आज दीप्ति असमंजस में थी। वह जिस जगह खड़ी है वही उसके जीवन में बहुत पहले घटित हो चुका था।
आरोही और आरव दोनों दीप्ति के जुड़वा बच्चे थे। दोनों बच्चे साथ- साथ बड़े हुए। दोनों बच्चे संस्कारी एवं पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। देखते-देखते कब बारहवीं पास कर लिये, पता ही नहीं चला।
दोनों बच्चों को दसवीं पास करने के पश्चात जब उन्हें विषय वर्ग चुनने की आवश्यकता हुई। दीप्ति ने न जाने क्यों दोनों बच्चों को विज्ञान वर्ग, जीव विज्ञान के साथ पढ़ने के लिए अपनी राय रखी। उसकी बहुत इच्छा थी, कि वह जो नहीं बन पाई, वह उसके बच्चे बने। यह ज्यादातर आम माता-पिता की धारणा होती है। फिर भी उसने सिर्फ बच्चों के विषय चयन में मदद की, अपनी इच्छाएं थोपी नहीं।
दोनों बच्चे बारहवीं पास कर गए। आरोही ने प्रथम प्रयास में ही नीट परीक्षा पास कर ली। आरोही का ऑल इंडिया पचासवां स्थान था, जिस कारण उसे सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया। आरव सिर्फ क्वालीफाई कर पाये, लेकिन उसकी अच्छी रैंकिंग नहीं थी। दीप्ति ने उसे एक वर्ष और तैयारी करने के लिए कहा।
“दीप्ति की मांँ ने उसे समझाया- “तू आरोही की पढ़ाई में इतना खर्चा करेगी तो, आरव को कैसे पढ़ायेगी। आरोही कौन सा तेरे पास बैठी रहेगी, उसे तो पराए घर जाना है…!”
“आरव तो तेरा बेटा है वह तो इसी घर में रहेगा, फिर तू आरोही पर इतना खर्चा क्यों कर रही है।”
मांँ तुम्हारे जैसी न जाने कितने माता-पिता की यह सोच है, जिसके कारण आज तक लड़कियांँ हर क्षेत्र में पिछड़ती रही है। बेटियांँ पराये घर जायेंगी…! इसका क्या मतलब है…? उनके विकास के रास्ते बंद कर दिए जायें..?? माँ तुम्हारी यह गलत धारणा है।
बेटा हो या बेटी..! दोनों ही अपने पास नहीं रह पाते हैं। जहांँ उनकी नौकरी है, बस वही उनका बसेरा है। मैं नहीं चाहती मेरी बेटी वह मानसिक अवसाद झेले, जिसे मैंने झेला है। आखिर वह भी तो मेरी संतान है। जिसकी जैसी सोच होती है, घर में तरक्की भी वैसी होती है।
मांँ, दीप्ति के तर्क से चुप हो गई। उन्हें महसूस हुआ, कि उसने कई वर्ष पहले जो किया था, दीप्ति अप्रत्यक्ष वही एहसास करा रही है।
किस्मत की विडंबना देखो…! द्वितीय वर्ष आरव भी नीट की परीक्षा में बहुत अच्छी रैंकिंग से पास हो गया। आरव की मेडिकल पढ़ाई के लिए एजुकेशन लोन मिल गया। अच्छी रैंकिंग मिलने के कारण आरव को भी प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया।
दोनों बच्चे का चयन एमबीबीएस में ही हुआ, यह दीप्ति के लिए बहुत सौभाग्य की बात थी। जो वह नहीं बन पाई वह बच्चों को बनता हुआ देख रही थी।
वह आँख बन्द करके अपने बीते हुए दिनों में चली गई।
जहां दीप्ति अपने जीवन में अपनों की साजिश को पछाढ़ते हुए आगे बढ़ी है। उसे पता था कि अगर उसने अपने बढ़ते हुए कदमों को विराम दे दिया, तो उसकी जिंदगी उलझ कर रह जायेंगी।
इंटरमीडिएट विज्ञान वर्ग से करने के पश्चात नीट की परीक्षा दी थी। घर वाले परीक्षा देने में तो कुछ नहीं बोले, लेकिन वह आगे पढ़ पाएगी या नहीं, यह तो उसे भी मालूम नहीं था।
दीप्ति का बड़ा भाई सुमित बारहवीं की परीक्षा देने के बाद नीट की तैयारी करते हुए तीन साल हो गए थे, लेकिन कुछ अंकों से रह जाता था।
दीप्ति बारहवीं परीक्षा के साथ-साथ प्रथम प्रयास में ही नीट परीक्षा में सफल हो गई और उसकी रैंकिंग भी अच्छी थी। इस बार सुमित भी सफल हो गया।
माता-पिता ने सुमित को मेडिकल कॉलेज में दाखिला करवा दिया।
दीप्ति छोटी थी, पढ़ाई में अच्छी थी, लेकिन वहां भी बेटा, बेटी की मानसिकता में, बेटे को ही वरीयता मिली। वह कशमसाकर कर रह गई।
एक दिन दीप्ति की मांँ बोली- पैसों का खर्च बहुत ज्यादा है, तुम कला वर्ग से प्राइवेट ग्रेजुएशन कर लो। दीप्ति कुछ नहीं बोल पाई। उसे मालूम था, उसके पास और कोई विकल्प नहीं है।
ग्रेजुएशन करते हुए उसके विवाह के लिए अनंत का रिश्ता आया। अनंत की कोई भी विवाह में मांग नहीं थी, इसलिए जल्दबाजी में उसका विवाह कर दिया गया।
उसकी उभरती हुई भावनाएं दबकर रह गई।
दीप्ति ने अनंत से अपनी पढ़ाई निरंतर रखने के लिए आग्रह किया। दीप्ति कुछ करना चाहती थी लेकिन समझ नहीं पा रही थी, कि वह जिनकी बेटी थी वहां तो कुछ कर नहीं पाई, पता नहीं अनंत और इनके घर वाले इस बात को मानेंगे या नहीं।
दीप्ति ससुराल में सभी को खुश रखती, उसकी कोई अनावश्यक मांगे नहीं थी। अपनी पसंद का कपड़ा और गहना उसने सारा जीवन कभी नहीं मांगा। अनंत के परिवार वाले दीप्ति को बहुत प्यार करते थे।
दीप्ति के अंदर डॉक्टर न बनने की मलाल हमेशा रहता था। वह कभी भी किसी से इस संबंध में कोई बात नहीं करती थी। वह एक पल के लिए भी नहीं भूल पाती थी कि उसे डॉक्टर बनना था।
ससुराल की बहुत ही सीमित आय में घर और उसकी पढ़ाई चल रही थी। अनंत के साथ-साथ उसके सास ससुर भी उसकी पढ़ाई में साथ दे रहे थे। वह चाहते थे कि बहु रानी जितना पढ़ना चाहे पढ़े।
एक दिन अनंत दीप्ति से बोला -”मैं तुम्हारे नाम के आगे डॉक्टर दीप्ति लिखा हुआ देखना चाहता हूंँ…!”
क्या तुम इसके लिए तैयार हो..?
अचानक..! उसकी आंँखों की कोरें भींग गई। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे उसके जख्मों को किसी ने कुरेद दिया हो।
उसकी भींगी हुई आंखों को अनंत में देख लिया। वह उसे बहुत प्यार से देखते हुए बोला, मैं तुम्हारे लिए हर संभव मदद करूंँगा।
तुम पीएचडी के लिए अप्लाई करो और अपने मनपसंद विषय पर शोध करो। अनंत का प्यार और समर्थन से उसने नेट परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी।
“जहां चाह वहां राह” को चरितार्थ करते हुए प्रथम प्रयास में ही उसका चयन हो गया।
कुछ सालों के बाद दीप्ति का शोध पूरा हुआ और वह दीप्ति से “डॉक्टर दीप्ति अनंत” कहलाने लगी। इसका श्रेय वह ससुराल वालों को देती थी।
कुछ सालों के बाद जहां से उसने प्राइवेट एम. ए. किया था वहीं पर वह प्राध्यापिका बन गई।
दीप्ति मन ही मन एक बात सोच रही थी, कि मैं जिसकी औलाद हूंँ, उन्होंने मुझे समझने की कभी कोशिश नहीं की…..! जो अनजान व्यक्ति मेरी जिंदगी में आया, वह मेरी हर ख्वाहिश पूरा करने के लिए तत्पर रहता है। शायद इसीलिए कहा जाता है, बेटियों का घर ससुराल होता है।
अचानक उसकी तंद्रा टूटी, और अपनी खूबसूरत दुनिया को देखकर मुस्कराने लगी।
सुनीता मुखर्जी “श्रुति”
लेखिका
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
साजिश