अम्मा जी को गुज़रे पाँच साल बीत गए, लेकिन हमेशा उनकी याद आती है। आज भी सौरभ को ऑफिस भेजकर, चाय लेकर बरामदे में कुर्सी डालकर बैठी तो बीते हुए क्षण आँखों के सामने घूमने लगे।
बहुत अच्छी थीं अम्मा जी। शादी के बाद पहली बार ससुराल गई तो मन में एक डर समाया हुआ था। बचपन से सुनती आई थी कि सास नाम का प्राणी बहुत कठोर और टेढ़ा होता है। न जाने किस बात पर क्या कह देंगी। मायके में कभी खाना नहीं बनाया था। पापा कहते थे कि — “बस पढ़ाई पूरी करोगी तो खाना बनाने के लिए बहुत मिल जाएगा।” पापा चाहते थे कि मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए बाहर जाऊँ और अच्छी नौकरी कर लूँ। उनका सपना अपनी बेटी के इर्द-गिर्द घूमता था।
मम्मी तो कहतीं — “पढ़ाई अपनी जगह है, लेकिन लड़की को थोड़ा-बहुत सबकुछ सीखना चाहिए।” पापा के प्यार में मैं एक बिगड़ैल बेटी बनकर रह गई थी। वैसे मैं अपने माता-पिता की बहुत लाड़ली थी, फिर भी बहुत आदर-सम्मान देती थी उन्हें।
बहरहाल, पढ़ाई में अच्छी रही तो अच्छे ढंग से आगे बढ़ती गई और एक अच्छी कम्पनी में लग गई। अपनी कम्पनी में ही सौरभ से मुलाकात हुई। हम दोनों ही आईटी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद एक ही कम्पनी में थे, तो मिलना-जुलना अक्सर होने लगा। सौरभ बहुत शांत और समझदार भी था। ऊँचे पूरे कद का बेहद खूबसूरत सौरभ कब मेरे मन को भा गया, कुछ पता ही नहीं चला।
हम अक्सर एक साथ लंच करते और शाम को ऑफिस खत्म होने पर कॉफी हाउस में कॉफी पीने जाते। घर लौटने पर देर हो जाती तो वह अपनी गाड़ी से मुझे घर छोड़ देता। मम्मी ने एक दिन मुझे उसकी कार से उतरते देख लिया था।
“आजकल इतनी देर से क्यों आने लगी हो? और कार में छोड़ने कौन आया था? साफ-साफ बता दो, क्या चक्कर है तुम दोनों का?”
मम्मी के लगातार सवाल से मैं घबरा गई और सबकुछ सही-सही बता दिया।
“हाँ मम्मी, सौरभ नाम है उसका। सहकर्मी ही है। बहुत नेक लड़का है। हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे हैं।”
फिर मम्मी ने पापा को बताया। पापा की लाड़ली थी मैं। मुझसे पूछा —
“बात करता हूँ उसके परिवार से? लेकिन पता तो चले, जाति क्या है? घर का रहन-सहन कैसा है?”
अगले रविवार को मम्मी-पापा और सौरभ का परिवार एक होटल में मिलने वाला था। हमें भी अपनी पसंद-नापसंद के बारे में बातचीत करने के लिए कहा गया। संयोग से हम दोनों की पसंद काफी मिलती-जुलती थी और फर्क इतना था कि मैं कायस्थ घराने से आती थी और सौरभ ब्राह्मण समाज का था। फिर भी हमारे माता-पिता को कोई दिक्कत नहीं थी।
“जाति का क्या करना है? कभी-कभी एक जाति होने पर भी शादी सफल नहीं होती।”
दोनों परिवार की रज़ामंदी से हमारी शादी हो गई।
सौरभ के परिवार में बस तीन ही लोग थे। दादी-दादा गाँव में ही रहते थे। कुछ खेती-बारी और बड़ी-सी हवेली का देखरेख भी तो ज़रूरी था। सौरभ को खाने की दिक्कत हो जाती थी, इसलिए माता-पिता साथ ही थे। शादी में सौरभ के परिवार के बहुत सारे लोग जुट गए थे — चचेरे चाचा-चाची, उनके बच्चे, बुआ वगैरह। दादी-दादा भी आ गए। पोते की शादी जो थी।
चूल्हा छूने की रस्म होनी थी। मेरे तो पसीने छूट रहे थे। कभी किया नहीं था। कैसे रसोई बनेगी? मम्मी की याद आने लगी। जब भी वह कुछ बनाने को सीखने कहतीं, पापा सामने आ जाते और मेरी छुट्टी हो जाती। अब? बचा लो मम्मी!
