हालात

सुबह का अख़बार जैसे ही घर में आया, विमला ने आदतवश मुखपृष्ठ खोला। और तभी उसकी आँखें ठहर गईं।
बड़े-बड़े अक्षरों में छपा था—
“गरीबों का देवदूत—डॉ. सुनील”
साथ ही मुस्कुराते हुए उसके भाई सुनील की तस्वीर भी छपी थी।

विमला की आँखें भर आईं। वह फूली न समाई। चेहरे पर गर्व की चमक थी।

बगल में बैठी उसकी जेठानियाँ जैसे ही अख़बार पर नज़र पड़ीं, तो स्तब्ध रह गईं। वही सुनील… जिसे वे कभी “मुफ़्तखोर” और “निखट्टू” कहकर अपमानित करती थीं, आज अख़बार के पहले पन्ने पर उनकी शान बढ़ा रहा था।

सुनील पाँच साल का ही था जब उसकी माँ का निधन हो गया। उस उम्र में बच्चा माँ की गोद, प्यार और दुलार चाहता है। पर किस्मत ने उससे यह सुख छीन लिया।

तब उसकी बड़ी बहन विमला ही उसकी माँ बन गई। गोदी में खिलाना, भूख लगने पर खाना देना, स्कूल ले जाना—सब वह करती। पिता अपनी चाय की दुकान पर रहते और रात को थककर लौटते।

कुछ साल बाद विमला की शादी हो गई। आँसुओं के साथ उसने सुनील को पिता के भरोसे छोड़ दिया। लेकिन किस्मत को और भी निर्दय होना था। पिता भी एक बीमारी के दौरान चल बसे।

विमला का मन रो-रोकर बेहाल हो गया। पति के समझाने पर उसने पिता की दुकान बेच दी और सुनील को अपने साथ ले आई।

ससुराल में विमला की दो जेठानियाँ थीं। घर में सास-ससुर नहीं थे, इसलिए उन्हीं का वर्चस्व था। दोनों ही सम्पन्न घरानों से आई थीं। उनका तिरस्कार विमला के हर काम और हर शब्द में झलकता।

विमला गरीब घर से आई थी। उसका भाई सुनील उनके लिए बोझ से कम न था।

जब भी सुनील पढ़ने बैठता, बड़ी जेठानी तुरंत आवाज़ लगाती—
“अरे, ज़रा यह काम कर दे… जा तो बाज़ार से सब्ज़ी ले आ।”

और अगर वह पढ़ाई का बहाना करता तो ताना कसतीं—
“पढ़-लिखकर करेगा क्या? मुफ़्त की रोटियाँ ही तोड़ रहा है।”

छोटी जेठानी तो हरदम उसे “निखट्टू” कहकर अपमानित करती।

विमला का दिल अंदर से टूट जाता, लेकिन वह विवश थी। पति के सामने भी जेठानियाँ दबाव बना देतीं, इसलिए खुलकर विरोध नहीं कर पाती।

एक दिन बड़ी जेठानी ने सुनील से कहा—“जा, साबुन ले आ।”

सुनील ने सहजता से कहा—“दीदी, जरा जीजाजी के जूते पॉलिश कर लूँ, फिर जाता हूँ।”

बस इतना कहना था कि बड़ी जेठानी आगबबूला हो उठीं।
“देखा, कितनी अकड़ है। चोरी-चकारी करता होगा, तभी बहाने बनाता है।”

छोटी जेठानी ने भी हाँ में हाँ मिलाई—“हाँ हाँ, मुफ़्तखोर कहीं का, घर का सामान उठाकर बेच देगा।”

सुनील का मासूम दिल यह अपमान सह न सका। आँखों से आँसू बह निकले। वह दीदी विमला के पास गया और बोला—
“दीदी, अब मैं यहाँ नहीं रहूँगा। बहुत अपमान सह लिया।”

विमला ने रोते हुए उसे समझाने की कोशिश की, पर सुनील अपने निश्चय पर अडिग था। अगले ही दिन वह घर छोड़कर चला गया।

भूखा-प्यासा वह इधर-उधर भटकता रहा। अचानक सेठ हरिराम की गाड़ी से टकराकर बेहोश हो गया।

सेठ और उनकी पत्नी मंदिर से लौट रहे थे। बच्चे की आस में वे हमेशा उदास रहते। सेठानी तुरंत गाड़ी से उतरीं। चेहरे पर ममता झलक रही थी। उन्होंने पानी के छींटे मारकर सुनील को होश में लाया।

“कौन हो बेटा?” उन्होंने प्यार से पूछा।

सुनील फूट-फूटकर रो पड़ा और अपनी कहानी सुना दी।

सेठानी का हृदय पिघल गया। उन्होंने सुनील को गाड़ी में बैठाया और अपने घर ले आईं।

सेठजी नेकदिल इंसान थे। उन्होंने सुनील का अच्छे स्कूल में दाखिला करवाया।
सेठानी उस पर अपनी ममता लुटाने लगीं।

सुनील ने भी उनकी उम्मीदों को निराश नहीं किया। वह पढ़ाई में तेज़ था। दसवीं कक्षा में पूरे स्कूल में प्रथम आया।

उसके जज़्बे को देखकर सेठ और सेठानी ने उसे कानूनी रूप से गोद ले लिया।

छह महीने बाद ही सेठानी माँ भी बन गईं। सेठजी के घर में अपने बेटे की किलकारी गूँजने लगी।

पर इससे सुनील का महत्व कम नहीं हुआ। बल्कि उसने अपने छोटे भाई की तरह ही उस बच्चे को अपनाया।

वह दिन-रात पढ़ाई करता रहा। डॉक्टर बनने का सपना पूरा किया।

सेठजी ने उसके लिए क्लिनिक खुलवाया। लेकिन सुनील ने वहाँ अमीरों से अधिक गरीबों का इलाज मुफ़्त करना शुरू किया। धीरे-धीरे उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई।

इसी सेवा भाव पर एक पत्रकार ने उसका इंटरव्यू लिया। और आज वही इंटरव्यू अख़बार के मुखपृष्ठ पर छपा था।

विमला का दिल गर्व से भर गया। उसने वह अख़बार छाती से लगा लिया।

उसकी जेठानियाँ पास खड़ी थीं। उनके चेहरे पर पछतावा था। वे सोच रही थीं—
“हमने तो इसे गाजर-मूली समझकर अपमानित किया था। पर आज वही हम सबकी इज्ज़त बढ़ा रहा है।”

दोनों रोनी सूरत बनाकर बोलीं—
“विमला… हमें माफ़ कर दो। हमने सुनील को बहुत तुच्छ समझा और…”

विमला ने आँसू पोंछते हुए कहा—
“नहीं दीदी… यह तो आपका ही आशीर्वाद है।”

उसके व्यंग्य को समझकर जेठानियों की नज़र शर्म से झुक गई।

दोस्तों 
किसी इंसान को उसके हालात देखकर कभी छोटा मत समझो।
हो सकता है वही कल तुम्हारे सिर का ताज बन जाए।

विभा गुप्ता

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