बोझ

“आपसे कितनी बार कहा है”“मेहनत तो हम करते हैं और हमारी मेहनत का घी और दूध आप जेठ जी को दे देती हैं। आपको तो पता है, पशुपालन करने में कितनी मेहनत लगती है। दिन में तीन बार तो गाय-भैंस को चारा डालना पड़ता है, तब जाकर हम दूध और घी का आनंद ले पाते हैं। और थोड़ा घी-दूध बेचकर बच्चों की फीस भी भरनी होती है। और आप हैं कि जब भी जेठ जी आपसे मिलने आते हैं, आप उनको मेरे द्वारा इकट्ठा किया गया घी और दूध ऐसे ही दे देती हैं। आपको मालूम भी है आज घी का क्या भाव है? मैन जी, जरा हमारे बारे में भी सोचा करो।”
रुचि ने अपनी सास संगीता जी को समझाते हुए कहा।

संगीता जी की आदत थी कि जब भी बड़ा बेटा, जो कि सरकारी टीचर था और अपनी बीवी-बच्चों के साथ शहर में रहता था, जब भी मायके आता तो माझी एक दिन पहले ही अपनी बहू रुचि से कहती—
“बहू, कल शहर से राजीव आएगा तो दूध मत बेचना और जो तूने घी इकट्ठा कर रखा है, वह भी दे देना। शहर में शुद्ध घी कहां मिलता होगा।”

अपनी सास की बात सुनकर रुचि को गुस्सा आता। गुस्सा आना लाजमी भी था। वह अकेली कमाने वाली थी। पति की एक हादसे में मौत हो गई थी। अब बेचारे रुचि के ऊपर ही अपने बच्चों के लालन-पालन और भविष्य को संभालने की जिम्मेदारी थी। सास की बीमारी का खर्चा भी वही उठाती थी। लेकिन फिर भी सास को शहर में रहने वाले जेठ-जेठानी ही अच्छे लगते।

अगर रुचि अपनी सास के लिए जान भी हथेली पर रख दे तो भी सास यही कहतीं—
“तूने मेरे लिए किया ही क्या है।”
और जेठानी जी कुछ भी ना करें, तो भी उनके गुणगान सारे गांव में गाकर आतीं।

रुचि दूध बेचकर ही थोड़ा पैसा कमाती थी ताकि बच्चों को पढ़ा-लिखा कर काबिल बना सके। लेकिन सास की आदत इतनी गंदी थी कि वह कुछ सोचती-समझती ही नहीं थीं। बड़े बेटे पर लाड़ जताने में कोई कमी न रह जाए, इसलिए जेठ जी के लिए घी और दूध भेज दिया करती थीं।

आज भी जब शहर से जेठ जी आए तो बस, सास शुरू हो गईं लाड़ जताने। लेकिन जेठ जी ने यह नहीं सोचा कि अपनी मैन के लिए आधा किलो कुछ भले ही साथ ले चलूं। बस खाली हाथ आते और भरे हाथों से जाते। जेठ जी को भी तो सोचना चाहिए था कि यह बहू इतनी मेहनत करती है, तो इसकी मेहनत का कुछ तो लौटाऊं। शहर में कौन-सी घी-दूध की कमी? वहां पैसा खर्च करो तो सब आराम है। लेकिन हर महीने फ्री में मिल जाए तो किसे बुरा लगता है!

जेठ जी को देखकर रुचि अंदर ही अंदर आगबबूला हो रही थी।
रुचि की बातों से सास के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी और वह बेटे को रुचि की मेहनत का घी-दूध देती रहीं।

एक दिन संगीता जी की तबीयत खराब हो गई। गांव में कोई बढ़िया डॉक्टर था नहीं। इसलिए रुचि ने सोचा कि जेठ जी के पास ही भेज दूं ताकि शहर में रहकर मैन की तबीयत अच्छी हो जाएगी।

रुचि ने अपने जेठ जी को फोन करके खबर दी। वह शाम तक गांव आ गए और अपनी मां को साथ ले गए ताकि अच्छे डॉक्टर को दिखा सकें और कुछ दिन सेवा का मौका भी मिले। बड़े बेटे ने शहर के अच्छे डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने कहा—
“घबराने की कोई बात नहीं है, बस थोड़ी कमजोरी है। इन्हें समय पर खाने-पीने का ध्यान रखना होगा और थोड़े दिन आराम करना होगा।”

राजीव मां को अपने घर ले गया। घर पहुंचते ही सास को देखकर बड़ी बहू ममता का मुंह फूल गया। बेमन से सास के पैर छूकर उन्हें अंदर आने को कहा और उनके बैठने के लिए एक चारपाई लगवाई। फिर अपने पति राजीव को दूसरे कमरे में बुलाकर बोली—

“अरे, डॉक्टर को दिखाने के बाद इस बुढ़िया को यहां लाने की क्या जरूरत थी? इसे गांव ही छोड़ आते। तुम्हें तो पता है ना, शहर में रहना कितना मुश्किल है। शहर में कितने खर्चे हैं, कितनी महंगाई है। इनके यहां आने से मेरी आज़ादी भी कम हो जाएगी। इन्हें यहां लाने से पहले एक बार मुझसे पूछ तो लेते।”

राजीव बोला—
“अरे, दो-चार दिन की तो बात है। फिर मैं मैन को खुद ही गांव छोड़ आऊंगा।”

ममता ने अनमने ढंग से हामी भर दी, लेकिन फिर बोली—
“सुनो जी, मुझसे मांझी पर ज्यादा खर्चा नहीं होगा। अब तो बुढ़ापा है, कमजोरी तो रहेगी ही। फिर क्यों उन पर खर्चा करना।”

संगीता जी यह सारी बातें सुन रही थीं। वह मन ही मन सोच रही थीं—
“मैं भी कितनी पागल थी। जिस बहू-बेटे के लिए हमेशा गांव से कुछ ना कुछ भेजती रहती थी, आज वही बहू मेरे लिए खर्चे गिनाने लगी। और गांव में रहने वाली मेरी रुचि है, जिसने कभी मना नहीं किया, कभी खर्चा गिनाया नहीं। बस समझती रही कि मांझी ही उसकी दुनिया हैं।”

आंखों में आंसू भरकर संगीता जी बोलीं—
“बेटा, मुझे मेरे गांव ही छोड़ आओ। मुझे शहर की हवा-पानी की आदत नहीं है। कहीं मेरी तबीयत और बिगड़ गई तो तुम लोगों को ही परेशानी होगी। मैं तुम दोनों पर बोझ नहीं बनना चाहती।”

राजीव मां को गांव छोड़ आया।

संगीता जी अपनी बहू रुचि के गले लगकर खूब रोने लगीं। उन्हें समझ आ गया था कि बेटा होते हुए भी राजीव ने अपना फर्ज नहीं निभाया, लेकिन बहू रुचि ने हमेशा बेटी बनकर फर्ज निभाया। आज भी उसने कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह उसकी सास है। बल्कि मां की तरह सम्मान दिया।

संगीता जी ने ठान लिया—
“अब जैसे को तैसा करना है।”

अब जब राजीव हर महीने गांव आता, तो घी-दूध के नाम पर उसे कुछ नहीं मिलता। रुचि हर महीने घी बेचकर अच्छे पैसे कमाती और सास भी उसकी मदद करने लगीं। पशुपालन से ही रुचि ने अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया और काबिल बनाया।

लेखक : अज्ञात

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