अपनों की पहचान – मंजू ओमर : Moral Stories in Hindi

जानकी जी के पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाने की तैयारी हो रही थी । तीनों बहू बेटे एक किनारे बैठे बातो में मशगूल थे । चौथा बेटा अभी नहीं आ पाया है। किसी भी बहू बेटे की आंखों में मां के चले जाने का ग़म दिखाई नहीं दे रहा था।

बस एक कृष्णा ही था जो दौड़ दौड़ कर काम कर रहा था जो भी पंडित जी माग रहे थे दे रहा था।और जब थोड़ा फुर्सत होता तो अम्मा अम्मा करके रोने लगता।

अम्मा के चले जाने से कृष्णा को इस घर में अपनी जगह खत्म होते दिखाई दे रही थी।वो मन ही मन सोच रहा था कि अम्मा ने तो मुझे अपने बेटे के जैसा रखा ।वो मुझे बेटे सा प्यार देती थी।अब उनके जाने के बाद कौन मुझको अपने घर में रहने देगा ।बाबू भी नहीं है जो मेरे लिए कुछ बोलेगा कि रहने दो कृष्णा को इस घर में।ये अनाथ , बेसहारा अब कहां जाएगा।

लेकिन नहीं ऐसा कुछ भी होते नहीं दिख रहा था। अम्मा की अर्थी चली गई और बस कृष्णा ही अम्मा अम्मा कहकर बिलखता रहा।

             जानकी जी और पति राधेश्याम की चार बेटे थे बड़ा गुरूर था उनको अपने बेटे होने पर इस बात से वे बहुत  खुश थे  कि उनकी कोई बेटी नहीं है। वह इसलिए बेटियां होती  तो जगह-जगह जाकर रिश्ते ढूंढने पड़ते हैं और उनकी ससुराल के  आगे झुकना और नाक रगड़ना पड़ता है।

अब तो हमारे सिर्फ बेटे हैं अपनी शादी के लिए लड़कियों के माता-पिता को झुकना पड़ेगा । किसी के आगे झुकना उन्हें मंजूर नहीं था।घर में राधे श्याम जी की कम और जानकी जी का ही रूतबा ज्यादा रहता था। राधेश्याम जी सीधे सरल इंसान थे।पर जानकी जी ज्यादा पढ़ी लिखी न होकर भी काफी तेज तर्रार और दुनिया को चराने वाली थी।घर में अच्छा पैसा था।खूब लाड प्यार में बच्चे बड़े होते गए।

पैसा भी मेहनत से कमाया जाता है ये बेटे नहीं जानते थे।उनको तो जब जरुरत है दुकान में जाकर गल्ले से पैसा निकाल लेते थे। कोई रोक-टोक नहीं थी। राधेश्याम जी कहते अब तुम लोग बड़े हो गए हो दुकान पर भी बैठा करो कि सिर्फ पैसे लेने आते हो। लेकिन किसी भी बेटे को नहीं दुकान की चिंता

थी और नहीं पढ़ाई लिखाई की । सबसे छोटे को छोड़कर किसी का भी मन पढ़ाई में नहीं लगता था।

               अब लड़के बड़े हो गए तो शादी ब्याह की चिंता हो गई।बड़ा बेटा शराब का आदी बन गया। बिजनेस में कोई ध्यान नहीं देता था।घर के खर्चे बढ़ने लगे ।इधर बिजनेस भी कमजोर पड़ने लगा। तभी दूसरे नंबर के बेटा अजय ने किसी लड़की के चक्कर में पड़कर कोर्ट मैरिज कर ली।

और पत्नी को लेकर घर आ गया । बड़े बेटे की शादी नहीं हुई थी तो आनन फानन में लड़की ढूंढी जाने लगी। किसी तरह उसकी शादी भी हो गई।अब घर में दो दो बहुओं के आ जाने से घर में लड़ाई झगडे शुरू हो गए ।घर का बिजनेस खत्म होता जा रहा था।अब बड़े बेटे अरूण को एक अलग घर और दुकान लेकर दे दी कि तुम जाओ अलग रहो

और अपना काम धंधा देखो। दूसरे की पत्नी स्कूल में टीचर थी तो भी अपना हिस्सा मांगने लगीं और वो भी अलग हो गई। तीसरा शहर से दूर किसी फैक्ट्री में काम करने लगा ।

सिर्फ चौथा बेटा सचिन पढ़-लिख कर बाहर नौकरी करने चला गया।अब अपनी जिंदगी में सब मस्त हो गए ।घर में मां बाप की किसी को चिंता न रही ।घर का बिजनेस भी बस सिमटकर ही रह गया।

             एक दिन जानकी और राधेश्याम जी मंदिर गए तो जब वहां से लौटने लगे तो सीढ़ियों पर एक दस ग्यारह साल का लड़का उदास सा बैठा था ।

उसका मासूम सा चेहरा देखकर जानकी जी का मन पिघल गया। उसके हाथ में प्रसाद का लड्डू रखा तो पूछा कहां रहते हो बेटा ठंडी में क्यों यहां बैठे हो जाओ अपने घर जाओ ।मेरा कोई घर नहीं है अम्मा, मेरी सौतेली मां ने मुझे घर से निकाल दिया है कहा जाऊं मैं।

