लता दी के दूर के रिश्ते के भाई का बेटा था मानव… जब पहली बार मानव लता दी के घर आया, उसे देखते ही लता दी का मन… एक अनजाने अपनत्व से भर उठा…
लता दी कि अपनी भरी पूरी गृहस्थी थी… उनके पति की अच्छी नौकरी थी… दो बेटियां थीं… कमी तो कोई नहीं थी…
मानव के पास आ जाने पर उन्हें लगा जैसे भगवान ने मुझे एक बेटा दे दिया है… लता दी को लगा कि उनके जीवन की यह कमी भी पूरी हो गई…
मानव अपनी उच्च शिक्षा के लिए शहर आया था… हॉस्टल का खर्च देने को, उसके पिता के पास इतने पैसे नहीं थे… तो जान पहचान में लता दी का पता मिला… उनका घर कॉलेज से अधिक दूर नहीं था… जब तक कोई और व्यवस्था, सुविधा के अनुकूल हो ना जाए… तब तक मानव का लता दी के पास रहना ही सुनिश्चित हुआ था…
दी ने भी खुले मन से, अपने बच्चों की तरह, उसका स्वागत किया… कुछ ही दिनों में मानव उनकी जिंदगी का हिस्सा बन चुका था… उसने भी गांव के घर को छोड़ने के बाद, इतना सुंदर घर, अच्छे लोग पाए थे तो वह भी सबसे बड़े प्रेम से व्यवहार करता था… उसकी कोशिश हर समय लता दी को खुश रखने की रहती थी…
… जी बुआ जी… जी बुआ जी… की रट से तो कभी-कभी लता दी खुद उकता जाती… “अरे मानव कभी ना भी बोल दिया करो… तुम जरूरी नहीं की सारी बातें मान ही लो… जो तुम्हें नहीं पसंद आए… या जब तुम्हारा मन ना करे… तुम मना कर दिया करो ना… मैं बुरा नहीं मानूंगी…!”
लेकिन उसका जवाब भी…” जी बुआ जी”… ही था…दोनों बच्चियों का भी एक आदर्श बड़े भाई की तरह ख्याल रखता था मानव…
देखते-देखते दिन बीत रहे थे… हॉस्टल के बारे में अब उन लोगों ने सोचना भी छोड़ दिया था… मानव लता दी के घर का सदस्य बन चुका था…
लता दी के अपने, जिन में मैं भी थी… उन्हें बहुत बार समझाने की कोशिश की… इतना मोह लगाना ठीक नहीं… वह कोई अपना नहीं है… लेकिन लता दी की आंखों पर ममता की पट्टी पड़ी थी… उस समय उनके लिए मानव से बढ़कर सीधा, सच्चा और अपना कोई दूसरा नहीं था…
कॉलेज की छुट्टियां होती, तो ना मानव का जी घर जाने का करता… ना लता दी ही उसे कहीं भेजना चाहती थी… बच्चे तो घर सर पर उठा लेते थे… लेकिन उस समय लता को यह एहसास होता था कि यह एक पराया लड़का है… मगर छुट्टियां खत्म होते ही फिर वही दिन और रातें…
ऐसे ही चार साल निकल गए… यह मानव का कॉलेज में आखिरी साल था… उसने ढेरों वादे कर रखे थे अपनी बहनों से… और लता बुआ से… इन चार सालों में वह उनका अपना बिल्कुल अपना बन चुका था…
वादों की लंबी चौड़ी लिस्ट बनाकर… अपने मुंह बोले रिश्तो से विदाई लेकर… आखिर एक दिन मानव चला गया…
लता दी का उसके लिए प्यार इतना गहरा था कि उन्हें उस पर पूरा भरोसा था… “वह कहीं गया नहीं, यह उसका घर है… बस आता जाता रहेगा…!” मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ…
शुरू शुरू में तो अक्सर फोन आ जाते थे… एक-दो बार दो एक दिनों के लिए वह भी आया… फिर धीरे-धीरे सिलसिला बदलने लगा…
मानव को एक अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई थी नौकरी के बाद वह आया था, लता दी से मिलने, नौकरी के कुछ ही दिनों बाद उसका ब्याह ठीक हो गया…
अभी तक मानव लता दी के लिए नहीं बदला था… छोटी-मोटी बातें तो कब से थी, लेकिन लता दी उन्हें महत्व नहीं दे रही थी…
मानव के ब्याह में लता दी को उनके रिश्ते के हिसाब से ही, दूर से न्यौता मिला… ऐसा न्यौता जिसमें जाए ना जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता… लता दी को झटका लगा…
धीरे-धीरे यह आम बात हो गई… मानव अब उनसे दूरी बनाने लगा था… कई बहाने, कई झूठ… यहां तक की लता दी की बेटियों के ब्याह में… मानव की इतनी मान मनोव्वल की गई… बार-बार उसे बुलाया गया… बहनों ने रो-रो कर उसे भाई होने का वास्ता दिया… लेकिन उसके पास एक से एक बहाने मौजूद थे…
एक बार मानव भी गांव में ही था… दी भी वहीं थी… अचानक लता दी की तबीयत बिगड़ गई… भाई भतीजे सभी भरे थे… सब तुरंत उन्हें अस्पताल ले गए… सबने जी जान से देखभाल की… मानव भी आया था मिलने… बाहर से ही हाल समाचार जानकर चला गया…
लता दी भीतर कमरे में थी… आवाज वहां तक आ रही थी… हड़बड़ा कर उठ गई…” मानव था क्या…!”
मैंने दी को सहारा देकर दोबारा सुला दिया…” हां दी… था तो मगर चला गया…!”
दी के चेहरे पर एक सूखी हंसी तैर गई …”क्या हुआ दी…!”
” कुछ नहीं री… बस सोचती हूं, अपनों की पहचान होने में कभी-कभी कितनी देर लग जाती है… कभी तो पूरी उम्र निकल जाती है……!”
रश्मि झा मिश्रा