श्रद्धा तीन बहनों में सबसे बड़ी थी। सबसे ज्यादा लाडली, समझदार और संस्कारो से भरी पूरी थी। श्रद्धा की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी और वो पिछले एक साल से किसी प्राइवेट स्कूल में जॉब कर रही थी। बाकी की दोनों बहने पढ़ाई कर रही थी।
श्रद्धा की पढ़ाई हो चुकी थी इसलिए माता पिता श्रद्धा के लिए अच्छे घर वर की तलाश में थे।
किस्मत से रायसाहब के जानने वालों में ही अच्छा रिश्ता मिल गया। बिना किसी मांग के बेहद ही सादगी से मांगनी की रस्म तय करके शादी की तारीख रख ली गई।
शादी की मंगल बेला आ गई
शादी के जोड़े में श्रद्धा बहुत खूबसूरत लग रही थी। उस पर संस्कारो और अदब की चांदनी उसके पूरे वजूद में एक अलग ही नुरानियत और मासूमियत पैदा कर रहा था।
खैर विदाई की घड़ी आई और श्रद्धा विदा होकर चली गई।
शादी के बाद पगफेरे के लिए जब श्रद्धा आई तो माता पिता ने मुस्कुराकर हाल चाल पूछा। श्रद्धा ने शर्माते हुए ठीक बताया।
तब मां ने श्रद्धा से कहा – ” बेटा, बस अब इतना समझ लो ससुराल ही तुम्हारा अपना घर है और अब से तुम यहां मेहमान हो।”
तभी रायसाहब ने पत्नी से कहा – “नही श्रीमती जी रुकिए जरा!”
फिर उन्होंने श्रद्धा का हाथअपने हाथ में लेकर कहा – “श्रद्धा बेटा, ये सच है कि अब से ससुराल ही तेरा घर है मगर ये भी तुम्हारा घर है, अब तुम्हारे दो दो घर है। रही बात मेहमान होने की तो एक बात याद रखना ससुराल में व्यवहार मेहमान वाली और सोच मेजबान वाली रखना।”
“मतलब पापा?”– श्रद्धा ने ना समझते हुए कहा।
“मतलब ये बेटा कि अगर खुद को मालकिन वाले व्यवहार में रखोगी तो टिक नहीं पाओगी। मेहमान वाली व्यवहार में मिठास होता, जुबान में लगाम, व्यवहार में लगाम होता है ना बेटे इससे तुम प्यार पाओगी” और सोच मेजबान वाली रखोगी तो सबकी जिम्मेदारियां खुशी खुशी उठा पाओगी, शिकायत नही आ पाएगी क्योंकि बदले में तुम्हें मेहमान वाला प्यार जो मिल रहा होगा। जैसा तुम्हारी मां करती आई है, “– राय साहब ने मुस्कुराकर पत्नी को देखते हुए कहा तो श्रद्धा की आंखे नम और होठ मुस्कुराते हुए शुक्रिया कह उठे।
मां ने भी बेटी को सीने से लगा लिया।
पास खड़े अमित जी श्रद्धा के पति मन ही मन ससुर जी के संस्कारो और हिदायतों को देखकर खुद भी अच्छे दामाद बनने का मन ही मन प्रण कर रहे थे।
नाम·– सबीहा परवीन ” सबीह”
जमशेदपुर, झारखंड