उसका उदास चेहरा देखकर जानकी जी का मन पिघल गया, अच्छा चलो बेटा हमारे घर चलो ।पति से बोली सुनो इसको अपने घर ले चलते हैं । दुकान का थोड़ा बहुत काम कर देगा और घर का भी ।लड़के तो कोई पूछते नहीं है शायद यही सहारा बन जाए बुढ़ापे का ।

            मां बाप के प्यार का भूखा वो बच्चा जानकी जी के घर रहने लगा।घर का और दुकान का दौड़ दौड़ कर काम करता। राधेश्याम जी को भी बहुत सहारा हो गया था।

कृष्णा को घर में भरपेट भोजन मिलता और साथ में जानकी जी का प्यार और दुलार। कृष्णा कृष्णा के नाम से घर गूंजता रहता। पति-पत्नी दोनों का लाडला बन गया था कृष्णा। कोई भी लड़के बहू घर में झांकने नहीं आते थे। जिविका चलाने भर की घर की दुकान रह गई थी।

             इस बीच जानकी जी बीमार पड़ गई की दिनों से बुखार आ रहा था।जब डाक्टरों को दिखाया गया तो कुछ टेस्ट कराने पड़े जिसमें जानकी जी को ब्रेस्ट कैंसर की पुष्टि हुई। आखिरी में आपरेशन कराया गया ।दो बेटे बहुओं के साथ बाहर ही थे ।और जो दो वहां थे

वो कभी कभार एकाध घंटे को आ जाते थे नहीं तो नहीं। कृष्णा जी जान से सेवा करता रहता था। जानकी जी भी उसे अपना बेटा मानकर ही प्यार करती थी।और कहती भी थी कि हमारा बेटा है। इसी बीच एक दिन हृदय गति रूक जाने से राधेश्याम जी का स्वर्गवास हो गया

और दुकान बंद हो गई। दुकान का सारा सामान दोनों बेटे अपनी दुकान में उठा ले गए। मकान का भी हिस्सा बांट हो गया।बस दो कमरे का मकान में एक सेट था उसी में कृष्णा और जानकी जी रहती थी । राधेश्याम जी ने कुछ पैसे जानकी के नाम बैंक में जमा किए थे उसी से खर्चा चलाती थी।

                अपने लड़कों बहुओं की बेरूखी से जानकी जी बहुत दुखी थी।वो कहती थी कोई नहीं है अपना ।जिसे पैदा किया पाल-पोस कर बड़ा किया वो तो कभी मां की सेवा करने नहीं आते बस जायदाद में हिस्सा लेने को आ गए।मेरा तो बस ये कृष्णा ही अपना है ।

तबियत तो खराब रहती ही थी जानकी जी की । आपरेशन के बाद पूरी तरह ठीक हो ही नहीं पाई । जानकी जी को कृष्णा की चिंता रहती कि मेरे न रहने पर इसका क्या होगा। फिर एक दिन कृष्णा की अनुपस्थिति में वकील बुलाकर जिसमें वो रहती थी

मकान का वो हिस्सा कृष्णा के नाम कर दिया एक स्टेम्प पेपर पर साइन करके बक्से में रख दिया।ये तसल्ली  दी की मेरे न रहने पर ये कम से कम दर-बदर नहीं होगा।

             आज जब जानकी जी नहीं रही तो दोनों बेटे मां के हिस्से की जगह लेने को मचलने लगे । इसमें दुकान का सामन रखेंगे।जब जानकी जी के न रहने पर कमरे का सामान बाहर निकाला गया तो बक्सा खोला गया इस नीयत से

कि शायद कोई जेवर वगैरह निकल आए । लेकिन जेवर की जगह पर एक स्टेम्प पेपर मिला जब उसको खोलकर पढा तो बेटों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । क्या एक नौकर को भला कौन अपनी जगह जमीन दे देता है । उसमें ये भी लिखा था कि चार चार बेटे बहु थे

पर किसी ने मेरी देखभाल और सेवा नहीं की ।वो तो मेरे अपने थे लेकिन अपने न रहें।मेरा तो अपना सिर्फ कृष्णा था उसने जी जान से मेरी सेवा की ‌। इसलिए अपने हिस्से की ये जगह मैं कृष्णा के नाम कर रही हूं ।ये उसके रहने के लिए है

कोई उसे यहां से निकाल नहीं सकता। इसमें मेरे बेटों का कोई हक नहीं है।सब एक दूसरे का मुंह देख रहे थे ।और कृष्णा सबसे बेखबर अम्मा की फोटो के सामने आंख में आसूं भर कर बैठा था।

            अब रोज कृष्णा बाहर पेड़ों से फूल तोड़ लाता और अम्मा के फोटो के आगे रख देता प्रणाम करता और फिर कहीं नौकरी कर ली थी चला जाता।उस छोटी सी नौकरी से उसका खर्चा चलता।आज कृष्णा ने ये साबित कर दिया कि अम्मा की कोख से पैदा न होकर भी उनका सबसे बड़ा सगा है । अपने होने का हक अदा कर गया।

मंजू ओमर 

झांसी उत्तर प्रदेश 

12 सितम्बर

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