दीदी हमलोग बाहर जा रहें हैं, नहीं तो रख लेते अम्मा को। ये बात नई नहीं थी प्रीति के लिए उसकी देवरानी भाविका का हमेशा एक बहाना तैयार रहता था। प्रीति की सास उसके साथ ही रहतीं थीं लेकिन कभी भी जरूरत पड़ने पर सोचती की सासू मां को कुछ दिनों के लिए देवरानी के घर भेज दें तो वो कोई ना कोई बहाना बना कर पीछा छुड़ा लेती थी।
प्रीति बहुत परेशान हो चुकी थी।सास यानि बीना जी भी कम नहीं थीं वो भी भाविका के घर जाना ही नहीं चाहतीं थीं क्योंकि वहां उनके ऐश आराम में दिक्कत आती थीं।ना जाने कैसी मानसिकता थी उनकी अपने ही बेटों के लिए। बड़े बेटे के घर ही रहना पसंद करतीं थीं क्योंकि यहां सुख सुविधा बहुत थी और छोटी बहू से कभी नहीं पटी उनकी।
बड़ी बहू क्या करती, उसने तो शुरू से मुंह बंद करके सबकुछ सहा था और पति भी ऐसा मिला था की मां के आगे मुंह ही नहीं खोलता था। प्रीति कुछ कहे भी तो उल्टा सुना दें कि,” ये घर मां का भी है।जिसे परेशानी है वो चला जाए यहां से। मैं अम्मा को कुछ नहीं कहूंगा।” इसी बात का फायदा उठाकर
सभी प्रीति पर चढ़े रहते।रोज – रोज के क्लेश से बचने के लिए उसने मौन धारण करना बेहतर समझा था।जिस घर में पत्नी का सम्मान पति नहीं करता वहां पूरे परिवार वाले भी उसको कभी भी सम्मान नहीं देते हैं। प्रीति ये बात अच्छी तरह जानती थी।
उसके बचपन की सहेली की बेटी की शादी थी और प्रीति का भी मन था कि वो जाए और सहेलियों के संग वक्त बिताए।हर बार की तरह वही सवाल की तुम चली जाओगी तो अम्मा की देखभाल कौन करेगा। हमेशा प्रीति ही समझौता करती। इस बार उसने सोचा कि देवरानी भाविका से बात करेगी कि वो कुछ दिनों के लिए अम्मा को अपने पास रख ले तो वो शादी में जा सकती है।
भाविका ने तो दो टूक जबाब दे दिया कि “दीदी हमलोग बाहर जा रहें हैं अगर आप पहले बतातीं तो कुछ सोचती मैं। वैसे भी अम्मा को हमारे घर कहां मन लगता है।जब भी आईं हैं तो दिन भर आपके घर का ही गुणगान करतीं रहतीं हैं जैसे यहां जंगल में कोई छोड़ दिया हो।” भाविका को तो मौका चाहिए था बस चालू हो जाती।
भाविका,” सास दोनों की हैं तो क्या सिर्फ हमारी ही जिम्मेदारी हैं? तुम लोग अच्छे से रखा करो तो क्यूं शिकायत करेंगी। मुझे बाहर जाना है इसलिए तुम से कह रहीं हूं” प्रीति के मन में तो बहुत कुछ था लेकिन वो इस वक्त बात नहीं बढ़ाना चाह रही थी।
दीदी,” हमें भी जाना जरूरी है टिकट हो रक्खी है हमारी”।
भाविका ने कभी भी कोई रिश्ता नहीं निभाया था और परिवार में किसी को उससे शिकायत भी नहीं थी। प्रीति अगर कभी ननदों से कहती तो एक ही जबाब मिलता कि,” भाभी आप तो जानती हैं छोटी भाभी का स्वभाव। उनसे क्यों उम्मीद रखतीं हैं। अम्मा को भी आपके साथ रहना अच्छा लगता है। बेचारी ना जाने कितने दिनों की मेहमान हैं।उनकी बेकद्री ना करिए आप दोनों देवरानी जेठानी मिल कर।”
जहां से सवाल उठा था घूम फिर कर वहीं आ गया था। किसी को फ़िक्र ही नहीं थी प्रीति की। आखिर उसकी क्या ग़लती थी? उसे हक नहीं था कहीं भी जाने आने का। मायके तो ऐसे जाती जैसे पड़ोसी के घर चीनी – चाय की पत्ती मांगने। जाने से पहले दस कहानियां शुरू हो जाती थी अम्मा की।
