बरसों पुरानी हवेली का चौड़ा आँगन सुबह की धूप से नहा रहा था। तुलसी चौरे से आती सुगंध और रसोई से छनती बर्तनों की आवाज़ घर को जीवंत बना रही थी। यह था श्री धर प्रसाद जी का घर—गाँव का सम्मानित और सम्पन्न परिवार, जिसे लोग जमींदार जी कहकर पुकारते थे।
श्री धर जी के दो बेटे थे—जतिन और ललित। जतिन बड़ा था, पढ़ाई में तेज़ और शहर के एक दफ्तर में सीनियर अफ़सर। लेकिन शादी के लिए उसे कोई लड़की भाती नहीं थी। वहीं श्री धर जी ने उससे 1 साल छोटे ललित की शादी मध्यवर्गीय अपने दोस्त की बेटी कांता से कर दी । ललित एग्रीकल्चर में पीएचडी कर गाँव लौटा था और खेती-किसानी में नए प्रयोगों से गाँववालों को लाभ पहुँचा रहा था।
श्रीधर जी और उनकी पत्नी गीता देवी के संस्कार सादगी भरे थे। वे अक्सर कहते—
“इज़्ज़त दौलत या वंश से नहीं, बल्कि कर्म और सच्चाई से मिलती है।”
सावित्री,जतिन के ऑफिस में क्लर्क की नौकरी करती थी । वह एक साधारण किसान परिवार से थी। पिता ने कठिनाई से पढ़ाई करवाई थी। लेकिन उसमें एक कमी थी—दिखावे की। हां तक की उसे अपना सावित्री नाम भी न भाता वह शार्ट में निक नेम सावी बताती।
वह दूसरों के सामने ऊँचे घराने की दिखाने की कोशिश करती, भले ही कपड़े या गहने उधार के क्यों न हों।
जब जतिन से उसका परिचय हुआ तो उसने अमीर घर का लड़का देख उसे अपने जाल में फँसाना शुरू किया। जतिन ने पहले तो दूरी बनाए रखी, पर धीरे-धीरे उसकी मीठी बातों में आकर विवाह का प्रस्ताव रख दिया।
श्री धर जी और गीता देवी को अपने बेटे के संस्कारों पर भरोसा था—“बेटे की पसंद है, स्वीकार कर लेते हैं।” और इस तरह सावित्री बड़ी बहू बनकर हवेली में आ गई।
गाँव का जीवन सहज और सादगीभरा था। मिट्टी की खुशबू, रिश्तों की मिठास और श्रम की महक। लेकिन सावित्री को यह सब अच्छा न लगता।
वह हर किसी से कहती—
“मैं तो जमींदार घराने की हूँ, मुझे काम करने की आदत ही नहीं। हमारे यहाँ तो नौकर-चाकर ही सब संभालते थे।”
शुरू में सबने उसकी बातों को अनदेखा किया, पर धीरे-धीरे यह दिखावा सबको खटकने लगा।
उसकी देवरानी कांता, ललित की पत्नी, बिल्कुल विपरीत थी—साधारण साड़ी, कर्मठता, और बड़ों का आदर। उसकी सादगी और विनम्रता सबको भाती। पर सावित्री को यह गुण चुभते और वह हर समय कांता को नीचा दिखाने की कोशिश करती।
एक रात हवेली के दरवाज़े पर दस्तक हुई।
गीता देवी बाहर आईं तो देखा—एक थका-माँदा युवक खड़ा है।
“बेटा, तुम कौन हो?”
युवक बोला—
“मैं सावित्री का भाई रमेश हूँ। काम से पास के गाँव आया था पिताजी ने कहा कि दीदी के घर रात को रुक जाना ।”
घर के सब लोग चौंक गए। सावित्री तो हमेशा अपने मायके को जमींदार बताती थी, जबकि यह युवक साधारण किसान का बेटा लग रहा था।
पहले सावित्री ने अनजान बनने की कोशिश की, फिर मजबूरी में बोली—
“हाँ, यह मेरा भाई है।”
उस रात सबके मन में सवाल गूँजते रहे—“क्या सावित्री सचमुच वैसी नहीं है, जैसी वह खुद को दिखाती है?” पर फिर भी वह अपनी आदत से बाज न आई।
कुछ ही दिन बाद गाँव में पंचायत का रंगारंग कार्यक्रम हुआ।
कांता सादी सूती साड़ी में पहुँची। उसकी सादगी और विनम्र मुस्कान सबको भा गई।
सावित्री गहनों और चमचमाती साड़ी से लदी-फदी थी। मंच पर बुलाये जाने पर उसने अपने पिता का परिचय जमीदार के रूप में दिया —
तभी एक बुज़ुर्ग खड़े हुए जिनकी बहन इस गांव में ब्याही थी और बोले—
“सावित्री, ये कैसी बातें कर रही हो? तुम तो हमारे जीजा जी के पड़ोस के शर्मा जी की बेटी हो। तुम्हारे पिताजी तो छोटे किसान हैं, दिन-रात मेहनत करके बच्चों का पेट पालते हैं। मैं उन्हें बचपन से जानता हूँ।”
पूरा मैदान सन्नाटे में डूब गया। सावित्री का चेहरा पीला पड़ गया।
घर लौटते समय सब चुप थे।
आख़िरकार श्री धर जी बोले—
“बेटी, हमें इस बात से कभी फर्क नहीं पड़ा कि तुम्हारा मायका गरीब है या अमीर। अपमान तो तब होता है जब इंसान झूठ का सहारा लेकर दूसरों को धोखा देता है।”
गीता देवी ने भी कहा—
“बहू, सम्मान सेवा, प्रेम और सादगी से मिलता है। देखो छोटी बहू को—उसने अपने कर्म से सबका दिल जीता है।”
उस रात सावित्री सो नहीं पाई। उसे अपने पिता की मेहनत और माँ की सादगी याद आई। आँसुओं से भीगा मन कह रहा था—
“काश! मैंने झूठ का सहारा न लिया होता, तो आज अपमान का बोझ न उठाना पड़ता।”
सुबह होते ही उसने , गीता देवी के चरण छुए और बोली—
“माँजी, मुझे माफ कर दीजिए। अब मैं दिखावे की नहीं, सच्चाई और सेवा की राह पर चलूँगी।”
उन्होंने उसे माफ करते हुए कहा कि, बेटा सावित्री!!
“
झूठ और दिखावा कुछ समय तक चमक सकते हैं,
पर सच्चाई और सादगी की रोशनी के सामने टिक नहीं पाते। परिवार और समाज में असली सम्मान कर्म, सेवा और प्रेम से मिलता है, न कि आडंबर और झूठ से।”
“झूठे दिखावे से जिन्दगी नहीं चलती”।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
वाक्य कहानी प्रतियोगिता #झूठे दिखावे से जिन्दगी नहीं चलती “