आज फिर वही दृश्य – फ्लाइओवर के नीचे एक नहीं, बल्कि दो तीन भिखारियों का परिवार फलफूल रहा है। हर परिवार के कम से कम आधा दर्जन बच्चे हैं जो मैले कुचैले कपड़ों में इधर से उधर घूमते
रहते हैं और भीख मांगने की कला को भी परिष्कृत करते जा रहे हैं।लालबत्ती पर गाड़ी रुकते ही वे यंत्रवत शीशे खटखटाते हैं और हाथ फैला देते हैं।कभी झिड़कियां और कभी कुछ पैसे भी मिल जाते हैं।
इसी उम्र के हमारे बच्चे नवाबी व्यवहार पाते हैं। उनको जरा सी परेशानी होते ही हम बुरी तरह द्रवित हो जाते हैं और देवी देवता मनाने लगते हैं। लेकिन इन बच्चों को हमने जैसे इसी हाल में स्वीकार कर
लिया है। दोहरी मानसिकता के साथ जिए जा रहे हैं हम। रोज़मर्रा की भागदौड़ में संवेदनाएं खो गई सी लगती हैं। बस मैं और मेरी दिनचर्या यही जीवन को बहाकर लिए जा रही है।
मैं इन्हीं विचारों में खोई हुई थी। तभी काॅलबेल बजी और मेरी तंद्रा टूटी। जाकर दरवाज़ा खोला तो कॉलोनी के कुछ लोग राममंदिर के लिए चंदे लेने आए थे। पूरे अधिकार के साथ उन्होंने पांच सौ रुपए की रसीद काटकर पकड़ा दी और मैंने भी दे दिए।
इसके कुछ दिन बाद ही मेरे घर एक लड़का आया जो करीब दो वर्ष पहले तक हमारे घर से रोज़ कूड़ा ले जाया करता था लेकिन कोविड के बाद से अपने गांव चला गया था। उसने मुझसे कहा कि इस वक्त उसके पास काम नहीं है और उसे पैसों की जरूरत है। मेरा पूछना स्वाभाविक था कि ऐसी
कौन सी जरूरत है। इसका कारण जब उसने बताया तो मेरा मन भर आया। उसने कहा कि आज उसकी बेटी का पहला जन्मदिन है और मैं बस छोटी सी मदद कर दूं जिससे यह वह एक छोटा सा
केक खरीद सके। इस बात को विश्वास और अविश्वास के तराजू पर तौलते हुए मुझे लगा कि हो सकता है यह पैसे मांगने के लिए झूठा बहाना बना रहा है। लेकिन जो भी सच्चाई रही हो मैंने उसे कुछ पैसे दे दिए।
पर इस बात का अहसास मुझे कचोट रहा था कि वह अगर सच बोल रहा था तो मैने एक पिता की भावना पर संदेह किया है। आज भी यह घटना जब मुझे याद आती है तो मैं अपने आप से ही नज़र नहीं मिला पाती। मेरी आँखें नीची हो जाती हैं , मेरे चेहरे से संवेदनशील होने का नकाब उतर गया हो जैसे।
मुहावरे और कहावत लघुकथा प्रतियोगिता
– रश्मि सिंहल