्थान न था। शादी के बाद बेटा बदल चुका था। काकी लड़े भी तो किससे।
आख़िर एक माँ की ममता ने पुत्र मोह में दम तोड़ ही दिया। काकी अपना सामान ले, अपने बेटे के घर से दूर, जीवन के एक नये सफ़र पर निकल चुकी थी।
(पूर्णतः सुरक्षित, स्वरचित एवं मौलिक रचना)
नीरज श्रीवास्तव
मोतिहारी, बिहार
सीख :
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि :
1. माँ के त्याग और समर्पण का कर्ज हम कभी भी अदा नहीं कर सकते। हमें अपनी माँ का आदर करना चाहिए। हम कहीं गलती से उसे इतना मजबूर ना कर दें कि हमारे ऊपर से माँ का साया ही उठ जाये और वह हमेशा-हमेशा के लिए हमें छोड़ कहीं चली जाये।
2. औलाद कितना बुरा क्यों ना हो? पर माँ अपने औलाद का प्रतिकार कभी नहीं करती। इसलिए माँ का ध्यान रखे क्योंकि दुनिया में माँ से अनमोल कुछ भी नहीं।
नोट : कहानी कैसी लगी। प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा। आपकी समीक्षा हमारे लिए अमूल्य निधि है। धन्यवाद।
लघुकथा : काकी
नीरज श्रीवास्तव