अम्माजी , आज भइया आएँगे, होली का सामान लेकर । चाय के साथ थोड़ा सूजी का हलवा लूँ क्या? कल पापाजी भी कह रहे थे कि बहुत दिनों से हलवा नहीं बनाया ?
भाई के लिए बनाना है पापाजी का नाम लेकर ? पता भी है, देशी घी का क्या भाव चल रहा है , कभी अपने घर में भी बनाया देशी घी का हलवा ? फिर हम कोई बाज़ार से तो घी लेते नहीं, गाँव से गाय का मँगाते है । यूँ बर्बाद करने को ना है । चाय के साथ नमकीन- बिस्कुट रख दीए और ज़्यादा करेगी तो पेठे की मिठाई है फ्रिज में, वो रख दीए ।
पर अम्माजी…. वो मिठाई तो ….. चलो ठीक है जैसा आप कहेगी ।
देख छोटी बहू ! अपने पीहरवालों को देखकर इतना उछलने की कोई ज़रूरत नहीं है । इतनी तो कभी बड़ी बहू की हिम्मत भी नहीं हुई कि भाई के लिए कड़ाही चढ़ाने की बात करी हो । और कोई तेरा भाई ऐसा अनोखा सामान ले के ना आ रहा कि हम उसके एहसान तले दब जाएँगे ।
अम्माजी ! पता नहीं वो तो चाय के लिए भी रूकेगा या नहीं ? मैंने तो यूँ ही पूछ लिया था । उसे तो आगे दीदी के यहाँ भी जाना है ।
फिरें धक्के खाते , क्या देके जावेगा ? वहीं एक साड़ी, एक पैंट-क़मीज़… एक दर्जन केले ……
तुम भी कमाल करती हो सरस्वती ? अरे ! ये तो बहू- बेटी का मान होता है । हमारी परंपराएँ है जो चली आ रही है । वैसे भी बहू के घर से कुछ भी आए , तुम ख़ुश कब हुई हो ?
ख़ुश तो आदमी तब होगा जब कुछ ढंग का आज तक आया हो। कपड़ों के नाम पे हमेशा चिथड़े आएँ हैं। कामवाली भी ना पहने ऐसे कपड़े । लेना- देना तो कोई मुझसे सीखे । पूनम के ब्याह को सोलह साल हो चुके , ससुरालवालों ने हमेशा मेरा दिया ही पहना । आज भी इतना सामान भेजूँ कि पडोस- रिश्तेदारों में बाँटकर भी दस-दस दिन खावें ।
रामदास जी जानते थे कि पत्नी से बहस करने का कोई फ़ायदा नहीं है क्योंकि वो अपने से ऊपर किसी को नहीं आने देती । पर बहू का इस तरह अपमान , उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ । चिढ़कर बोले —-
वैसे तुम्हारा भाई कब आ रहा है, होली का सामान लेकर। ? तुम तो हमेशा राग अलापती हो ना कि चार भाइयों की अकेली बहन हो , कोई कमरा ख़ाली करवाऊँ ?
देखोजी, कहे देती हूँ कि ज़्यादा बहू की मेर लेने वाले मत बनो। एक बहू तो चली गई, दूसरी भी चली जाएगी । बुढ़ापे में रोटी मैं ही दूँगी ….
तभी दरवाज़े की घंटी ने पति-पत्नी के तर्क-वितर्क पर विराम लगाया और रामदास जी दरवाज़ा खोलने चले गए ।
आओ आओ हिमांशु बेटा , नेहा बहू तुम्हारा ही इंतज़ार कर रही थी । घर में सब ठीक है ना ? नेहा ! बेटा हिमांशु आ गया है ।
नमस्ते भैया ! माँ- बाबूजी, भाभी सब ठीक है ना ? आप तो कह रहे थे कि गोलू को साथ लेकर आओगे ?
हाँ, कह तो रहा था पर फिर सोचा कि मुझे भी उलटफेर ही करनी है । अगली बार लाऊँगा । तू कैसी है , नेहा ? मौसीजी कहाँ है ?
इतने में सरस्वती जी बोल उठी — मैं भी यहीं हूँ और बाल- बच्चे तो सब ठीक है ? जा नेहा , चाय बना लें अपने भाई के लिए ।
तुम भी कमाल करती हो, सरस्वती ! बहू को भाई के पास बैठने दो । तुम चाय बना दो और हाँ, अपने हाथ का बेसन का हलवा भी चखा दो । भई हिमांशु, तुम्हारी मौसी के हाथ का हलवा …. वाह…. नाम लेते ही मुँह में पानी आ गया ।
नहीं- नहीं मौसी जी , आज तो ना चाय पीऊँगा और ना ही हलवा खाऊँगा । बस , एक गिलास पानी पिला दें । नीलम दीदी के यहाँ भी पहुँचना है और शाम तक वापस लौटना है ।
हिमांशु तो चला गया पर सरस्वतीजी ने जो क्लास लगाई अपने पति की , शायद ही उसके बाद वो कभी किसी मेहमान के सामने हलवा बनाने की बात कहें ।
अचानक सरस्वती जी के पास पड़ा मोबाइल बजा तो बेटी का नाम देखकर तुरंत बोली—-
हाँ बेटा पूनम ……. कब…… कैसे ….. कौन से हॉस्पिटल में…..
हाय ! पूनम के पापा … नाश हो गया । नरेंद्र का एक्सीडेंट् हो गया । ए नेहा …. जल्दी, राकेश को फ़ोन करके कह दे । फोर्टिस में पहुँचने को । जाने …. मेरी बच्ची किस हाल में होगी?
क़रीब दस/ पंद्रह दिन के बाद नरेंद्र की हालत में सुधार हुआ और डॉक्टरों ने घर जाने की मंज़ूरी दी । पर दिक़्क़त यह थी कि पैर में फ़्रैक्चर के कारण नरेंद्र ऊपर चढ़ने में असमर्थ था इसलिए गाँव से आए पूनम के ससुर बोले—- गाँव ही ले चलते हैं । अकेली बहू कैसे सँभालेगी? मैं यहाँ के बारे में कुछ जानता नहीं । किराए का घर भी छोटा है अगर ……
ऐसे में नेहा आगे बढ़कर बोली — नहीं मौसाजी, अपना इतना बड़ा घर होते हुए बीमारी की हालत में गाँव क्यों जाओगे ? जब तक नरेंद्र भाई साहब ठीक नहीं हो जाते , हम सब इकट्ठे रहेंगे और आपको तथा मौसीजी को भी कुछ दिन हमारे साथ ही रहना है क्योंकि इस समय बेटे को माँ-बाप की और माँ-बाप को बेटे के सहारे की ज़रूरत है ।
रामदास जी और सरस्वती जी ने भी बहू की बात का समर्थन किया । मन ही मन सरस्वती जी अपनी बहू के बड़प्पन को देखकर अपने व्यवहार पर लज्जित थी पर उनके अहम ने कुछ भी कहने से उन्हें रोक रखा था ।
नरेंद्र के माता-पिता तो हफ़्ते भर बाद राकेश और नेहा के सेवाभाव और सदव्यवहार की प्रशंसा करते हुए लौट गए पर पूनम और नरेंद्र बच्चों सहित क़रीब चार महीने के बाद अपने घर वापस गए । इन सब में ख़ास बात यह रही कि नेहा के चेहरे पर एक बार भी किसी ने एक शिकन भी ऐसी नहीं देखी जिससे ऐसा लगे कि उसे किसी से कोई शिकायत है ।
जिस दिन पूनम अपने घर गई उस दिन सरस्वती जी रसोई में आई और नेहा से बोली —-
बेटा , आज रात का खाना मैं बनाऊँगी, कभी तो कुछ शिकायत भी किया कर नेहा । सचमुच जौहरी को ही हीरे की परख होती है । मेरे पास बेशक़ीमती हीरा है और मैं काग़ज़ के टुकड़ों को दौलत समझती रही । नेहा…. मुझे……
मुझे आपके हाथ से बना बेसन का हलवा खाना है अम्माजी—-—- यह कहते हुए नेहा सास के गले लग गई ।
करुणा मलिक
मर्मस्पर्शी कहानी
nice story