सच कहें तो जो परिवार की जिम्मेदारी उठाता है वही बेचारा त्याग करते – करते मर भी जाए तो भी उसकी कीमत नहीं होती है। कहते हैं ना गधे पर ही वजन लादा जाता है घोड़े पर नहीं।लोग तो बड़े आसानी से कह देते हैं कि ‘सेवा करोगे तो मेवा मिलेगा ‘।सच मानिए बहू भी सास बन जाती है तब भी वो अपनी सास की निगाह में नई नवेली बहू की तरह ही होती है।उसकी तकलीफ़, बीमारी की किसी को नहीं पड़ी रहती है।
प्रीति ने सोचा कि शाम को पतिदेव आएंगे तो उनसे कहेगी कि वो अगर दो दिन की छुट्टी ले लेंगे तो वो शादी में जा सकती है और वो सबकुछ बना कर रख जाएगी। उसने कामवाली से भी बात कर लिया था कि दिन में आकर गरम – गरम फुल्के सेंक देगी सबके लिए।
रात को खाना पीना होने के बाद प्रीति ने अजय से अपने मन की बात कही तो अजय पहले तो बहुत जोर से हंसने लगा कि,” इस उम्र में भी सहेली – सहेली चल रहा है तुम्हारा। मैं क्या फालतू बैठा हूं ऑफिस में जो जब चाहूं छुट्टी लेकर बैठ जाऊं। क्या बोलूंगा बड़े साहब से कि मेरी बीवी को अपने सहेली की बेटी की शादी में जाना है।ना जाने कहां से तुम्हारे दिमाग में फितूर भरा रहता है। ये सब ख्याल निकालो। तुम नहीं जानती की अम्मा को कितनी परेशानी होगी।”
प्रीति की सहनशक्ति ने अब जबाब दे दिया था। कहते हैं ना जब ऐसा इंसान का ग़ुस्सा फटता है ना तब फिर किसी के बस का नहीं होता है की वो संभाल ले।
“अम्मा अम्मा अम्मा ….मेरी ही जिम्मेदारी हैं सिर्फ आप लोगों की नहीं हैं।आपके भाई की और आपकी जिम्मेदारी नहीं है। मेरी तो सास हैं और जब से व्याह कर आईं हूं ना सिर्फ बहू बनकर रह गई हूं। मेरी इच्छा आपके लिए ना तो कल मायने रखती थी ना आज। अगर आपका भाई चार दिन नहीं रख सकता और आप अपनी मां के लिए चार दिन छुट्टी नहीं ले सकते हो तो मैं क्यों उठाऊं जिम्मेदारी। मैं
अब जरुर जाऊंगी शादी में। आप लोगों को कैसे करना है अब आप सब जानो।”
प्रीति के इस रुप को तो अजय ने कभी देखा ही नहीं था। वो आवक खड़ा रह गया उसकी जुबान में मानो ताला लग गया हो क्योंकि प्रीति सही थी। दुनिया ऐसी ही है अगर आप अपने लिए नहीं खड़े हो गए तो किसी को फर्क नहीं पड़ता है ये बात बिल्कुल सही थी।
प्रीति ने अपना टिकट करवा लिया था और अब वो अपने फैसले पर अडिग थी।इस बार किसी की हिम्मत ही नहीं हुई थी की कोई अपनी कहानी परोसे।
हम अगर जिम्मेदारी उठाते हैं और अपने परिवार को लेकर चलते हैं तो परिवार की भी जिम्मेदारी बनती है की वो भी हमारी खुशी के बारे में सोचें। शादी में जाना विषय नहीं था विषय ये था की प्रीति के बारे में कभी कोई सोचता ही नहीं था।हर बार मन मार कर वो बैठ जाती थी और कभी किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं होती अहसान तो कोसों दूर की बात थी।
हर रिश्ते अगर एक दूसरे की बात को समझें तो कोई भी बात इतनी कठिन नहीं है लेकिन सिर्फ एक इंसान के कंधों पर संस्कार के नाम पर सारी जिम्मेदारी लाद दिया जाए तो ये बात न्यायसंगत तो बिल्कुल नहीं है।
प्रीति बहुत खुश थी क्योंकि आज वो किसी बोझ के तले दबी नहीं थी । शादी में बहुत मस्ती किया था । इधर घर वालों को उसकी अहमियत और दाल – आंटे की कीमत समझ में आ गई थी। जिस काम की घर वालों के निगाह में कीमत नहीं थी उसी में मां – बेटे और कामवाली बाई सभी उलझे थे और फिर भी कोई संतुष्ट नहीं था कोई। अब अजय को छुट्टी भी मिल गई थी।
सभी को सबक मिलना जरूरी भी होता है। हर रिश्ते की अपनी अहमियत है परिवार में इस लिए सभी के भावनाओं की कद्र करना भी जरूरी है।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी