सतीश , बेटा न जाने अब तो कब बुलावा आ जाए , एक बार उस दहलीज़ के दर्शन करवा दे , जहाँ ब्याह कर आई थी ।माँ, कैसे जाओगी ? इतना लंबा सफ़र, बुढ़ापे का शरीर, ऊपर से कहीं ठहरने का बंतोबस्त नहीं । फिर आप वहाँ किससे मिलोगी ? अपने कुटुंब का तो अब एक भी परिवार वहाँ नहीं है , जो वहाँ मिलेंगे वो हमें पहचानेंगे नहीं । फिर मेरी भी तबीयत ठीक नहीं रहती । कोई एमरजेंसी आ गई तो सौ किलोमीटर से पहले ढंग का अस्पताल नहीं मिलेगा ।
तू मत चल , किसी ओर के साथ भेज दे । मेरी चिंता मत कर , कुछ नहीं होगा । क्यों नहीं पहचानेगा कोई ? अरे ! शहर नहीं है वो , जहाँ दरवाज़े के सामने खड़े आदमी का भी पता न हो कि कौन खड़ा है । सौ बात की एक बात है कि इस बार तो मैं जाकर ही रहूँगी, तू इंतज़ाम नहीं कर सकता तो जेठजी के बड़े जमाई को बुला लूँगी, वहीं दिल्ली में रहता है । जब आदमी किसी काम की ठान लेता है तो रास्ते भी निकल ही आते हैं ।
ऐसा लगता था कि इस बार तो सावित्री जी ने अपनी ससुराल जाने की ज़िद ही पकड़ ली थी । ख़ैर माँ की जिद के आगे बेटे को झुकना ही पड़ा और सतीश जी ने कलकत्ते से दिल्ली की फ़्लाइट के साथ दिल्ली में ही दो दिन के लिए होटल भी बुक करवा दिया और गाँव तक जाने के लिए अपने एक क्लाइंट की गाड़ी का भी इंतज़ाम कर दिया । माँ ने बहुत कहा कि जेठजी की लड़की बहुत बार बुलाती है, उसी के घर रूक जाऊँगी, मिलना भी हो जाएगा पर साथ में जाने वाले पोते ने किसी के घर जाकर रूकने से साफ़ मना कर दिया ।
मतों का भेद स्वाभाविक है – करुणा मलिक : Moral Stories in Hindi
सावित्री जी ने यह सोचकर इस बात पर समझौता कर लिया कि कहीं ज़्यादा ज़ोर देने पर संयम मना ही ना कर दे । आजकल के बच्चों का भरोसा नहीं । वहीं जाकर देखेंगी ।
बहू कांता ने बेटे संयम को ढेर सी हिदायतें देते हुए कहा-
बारह बजे तुम लोग लैंड करोगे । प्रकाश जी का ड्राइवर तुम्हें लेने आ जाएगा । अम्मा तो उसी दिन गाँव जाने को कहेंगी पर उस दिन वहीं आराम करना । ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि उर्मिला बहनजी से बिना मिले, अम्मा आ जाएगी पर तू बहस मत करना , तेरा मन करेगा, चले जाना वरना अम्मा को ड्राइवर के साथ भेज देना , घर का ही ड्राइवर भेजेंगे वो ।
दिल्ली पहुँच कर सचमुच सावित्री जी ने पोते के साथ लंच किया, घंटा भर लेटी और बोली –
बेटा, चल गाँव के लिए चल पड़ते हैं । यहाँ कमरे में बैठने के लिए थोड़े ही आए हैं ?
अम्मा, कल चलेंगे सुबह । अब तो वापस आने का भी समय नहीं रहेगा । आपको थकान भी हो जाएगी । चलो , कोई पुरानी, आपके जमाने की मूवी देखते हैं ।
अरे ! ये मूवी सूवी तो घर में रोज़ ही देखते हैं । चल फिर ऐसा कर , अपनी उर्मिला बुआ के घर ले चल । बेटा , कितना बुलाती रहती है । रिश्ते में तो मेरी भतीजी लगती है पर उम्र में यही कोई आठ- दस बरस का अंतर होगा । जब मेरा ब्याह हुआ था तो हम दोनों सहेलियों की तरह रहती थी ।
अम्मा, मुझे तो नींद आ रही है । प्रकाश अंकल का ड्राइवर नीचे है , वो आपको ले जाएगा । बस जब मैं फ़ोन करूँ, उठा लेना । ज़्यादा देर मत करना । हमें क्या लेना- देना है उनसे ?
अम्मा ने रास्ते में जी खोलकर फल- मिठाई ख़रीदी और जा पहुँची उर्मिला के घर । बरसों के बाद अपनों से मिलकर सावित्री जी का रोम- रोम पुलक उठा । इस बीच संयम ने कई बार दादी से बात करके आने के लिए कहा । पर सावित्री जी डिनर के बाद ही पूरी तसल्ली से गई ।
अगले दिन सुबह सात बजे ड्राइवर के आते ही दादी ने चलने की जल्दबाज़ी मचा दी । संयम कहता ही रह गया कि नाश्ते के बाद चलेंगे पर वे तो गाड़ी के पास आकर खड़ी हो गई-
बेटा , नाश्ते के वक़्त तो गाँव पहुँच जाएँगे । आज देसी नाश्ता करना ।
इस समय संयम ने चुप रहना ही ठीक समझा क्योंकि वह पिछली रात भी दादी के साथ नहीं गया था । सुबह सवेरे सड़क ख़ाली थी और ड्राइवर ने स्पीड पकड़ ली । तक़रीबन एक घंटे के बाद वह बोला –
दिल्ली से निकल गए भीड़ होने से पहले वरना यहाँ का ट्रैफ़िक जाम, कभी-कभी तो दो-दो घंटे दिल्ली के अंदर ही लग जाते हैं । अगर चाय- नाश्ता करना हो तो……
ना बेटा , हमारा गाँव ज़्यादा दूर नहीं, बागपत , बडौत और फिर आधे घंटे का रास्ता ।
मैं भी बडौत इलाक़े का ही हूँ अम्माजी ,कौन सा गाँव है आपका ?
और जैसे ही दादी ने गाँव का नाम लिया , अचानक ब्रेक लगा और ड्राइवर बोला –
मैं भी उसी गाँव का हूँ अम्मा जी जी । दिल्ली में नौकरी करता हूँ, वो तो साहब ने आपकी ख़ास ड्यूटी दी है, नहीं तो रोज़ बडौत आता हूँ । बच्चे वहीं पढ़ते हैं ।
अच्छा….. किसके से हो ? घर कहाँ है तेरा ?
अम्माजी , आपको गाँव में देखा नहीं, किसके यहाँ जा रही है? गाँव तो छोटा सा हमारा । अब तो गिने- चुने लोग रह गए । बस बड़े- बूढ़े ही है , बाक़ी नौकरियों की चाह में गाँव से चले गए, नई बहुएँ भी बच्चों को पढ़ाने की ख़ातिर आसपास के क़स्बों में रहती हैं ।
हाँ बेटा, मैं किसे कहूँ ? मेरे पति तो खुद पैसा कमाने की ख़ातिर आज से बरसों पहले गाँव छोड़कर चले गए थे । अब तो बच्चे भी बाप- दादाओं की जन्मभूमि को भूल चुके हैं । कभी नाम सुना हो , हमारे परिवार को हवेलीवालों के नाम से जानते थे ।
अरे दादीजी , आप तो हमारे ही पड़ोसी हो । मैं रामभजन कोल्हू वाले का पडपोता हूँ । ये लो , दादीजी , अपने गाँव की सीम शुरू हो गई ।
संयम चुपचाप देख रहा था कि ड्राइवर ने किस तरह औपचारिक अम्मा जी से उतरकर दादीजी कहना शुरू कर दिया था और गाँव की सीम का नाम लेते ही उसकी दादी ने अपना पल्लू सिर पर ले लिया था ।
गाँव के रास्ते पर जाते- जाते सावित्री जी एक- एक मोड़, एक- एक घर को याद करने की कोशिश करती जा रही थी और याद न आने की स्थिति में नया समझकर खुद को तसल्ली देती जा रही थी ।
नहर पर जाकर उन्होंने गाड़ी रुकवाई । पास के बाग में जाकर बोली-
बेटा प्रमोद , यहाँ गाँव के कुलदेवता का मंदिर था ।
हाँ दादी जी , पाँच मिनट का रास्ता है । पर कच्ची पगडंडी है, गाड़ी तो नहीं पहुँचेगी ।
ना , गाड़ी से क्यों जाऊँगी ? आशीर्वाद माँगने तो पैदल जाना चाहिए ।
संयम और प्रमोद की मदद से सावित्री जी अपने कुल देवता के स्थान पर माथा टेकने गई । संयम के हाथों दीया जलवाया और चादर ओढ़ाकर सबके लिए आशीर्वाद माँगकर , भूलचूक की क्षमायाचना की ।
प्रमोद ने गाड़ी सीधे ले जाकर अपने घर के बाहर रोकी । घर के बाहर पीपल के नीचे बैठे लोगों को सावित्री जी के पति और ससुर का नाम बताकर , जैसे ही उनके आने की बात बताई कि थोड़ी ही देर में आँगन में भीड़ लग गई ।
जब संयम ने चूल्हे में सिकी मिस्सी रोटी , छाछ का गिलास, ताज़ा मक्खन और सिल पर पिसी चटनी का स्वाद लिया तो पेट तो भर गया पर जीभ ललचाती ही रह गई । कुछ देर बाद प्रमोद तथा दूसरे हमउम्र संयम को खेतों की ओर ले गए । संयम कुछ ही देर में उनसे ऐसे घुलमिल गया मानो वे सब बचपन के साथी हों ।
सावित्री जी को अपनी वे पुरानी सखियाँ मिली , जिनके साथ कुँए पर पानी भरने जाती थी , हँसी- ठिठोली करती थी और जो विवाह के शुरुआती जीवन की सहभागिनी थी । न जाने कितनी और क्या-क्या बातें की । कई बरसों को पल में क़ैद करना चाहती थी ।
वो तो अच्छा हुआ कि आते समय संयम होटल से पूरा सामान लेकर आए थे क्योंकि न तो शाम को दिल्ली लौटने की बात अम्मा जी ने कहीं और न ही संयम ने ।
अगले दिन दोपहर के भोजन के बाद जब लौटने की तैयारी होने लगी तो कोई गन्नों का बंडल लेकर पहुँच गया, कोई ताज़ा गुड़, कोई शुद्ध घर का घी तो कोई दूध की बनी मिठाई। विदाई का ऐसा मनोरम दृश्य केवल अपनों के बीच ही होता है ।
संयम ने सबसे विदा लेते समय कहा –
जब भी समय मिले , कलकत्ता ज़रूर आना , आपका अपना घर है और हम सब आपके अपने ।
उसने गाड़ी में दादी से कहा –
आप ठीक कहती हो कि आदमी कहीं भी चला जाए , उसे अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहिए ।
करुणा मलिक
bahut sundar
Ancestral homes are like time machines. When you visit,old memories take you to childhoods.
मैं भी बड़ौत से हूं आपने गांव का नाम नहीं लिखा
शहर में रोजी रोटी की तलाश में गांव से आकर खानाबदोश जैसा जीवन जीने को मजबूर आज का मध्यमवर्गीय इंसान जब कभी लौटकर अपनी माटी की सुगंध पाने पहुंचता है तो पूरा गांव एक परिवार की तरह उसका स्वागत करता है। यह शायद कुछ सदियों पुरानी रीत है।