वक्त पड़ने पर ही पता चलता है कि कौन अपना है कौन पराया। कुछ भी कहो जो आपकी मुश्किल घड़ी में काम आए वही रिश्ता ही अपना होता है।
मनोज की पोस्टिंग मुम्बई में हुई थी।पूरा परिवार बहुत खुश था। बड़ा शहर चमक दमक, बात ही अलग थी। मनोज छोटे शहर से था तो उसकी आंखों में एक अलग ही चमक थी। कहते हैं ना जिसको दिल्ली मुंबई का नशा चढ़ गया तो उसको तो अपना शहर भी कुछ नहीं लगता है।जब घर आता सौ ‘
कमियां निकाला करता कि हमारी मुंबई तो ऐसी है, वहां के लोग तो ऐसे हैं।अब घर वाले भी पक ही चुके थे सुनते – सुनते उसकी कहानी। सच्चाई ये थी जो जहां रहता है उसे तो वही जगह सबसे अच्छी लगती है।
मनोज भी परिवार के साथ रम बस गया था वहां और धीरे धीरे वो अपने शहर और अपनों से दूर होने लगा था। दोस्तों की मंडली आना जाना, पिकनिक यही सब आए दिन चलता था। यहां तक की एक बार मां बहुत बीमार थीं तो भी नहीं गया। उसके दिमाग में फितूर सवार हो गया था कि परिवार वाले तो बस लेना जानते हैं।दुख तकलीफ़ में तो हमारे दोस्त ही साथ निभातें है।
सब कुछ अच्छा चल रहा था। पदोन्नति भी हो गई थी और एक घर भी खरीद लिया था मुंबई में।अब तो वापस लौटने का सवाल ही नहीं था। कहते हैं ना हम कुछ सोचते हैं और ऊपर वाला कुछ और।
एक सुबह हुए हादसे ने जीवन की कहानी ही बदल दी। मनोज ऑफिस के लिए निकला ही था कि उसका एक्सिडेंट हो गया और वो बुरी तरह से घायल हो गया। सड़क पर उपस्थित लोगों ने अस्पताल में भर्ती कराया और उसके आईडी कार्ड से पता लेकर लोगों ने फोन किया। सुजाता मनोज की पत्नी
भागी – भागी आई और उसने उसके दोस्तों को भी खबर किया सभी थोड़ी देर में अस्पताल पहुंच गए। बहुत बड़ा आपरेशन हुआ जिसमें उसका एक पैर काटना पड़ गया था और बहुत सारी छोटी-बड़ी सर्जरी भी की गई थी।
बड़े भइया सुबोध को जैसे खबर लगी, दूसरे दिन ही वो पहुंच गए थे। भाभी मेघा भी आईं थीं साथ में। भाभी ने पूरा घर संभाल लिया था और भईया ने अस्पताल का। सुजाता को इतना बड़ा सहारा मिला था अपनों का। इसी परिवार से उन लोगों ने नाता तोड़ लिया था अपनी दुनिया में मस्त थे सब।आज यही परिवार बिना कुछ कहे साथ में खड़ा था।
दोस्तों का क्या शाम को ऑफिस की छुट्टी के बाद आते एक – दो घंटे बैठते और चले जाते। पंद्रह दिन लग गए थे अस्पताल में और बहुत खर्च हुआ था। सुबोध ने सारा पैसा भरा था अस्पताल का। मनोज बुरी तरह से टूट गया था बिखर गया था।एक पैर ना होने से उसकी मानसिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी।उसको संभालना अकेली सुजाता के बस का नहीं था। सुजाता से भी मनोज की तकलीफ़ नहीं देखी जाती थी।
मेघा और सुबोध अपना परिवार छोड़ कर कितने दिनों से रुके और थे और मनोज को बहुत अच्छी तरह से संभाल भी रहे थे। मनोज को भी अहसास होने लगा था कि जिस परिवार और शहर से मैं कितना दूर हो गया था आज वही रिश्ते ने हमें संभाला है।अपना खून अपना ही होता है। भले ही हम दौलत और बाहरी चकाचौंध की दुनिया में सबकुछ भुला दें फिर भी हमारे अपनों ने हमें नहीं भुलाया था।
आज मनोज को घर लाया गया था और उसको धीरे धीरे बैसाखी पर चलना सिखा रहे थे भईया। जैसे कोई छोटा बच्चा हो भइया भाभी ऐसे ख्याल रखते थे।
मनोज भावुक हो कर फूट फूटकर रो पड़ा कि “भइया मुझे माफ कर दीजिएगा। मैं इस शहर की चकाचौंध में लुप्त हो गया था और अपनी मिट्टी और अपनों से दूर हो गया था लेकिन आज मुझे अहसास हुआ कि मैं कितना गलत था। मुझे दोस्तों से पहले अपने परिवार को आगे रखना चाहिए था।”
” चुपकर पागल भला अपने भी कभी अलग होते हैं क्या मैं ऐसी स्थिति में होता तो तू नहीं संभालता मुझे?” सुबोध बोला।
“पता नहीं भइया आप जैसा मेरा बड़ा दिल होता की नहीं।आप और भाभी ने अपना काम काज और परिवार को छोड़कर मेरे पास इतने दिनों से हैं, बहुत बड़ी बात है।”
देवर जी,” नाश्ता करके दवाईयां खा लीजिए और ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है।हम एक-दूसरे के काम नहीं आएंगे तो क्या बाहर वाले आएंगे।” मेघा ने समझाया मनोज को।
मनोज की नौकरी चली गई थी क्योंकि साइट पर काम करता था जहां दिन भर चलना पड़ता था।अब तो व्हील चेयर और बैसाखी के सहारे हो गया था।
बड़े भइया अपने साथ लिवा लाए थे मनोज और पूरे परिवार को और मनोज के लायक काम में वहां लगा दिया था। मनोज अब अकेला नहीं था पूरा परिवार एक साथ था सुख और दुख दोनों ही समय में।
ज्यादा तो नहीं था पर कम भी नहीं था। कहते हैं ना प्यार से मिल बांट कर खाओ तो सादा खाना भी पकवान के समान होता है।ये बात मनोज को अब समझ में आ गई थी।
गलत ये नहीं था कि वो मुंबई में था गलत ये था की उसे मुंबई के सिवा कुछ भी नजर नहीं आता था।उसे सब लोग पिछड़े और गंवार लगने लगे थे।आप देश में रहो यहा विदेश में अपने घर और वहां की मिट्टी से हमेशा जुड़े रहो और परिवार बहुत बड़ी ताकत होता है उसको कभी नहीं भूलना चाहिए।अब सबकुछ आईने की तरह साफ था कि अपनों की पहचान हो चुकी थी।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी