बोझ नहीं डालना – प्रतिमा श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक ऐसी खबर आई थी की मां बाप को पूरी तरह तोड़ गई थी। कोचिंग सेंटर से एक विद्यार्थी मनीष जो मेरे बेटे संदीप का मित्र था, उसने बताया की “संदीप ने खुदकुशी करने की कोशिश की है।

अंकल वो अस्पताल में भर्ती है आप जल्दी से आ जाइए।”

पत्नी रेशमा जमीन पर बेहोश होकर गिर गई थी। कुलदीप जी भी सोफे पर बैठ गए थे और फोन हांथ से छूट गया था।

किसी तरह हिम्मत करके उठे और सोचने लगे की गाड़ी तो सुबह की है लेकिन मुझे अभी निकलना होगा।एक ही बेटा है मेरा ,जो ना जाने कितनी मन्नतों के बाद हुआ था।

अब यादों में और कानों में एक ही बात गूंजने लगी थी की कहीं मैंने अपनी ख्वाहिशों को लाद तो नहीं दिया था मेरे बेटे के ऊपर? आखिर क्यों बनाना था उसे डाक्टर।उसे तो बिल्कुल मन नहीं था की वो कोचिंग सेंटर जाए।एक बार उसने कहा भी था पापा मुझे क्रिकेटर बनना है और वो एक अच्छा

खिलाड़ी भी था। मेरी मानसिकता ऐसी थी की वो शहर का बड़ा डाक्टर बने। उफ़ ये क्या कर दिया मैंने। पसीने से तरबतर गाड़ी की चाभी निकाली और पत्नी को साथ लिया और निकल पड़े प्रकाश जी।

संदीप की तबीयत बिगड़ी हुई थी और मैं उसकी हथेली को हांथ में रखकर फूट कर रो पड़ा था।” मुझे माफ कर देना बेटा। मैं पिता हो कर भी तुम्हारे दर्द को नहीं समझ पाया।उन सपनों को साकार करने में लगा रहा जो मेरे अधूरे रह गए थे।”

पापा! धीमी आवाज में संदीप बोला,” आप गलत नहीं हैं, मैं कैसे इतनी जल्दी हिम्मत हार गया।ना जाने मेरे दिमाग में क्या चल रहा था। ऐसा लगा था उस पल की मैं कोई काम ठीक से नहीं कर पा रहा हूं। गलती हो गई मुझसे मुझे माफ कर दीजिएगा।”

रेशमा के आंखों के आंसू तो थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बेटा,” तुम कुछ नहीं कहोगे ,चुप रहो और आराम करो, मैं तुमको कभी भी अकेला नहीं छोडूंगी। तुम हमारी जिंदगी हो। अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो हम तो जीते जी मर जाते।”

कुछ दिनों में अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी।पूरा परिवार घर वापस आ गया था। हास्टल से  संदीप का सारा सामान   ले आए थे। अब किसी को किसी से कोई  शिकायत नहीं थी। मौत के मुंह से वापस लौट कर आए बेटे से ना तो कोई जोर से बात करता ना ही भविष्य की बातें। मां बाप के लिए तो यही था की संदीप पूरी तरह से ठीक होने के बाद जो भी करना चाहेगा हम लोग उसका साथ देंगे।

जिंदगी कभी कभी ऐसा सबक सिखाया करती है की इंसान अंदर तक हिल जाता है तब उसे अपने परिवार से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए होता है।

संदीप ने शहर में ही काॅलेज ज्वाइन कर लिया था और अब वो मन लगाकर पढ़ाई लिखाई भी कर रहा था और क्रिकेट भी खेल रहा था।उसके दिलो-दिमाग पर कोई भी बोझ नहीं था।

अच्छे परिणाम आए थे इम्तिहान के और स्टेट लेवल पर उसका चुनाव भी हो गया था। रेशमा और प्रकाश जी बहुत खुश थे क्योंकि बेटा बहुत खुश था और वो बेहतर कर रहा था अपनी जिंदगी में। जरुरी नहीं की हम जो सोचते हैं वही हमारे लिए अच्छा हो।कई बार अपने बच्चों के मन को भी

समझना जरूरी होता है क्योंकि उनके ख्वाब कहीं हमारी उम्मीदों के तले दफन तो नहीं हो रहें हैं। ये मलाल ना रह जाए जिंदगी भर की मुझे तो कुछ और करना था जीवन में और आज मैं कहां हूं।

ख्वाहिशों को पंख देना जरूरी है लेकिन दोनों के मर्जी भी होनी चाहिए। किसी पर थोपना जरूरी नहीं है उसके बजाय उसका साथ देने चाहिए। तभी मंजिलें आसानी से मिल जाती हैं।

मां बाप की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को सही मार्गदर्शन कराएं क्यों कई बच्चों को पता ही नहीं होता उनके लक्ष्य के बारे में। अगर बच्चे का कोई ख्वाब है तो उसको पूरा करने के लिए जितना बन सके जरुर करना चाहिए।

घर परिवार समाज के डर से नहीं चलाना चाहिए। परिवार से समाज बनता है इसलिए हर परिवार खुश रहेगा तो स्वस्थ समाज का निर्माण होगा।

                                प्रतिमा श्रीवास्तव

                            नोएडा यूपी

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