अरे रिक्शा वाले, सुनिए ज़रा , तू ही यहाँ से बच्चों को बड़े स्कूल लेकर जाता है क्या ?
हाँ अम्मा , बोलो …. बड़े स्कूल कौन से ……सिटी इंटरनेशनल स्कूल की बात कर रही हो …. ..यहाँ से तीन बच्चों को ….ले तो जाता हूँ ॥
अरे हाँ…वही । मेरे पोते को भी ले ज़ाया कर …. कितने लेता है महीने में ?
अम्मा…. वो वकील साहब ने मना किया है… दूसरे बच्चों को बैठाने से …. बस मैं तो उनके ही बच्चे ले जाता – लाता हूँ… किसी दूसरे से पूछ लो ।
अरे बेटा … पूरी रिक्शा ख़ाली ही तो पड़ी है…. छोटा सा बच्चा है… ले ज़ाया कर …. सौ-पचास ज़्यादा ले लियो ।
अम्मा…. बात पैसों की थोड़े ही है …. हिसाब से ज़्यादा क्यूँ लूँगा …. वो कोने का घर है वकील साहब का …. बात कर लो … वो कह देंगे तो ले जाऊँगा …. नहीं तो किसी ओर से बात कर लो ….
अरे… भाई, पूछा था मेरे बेटे ने स्कूल में……. पर इस तरफ़ से ये तीन ही बच्चे जाते उस स्कूल में….. चल शाम को पूछ लूँगी वकील की माँ तो रोज़ ही मंदिर में मिलती हैं……. वैसे भी नर्सरी के बच्चों को तो अगले हफ़्ते से बुलाया है ।
इतना कहकर अम्मा अंदर आकर बहू से बोली —-
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पिंकी , जिन तीन बच्चों के बारे में वे स्कूल वाले बता रहे थे ना ….. वे गुप्ता वकील के यहाँ से जाते हैं । अभी रिक्शावाले से ही बात कर रही थी । बिना उनके कहे वो ले जाने को तैयार नहीं….. नया रिक्शा है …. बच्चों के लिए बढ़िया बनाया है…. उतरने-चढ़ने में कोई परेशानी ना हो …… चल शाम को उनकी माँ से मंदिर में बात करूँगी ।
कितने पैसे लेगा … रिक्शेवाला ? कैसी रिक्शा है , अम्मा!
पैडल वाली …..
पैडलवाली का कहाँ ज़माना अब , बिजली की है …. ज़्यादा तेज भी ना चले …. बच्चों के हिसाब से सही लगी मुझे….
और उसी शाम अम्मा ने वकील साहब की माँ से बात भी कर ली कि उनके पोते-पोतियों के साथ निक्की भी ज़ाया करेगा ।
अगले दिन घर के बाहर अम्मा को खड़ी देखकर रिक्शावाला बोला——
राम-राम अम्मा ! बात कर ली तुमने वकील साहब से ….. आज कह रहे थे कि आपके पोते को भी ले ज़ाया करूँ ।
हाँ बेटा … सोमवार से ले ज़ाया करना । कितना लेता एक बच्चे का …..
दो हज़ार लेता , अम्मा!
दो तो ज़्यादा है भाई ! वकील के यहाँ से छह हज़ार लेवे क्या?
ना अम्मा…. झूठ नहीं बोलूँगा…. तीनों के पाँच हज़ार लेता हूँ…. रिक्शा ख़रीदने में वकील साहब ने कुछ उधार दिया था बस एक हज़ार उसमें कट जाते हैं । विश्वास रखना अम्मा….. बजरंग बली का भक्त हूँ…. बेईमानी का एक पैसा नहीं लूँगा ।
चल … ठीक है…. अब भगवान का नाम तो कोई झूठ क्या लेगा? क्या नाम है तेरा …. रहने वाला यहाँ का तो ना लगता ?