अपनी माँ को याद कर ही रही थी कि अम्मा जी आईं।
“देखो बेटा, आज चूल्हा छूने की रस्म होनी है तो कुछ बनाना पड़ेगा तुम्हें। जल्दी से नहा-धोकर तैयार हो जाओ।”
वह चली गईं। मैं अपना सिर पकड़कर बैठ गई। अम्मा जी फिर लौटीं —
“तुम घबराना नहीं, सबकुछ ठीक होगा। मैं हूँ न तुम्हारे साथ।”
सौरभ की एक बड़ी बहन भी थी जो अपने परिवार के साथ मेरठ में रहती थी। बहुत मेल-जोल था दोनों भाई-बहन में।
अम्मा जी ने पूरा खाना बना दिया — पूरी, पुलाव, शाही पनीर, आलू-मटर की सब्ज़ी, रायता और भी बहुत कुछ। मेरी तो जान में जान आई। कुछ लोगों को खाने पर बुलाया गया था। सभी ने खूब तारीफ़ की खाने की।
“किसने बनाया है? बहुत स्वादिष्ट भोजन बना है।”
“और कौन बनाएगा? बहू ने ही सबकुछ बनाया है।”
अम्मा जी ने आज बचा लिया था। जैसा सोचा था वैसा नहीं, यह तो एकदम अलग ही सासू माँ हैं। मैंने मन ही मन धन्यवाद कहा।
मुझे साड़ी पहनना नहीं आता था, तो अम्मा जी सिखातीं। दस दिन की छुट्टी मेरी खत्म हो गई थी। सौरभ के साथ ही ऑफिस जाने लगी। लौटती तो अम्मा जी खाना बनाकर रख देतीं, गर्म-गर्म चाय बना देतीं। कितनी अच्छी थीं अम्मा जी। मेरी कल्पना से परे। मेरी नज़र में तो सास कभी अच्छी होती ही नहीं थी।
पहली बार बंटी के जन्म पर जब मायके से सामान आया तो मुझे संकोच भी था। मेरे पापा रिटायर हो गए थे और उनकी कम्पनी में पेंशन मिलने का प्रावधान नहीं था, अतः छठी में कोई खास सामान नहीं था। घर के लिए कपड़े और बच्चे का सबकुछ।
चचेरे परिवार के लोग जुट गए थे। “चचिया सास” ने टोकरी टटोली —
“देखूँ तो बहू के मायके वालों ने क्या-क्या भेजा है?”