पूरण है मेरा नाम , रहने वाला तो उड़ीसा का हूँ….. कई साल पहले एक दोस्त के साथ यहाँ आ गया था । बस तभी से मेहनत मज़दूरी करके जीवन चल रहा है….. चलता हूँ….. लेट हो जाऊँगा ।
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इस तरह अम्मा और पूरण की दोस्ती बड़े ही प्रोफेशनल अंदाज में हुई । सुबह के समय पूरण बच्चे लेकर अम्मा के घर के सामने से गुजरता था पर दोपहर वकील साहब के बच्चे छोड़ने के बाद वहाँ आता था ।
अक्सर जब सुबह पूरण घर के सामने से गुजरता , अम्मा बाहर ही खड़ी मिलती और वह उन्हें “ राम-राम “ कहे बग़ैर न निकलता ।
जिस दिन निक्की को स्कूल भेजना था , अम्मा समय से पहले ही बाहर निकलकर खड़ी हो गई और बोली —-
पिंकी ! अभी तो टाइम है … तू आराम से तैयारी कर भेजने की…. मैं बाहर कुर्सी डालकर बैठी हूँ, कहीं ऐसा न हो कि रिक्शावाला निकल जाए ।
बेटे अखिल ने चुटकी लेते हुए कहा—— ऐसा कैसे हो सकता है … भला , आपने तो पूरी रिश्तेदारी जोड़ ली है उससे ….बस आप ज़रा हाल-चाल पूछिए… तब तक मैं निक्की को लेकर आया ।
एकदम सही समय पर पूरण अम्मा को देखकर बोला—-
राम-राम अम्मा ! आज तो बाबू भी जाएगा…. बुलाओ जल्दी…. बड़े सख्त हैं स्कूल वाले …. एक सेकेंड की देर और गेट बंद ….
ना लेट क्यूँ होंगे ? ले आ गया निक्की…. और सुन ध्यान से ले जाइए ….. नक्षत्र नाम है …. नर्सरी में…. ए बिटिया… ध्यान रखियो तू भी…. छोटा भाई है…..पूरण …. नर्सरी वालों की छुट्टी तो साढ़े बारह बजे होगी और एक बजे इन बड़े बच्चों की….. आधा घंटा बैठा रहेगा बेचारा …
अरे ना अम्मा….. बाहर निकलते- निकलते …. बस दस-पाँच मिनट का ही फ़र्क़ रहता है…
इस तरह अम्मा ने सबको निक्की का ध्यान रखने की हिदायत देकर भेजा ।
दोपहर को साढ़े बारह बजे ही अम्मा कहने लगती —-
पिंकी , छुट्टी तो हो गई निक्की की …. चल मैं बाहर जाती हूँ…
अम्मा, अभी आधा घंटा तो दूसरे बच्चों की छुट्टी होने में बचा है …. फिर आने में आधा घंटा लगेगा….. अभी जाकर क्या करोगी?
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ना ना क्या पता चले …. पहले आ जाए …..चली जाती हूँ…. यहाँ भी क्या कर री मैं ?
और रोकते-रोकते भी अम्मा चली जाती…. शायद ये किसी एक की नहीं, एक उम्र के बाद सभी की आदत हो जाती है ।
पौने दो बजे पूरण की रिक्शा देखकर अम्मा की जान में जान आई और वे बाहर से ही बोली —
पिंकी ….. आ गया रिक्शावाला… बता पहले वकील के बच्चों को उतारेगा …. कहूँगी इसे आज …
पूरण …. अरे बेटा … वे तो बड़े बच्चे हैं …. इधर से निकाल कर ले ज़ाया कर ….. ये तो साढ़े बारह बजे से बैठा है…
अम्मा….. आते समय दूसरी गली से आता हूँ इसलिए उधर से आने में उनका मकान पहले पड़ता है….. दो मिनट का अंतर पड़ता बस …..अम्मा…. एक गिलास ठंडा पानी मिल जाएगा ?
हाँ… एक क्यूँ…. जितने चाहे, उतने गिलास पी ….. पिंकी …. ठंडे पानी की बोतल दे जा …..
और रिक्शावाला वहीं बाहर की गैलरी के बाहर रिक्शा लगाकर खड़ा हो गया ।
आजा बेटा …. दो घड़ी सुस्ता ले , गैलरी में बैठ जा पंखे के नीचे ….. बच्चों को स्कूल छोड़कर शहर में रिक्शा चलाता होगा? पर बेटा …. इस रिक्शे में दूसरी सवारी कैसे……
ना अम्मा… ये तो ख़ासतौर पर बच्चों के लिए बनवाई है वकील साहब कहने लगे कि बच्चों को ले जाने और लाने की ज़िम्मेदारी तेरी । पहले तो बच्चे स्कूल बस से जाते थे पर मेन रोड तक पैदल लेकर जाना पड़ता था और बस निकलती भी जल्दी थी , फिर गाड़ी से ले जाने लगे पर जाम में फँसकर हर रोज़ लेट …. थक-हार के उन्होंने ये तरीक़ा निकाला…. मैं तो सब्ज़ी वग़ैरहा बेचता हूँ.. अम्मा…. कोई दो बरस पहले हफ़्ते में दो दिन वकील साहब के फूल-पौधों की देखभाल करने की नौकरी की थी ….. बस तभी से जान-पहचान हो गई….. अम्मा! बुरा ना मानो तो यहीं बैठकर रोटी खा लूँ ?
अब तक रोटी ना खाई … खा ले बेटा ….. देख उधर दरवाज़े के पीछे चटाई है …. बिछा ले ——अम्मा कुर्सी पर बैठते हुए बोली।
पूरण अपने रिक्शे में से रोटी ले आया और गैलरी में लगी छोटी सी टंकी के पास बैठकर हाथ- मुँह धोए तथा अपना डिब्बा खोल लिया । चार-पाँच रोटियाँ अख़बार में लपेटी हुई और एक दूसरी डिब्बी में दाल । खाना खोलकर हाथ जोड़े तथा एक टुकड़ा रोटी का साइड में रख दिया ।
लस्सी मँगवा दूँ …. खाने के साथ पिएगा ?
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जैसी आपकी इच्छा… अम्मा । खाने का तो अम्मा, ऐसा है कि साढ़े बारह से पहले तो भूख नहीं लगती फिर बच्चों को लाने में यही टाइम हो जाता है ।
सुबह तो कुछ खाकर आता होगा…… बाल-बच्चे तेरे साथ रहते होंगे ? चल खा…ले रोटी आराम से, अभी आई ।
पूरण रोटी खाकर दो घड़ी वहीं चटाई पर बैठकर अम्मा से बतियाता —
अम्मा… सुबह चार बजे उठ जाता हूँ … बजरंग बली का भक्त हूँ, ब्रह्मचारी…. हमारे कोई बाल-बच्चे नहीं है । खुद पकाता-खाता हूँ । दो रोटी और एक गिलास चाय पीकर घर से निकलता हूँ , साथ में दोपहर की रोटी बना लाता हूँ । अम्मा…. अपनी रोटी का खुद ख़्याल रखता हूँ । टाइम पर ना खाऊँगा तो शरीर कैसे चलेगा?
एक बात तो बता पूरण … ऐसी रिक्शा में तो बस बच्चे बैठ सकते हैं, बाद में तो ये बेकार ….
ना अम्मा, सब्ज़ियों और फूलों की पौध रखकर बेचता हूँ, सब्ज़ी भी इसी में रखकर बेचता हूँ । सोच- समझ के ऐसी रिक्शा बनवाई … अम्मा । भला हो वकील साहब का ….बीस हज़ार रुपये उधार लेने पड़े थे ।
हाँ… ये तो है बेटा … दिमाग़ से काम लिया … चिंता ना कर सब उतर जाएँगे । घर ना जाता अपने … कौन – कौन है ?
घर में माँ, पाँच भाई- भाभियाँ, भतीजे-भतीजी हैं । हर साल घर जाता हूँ, माँ के पास एक महीने के लिए, फिर लौटकर यही काम । मन तो करता है…. माँ के पास ही रहूँ….. पर गाँव में ज़मीन तो है नहीं….. मज़दूरी के लिए शहर ही जाना पड़ेगा…. उधर काम के बदले ज़्यादा पैसा भी नहीं मिलता …. अम्मा । शुरू में तो बहुत रोता था पर अब उम्र नहीं रही रोने की ।
हाँ-हाँ….. बहुत बूढ़ा हो गया तू तो , पच्चीस- छब्बीस का लगता है………हँसते हुए अम्मा बोली ।
हाँ अम्मा….. होली पर पच्चीसवाँ लग गया । चलता हूँ….. सब्ज़ी बेचने जाना है ।
इस तरह रोज़ निक्की को छोड़ने के बाद पूरण वहीं बैठकर रोटी खाता , अम्मा से दो-चार बात करता और चला जाता । धीरे-धीरे अम्मा ने घर में बनी विशेष चीज़ पूरण के लिए रखनी शुरू कर दी—-
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पिंकी , थोड़ी सी खीर पूरण के लिए भी रख देना , आज तो आलू के पराँठे बड़े स्वाद बने ….. एक पराँठा पूरण के लिए रख देना …. खा लेगा ….. दो मिठाई के टुकड़े पूरण को भी दे दियो।
अम्मा…. कल से तो बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाएँगी….. सोच रहा कि माँ के पास रह आऊँ ….. पर …