“पूरे घर के लिए अच्छी-अच्छी साड़ी, सूट का कपड़ा, बच्चे के लिए कपड़े, सोने का कड़ा, सोने की चेन…”
मैं अचंभित हो गई। इतना तो आया ही नहीं था। फिर? मालूम हुआ अम्मा जी ने अपने तरफ से सारी चीजें रखकर मेरे मायके वालों का नाम बढ़ाया।
इस बार फिर अम्मा जी ने मुझे हरा दिया। मैं उनके लिए जितना गलत सोचती, वह उतनी ही अच्छी बन जातीं। मेरे बेटे की देखभाल भी बहुत अच्छे से करतीं — नहलाना, धुलाना, दूध गरम करके पिलाना, तेल मालिश करने से लेकर सबकुछ करतीं।
अम्मा जी का कहना था कि बच्चे को जितना दादी-नानी प्यार से रखेगी उतना एक आया कभी नहीं कर सकती। वह प्यार और लगाव हो ही नहीं सकता। मैं भी निश्चिंत होकर ऑफिस जाती।
बंटी बारह साल का हो गया। अब उसके पेट में अक्सर दर्द रहता। बहुत जगह दिखाया, कोई फायदा नहीं हुआ। किसी ने वेल्लोर जाकर दिखाने की सलाह दी। इसी बीच पापा जी (ससुर जी) का हार्ट अटैक से निधन हो गया। गृहस्थी गड़बड़ा गई।
अम्मा जी पापा जी के बारे में दिन-रात सोचती रहतीं। वे बहुत कमजोर हो गईं। इधर बंटी का इलाज भी कराना था। तय हुआ कि होली के बाद बंटी को लेकर वेल्लोर चलेंगे।
बंटी के जन्म के बाद अम्मा जी और पापा जी हमारे साथ ही रहने लगे थे। बच्चे की देखभाल के लिए ज़रूरी भी था। होली सादगीपूर्ण रही पापा जी के न रहने के कारण।
हम तीनों का टिकट हो गया। दोनों को लंबी छुट्टी लेनी पड़ी। सवाल था अम्मा जी के लिए — कौन देखेगा उनको?
सौरभ ने सलाह दी —
“क्यों न बड़ी दीदी को कुछ दिनों के लिए बुला लें?”
मुझे सलाह अच्छी लगी। जीजा जी भी दो साल पहले गुज़र गए थे। दीदी अपने बेटे-बहू के साथ थीं। तुरंत आने के लिए तैयार हो गईं। सौरभ जाकर ले आए उनको।
दीदी आ गईं तो हम अम्मा जी के लिए निश्चिंत हो गए। दूसरे दिन हम निकल गए। वेल्लोर पहुँचकर डॉक्टर से सलाह-मशविरा लेकर भागदौड़ करते रहे। बेटे को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
दो दिन बाद ही खबर मिली कि अम्मा जी बाथरूम में जाते हुए गिर गईं। सिर में चोट लगी थी। अस्पताल ले जाना पड़ा और सात टाँके पड़े।
अम्मा जी की तबीयत खराब रहने लगी थी। वे बिस्तर पर पड़ी रहतीं। दीदी पर काम का बोझ बढ़ गया था — घर का काम, नाश्ता-खाना बनाना, अम्मा जी को नहलाना, चोटी करना, कपड़े और डायपर बदलना, खिलाना — सबकुछ दीदी के माथे पर पड़ गया।
सबकुछ बड़े ही मन से निभाया उन्होंने। सौरभ कहते — “अपनों का साथ होना बहुत ज़रूरी है।” सच, दीदी हमारे लिए भगवान के तुल्य थीं। शांत भाव से निभाया उन्होंने — मेरी गृहस्थी भी और अम्मा जी की सेवा भी।
बीस दिन बाद बंटी की हालत में सुधार हुआ। हम लोग लौट आए। दूसरे दिन अम्मा जी भी चली गईं परलोक के लिए।
बहुत सेवा और घर की देखभाल की बड़ी दीदी ने। अपनों की पहचान तो ऐसे ही समय पर होती है। काफी लंबी छुट्टी लेनी पड़ी मुझे। सबकुछ निभाना ज़रूरी हो गया था।
पाँच साल बीत गए। गृहस्थी सुचारु रूप से चल रही थी। दीदी भी अपने घर लौट गईं।
आज तबीयत ठीक नहीं थी तो छुट्टी ले ली। काश! आज अम्मा जी होतीं तो बार-बार मेरी तबीयत पूछतीं, सिर पर स्नेह और ममता का हाथ रखतीं। बहुत याद आ रही है अम्मा जी।
— उमा वर्मा, राँची, झारखंड (स्वरचित, मौलिक)