पर क्या….वो वकील साहब का उधार पूरा नहीं हुआ….. ये ना सोचे कि …,, भाग गया ।
यूँ क्यूँ सोचेंगे….. सबको आदमी की पहचान हो जाती है और फिर वे तो वकील हैं ….. अरे …. यक़ीन न हो तो अपनी रिक्शा खड़ी कर जा उनके यहाँ ।
दो दिन बाद पूरण ने आकर बताया कि वह उसी शाम अपने घर जा रहा है, मिलने आया था । अम्मा ने बक्से से नई साड़ी निकाल कर देते हुए कहा—
पूरण , ये साड़ी अपनी माँ को मेरी तरफ़ से देना । और वकील साहब के यहाँ से लौटते समय इधर से ही जाना , तब तक रात का खाना बँधवा देती हूँ ।
और उन्होंने तुरंत पिंकी के साथ मिलकर दस-बारह पूरियाँ, आलू की सूखी सब्ज़ी तथा अचार पैक कर दिया । खाना और ठंडे पानी की बोतल लेकर वे बाहर खड़ी हो गई । थैला पकड़ाते हुए बोली—-
पोहँचने के बाद खबर कर देना , तसल्ली हो जाती है ।
अम्मा पूरण को ऐसे हिदायत दे रही थी जैसे एक माँ पहली बार घर से बाहर निकलते बच्चे को दुनिया की ऊँच-नीच समझाती है । उसके बाद एक भी दिन ऐसा न हुआ कि अम्मा ने दिन में दो-चार बार पूरण का नाम न लिया हो । कभी-कभी बेटे अखिल को भी कहती —-
अरे बेटा, आज तो फ़ोन मिला दे पूरण को .. पूछूँ तो कैसा है?
जिस दिन पूरण लौटने वाला था उस दिन अम्मा ने सफ़ाई करने वाली कमला से कहा—-
कमला , गैलरी को पाइप लगाकर अच्छे से धो दे , गर्मियों में आँधी चलने से धूल जम गई है…..
धूल तो नहीं जमी अम्मा….. आज आपका बेटा आने वाला है इसलिए धुलवा रही हो ।
शाम तक न जाने कितनी बार मुख्य द्वार तक जाकर गली में दोनों ओर नज़र डालती —-
कह तो रहा था कि पाँच बजे तक आपके पास आ जाऊँगा…..अम्मा….. पता नहीं, कहाँ रह गया ? पिंकी ! बेटा …एक कप मीठी सी चाय बना देना आते ही……. सफ़र में देह टूट जाती है ।
आने तो दो अम्मा…. बना दूँगी । सुबह के पकौड़े भी रखे हैं…. गर्म कर दूँगी ।
और जैसे ही पूरण ने अपनी रिक्शा का भोंपू बजाकर बाहर से आवाज़ लगाई——
अम्मा….. राम-राम …. कहाँ हो…. ये लो जगन्नाथ जी का प्रसाद मेरी माँ ने भिजवाया है ।
तो अम्मा गदगद हो कहती —- आ गया बेटा …. पिंकी चाय तो ले आ ….
और पूरण गैलरी में चटाई पर तथा अम्मा अपनी कुर्सी पर बैठकर बातों में इतने मशगूल हो जाते कि कोई कह ही नहीं सकता था कि इनमें खून का रिश्ता नहीं है….. …. सचमुच दिल का रिश्ता, हर रिश्ते से महान होता है ।
करुणा मलिक
बहुत सुंदर कहानी, लगा मेरी माँ की कहानी हो। मेरी माँ भी रोज़ बाहर कुर्सी लगा कर पेपर पढ़ती थी। उस ही समय दो लड़के (30 से 35 वर्ष के) सड़क बुहारने आते थे। माँ नियम से उनको चाय बना कर बिस्किट दिया करती थीं। माँ के देहांत पर मुख्य दरवाज़े पर बैठ कर सारा दिन रोते रहे थे। सच है कुछ रिश्ते दिल के रिश्ते होते हैं जिनका कोई नाम नही होता ।
बहुत-बहुत सुंदर रचना।दुनिया में ऐसा सत्य भी होता है यह सच है।
Ati sunder anmol rista