आज रजनी बहुत दुखी थी। कारण भी बड़ा अजीब था—जिस राजेश बाबू को वह जीवनभर ताने देती रही, बुरा-भला कहती रही, उसी इंसान ने उसकी जिंदगी के सबसे कठिन क्षण में उसका सहारा बनकर उसके पति की जान बचाई थी।
आज से आठ दिन पहले अचानक मदन जी को दिल का दौरा पड़ा था। पूरा घर जैसे एक झटके में बिखर गया। डॉक्टर को तुरंत दिखाना था, अस्पताल में भर्ती कराना था, पैसों की व्यवस्था करनी थी। रजनी ने सबसे पहले मायके वालों को फोन किया, उम्मीद थी कि माँ-भाई सहारा देंगे। लेकिन वहाँ से फोन बंद मिला। ससुराल के लोग तो पहले से ही उससे कटे रहते थे, किसी ने कोई जिम्मेदारी नहीं उठाई।
ऐसे में अकेली खड़ी रजनी समझ ही नहीं पा रही थी कि करे तो क्या करे। तभी राजेश बाबू आगे आए। वही राजेश, जिसे रजनी ने कभी अपने घर में स्वीकार नहीं किया था, जिसे वह पराया समझती थी, उसी ने अस्पताल तक ले जाने से लेकर डॉक्टरों से बातचीत करने, पैसों की व्यवस्था करने और दवाइयाँ लाने तक हर जिम्मेदारी संभाल ली। आठ दिन से वह दिन-रात अस्पताल और घर के बीच भागदौड़ कर रहे थे। अगर वह न होते तो शायद मदन आज इस दुनिया में न होते।
रजनी जब अस्पताल के कमरे में पति के पास बैठी चादर बदल रही थी, तभी उसे बीते तीस साल पुराने पल याद आ गए।
रजनी की शादी मदन से हुई थी। शादी के बाद जब वह ससुराल आई तो देखा कि घर में एक और नौजवान रहता है—मदन का बुआ का बेटा, राजेश। उम्र में मदन से पाँच साल बड़ा और टैम्पो चालक।
“ये यहाँ क्यों रहते हैं?” रजनी ने झुंझलाते हुए सास से पूछा।
सास ने कहा, “ये मेरा भांजा है। बचपन में इसके माता-पिता गुजर गए थे। तभी से यही यहीं पल रहा है।”
रजनी को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। उसके मन में यह बैठ गया कि शादी तो उसने मदन से की है, फिर इस राजेश का यहाँ क्या काम! उसने तुरंत ही तंज कसते हुए कहा, “अब तक तो यहाँ रहा होगा, लेकिन अब मैं आ गई हूँ। अब इसे कहीं और जाना चाहिए।”
सास का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने धमकी भरे स्वर में कहा, “क्या कहती हो बहू! यह यहीं रहेगा। इसे कोई निकाल नहीं सकता।”
रजनी चुप हो गई, पर मन में आग सुलगने लगी। उसने पति से साफ कह दिया—“सुनो जी, मेरी शादी आपसे हुई है, पूरे खानदान से नहीं। या तो माँ और भाई का अलग बंदोबस्त करो, या फिर मुझे मायके छोड़ आओ।”
मदन ने शांत स्वर में कहा, “तुम्हें परेशानी है तो मायके जा सकती हो। ये लोग यहीं रहेंगे।”
यह सुनकर रजनी का दिल टूट गया। उसे लगा कि उसकी अहमियत कुछ भी नहीं। धीरे-धीरे उसका रिश्ता सास से भी खराब हो गया। सास ने तो यहाँ तक कह दिया—“इस बहू के लक्षण ठीक नहीं हैं, बेटा, तुम दोनों ऊपर अलग रहो।”
रजनी ऊपर के हिस्से में रहने लगी। नीचे सास, बच्चे और राजेश।
साल दर साल गुजरते गए। रजनी के तीन बच्चे हुए। पर बच्चों की परवरिश, उनकी पढ़ाई-लिखाई, स्कूल-फीस, छोटे-मोटे खर्च—सब में राजेश ही आगे रहता। टैम्पो से जितना कमाता, उसमें से आधा बच्चों पर खर्च कर देता।
बच्चे भी राजेश के ज्यादा करीब हो गए। वे नीचे उसके पास खेलते, उससे बातें करते, उससे पैसे लेकर आइसक्रीम खाते। रजनी के लिए यह सब और भी कष्टदायक था। उसे लगता कि राजेश उसके बच्चों को उससे छीन रहा है।
धीरे-धीरे घर की परिस्थितियाँ बदलती गईं। सास का देहांत हो गया। तब से राजेश ने घर की रसोई सँभाल ली। रजनी को यह सब और चुभता रहा। पर कुछ कह पाने की ताकत नहीं बची।
बच्चे बड़े हो गए, पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करने लगे। बेटियों की शादी हुई, बेटे का घर बस गया। अब सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे।
लेकिन वक्त का पहिया घूमता ही है। जिस राजेश को रजनी कभी अपने लिए बोझ मानती थी, वही आज उसके पति का जीवनदाता बन गया।
मदन के दिल का दौरा पड़ने पर, जब सब किनारे हो गए, यहाँ तक कि बच्चे भी अपने-अपने काम और परिवार में व्यस्त होकर केवल फोन पर हालचाल पूछने तक सीमित रह गए—तब राजेश ने ही पूरा बोझ अपने कंधों पर उठाया।
रजनी ने देखा, कैसे अस्पताल के बाहर खड़े होकर राजेश डॉक्टरों से बात करता है, कैसे वह टैम्पो बेचकर पैसों का इंतज़ाम करता है, कैसे दिन-रात बिना थके दवा और रिपोर्टें लाता है।
रजनी को अपनी पुरानी बातें याद आईं। कितनी बार उसने तानों में कहा था—“तुम यहाँ क्यों रहते हो? तुम्हारी वजह से मेरा घर टूटा पड़ा है।”
लेकिन आज वही आदमी बिना किसी शिकवे के, बिना किसी शिकायत के उसकी दुनिया बचा रहा था।
रजनी की आँखें भर आईं। वह रोते हुए पति की चादर बदल रही थी और भीतर ही भीतर सोच रही थी—“कैसा समय है यह! जिन अपनों पर भरोसा किया, वे मुंह फेर गए। और जिसे जीवनभर पराया कहा, वही सच्चा अपना निकला।”
उसे महसूस हुआ कि खून का रिश्ता ही सब कुछ नहीं होता। कभी-कभी साथ निभाने वाला ही सबसे बड़ा अपना होता है।
आज रजनी को समझ आया कि उसके अहंकार, उसके तानों और उसके गुस्से ने वर्षों तक राजेश के दिल को चोट पहुँचाई होगी। लेकिन उसने कभी पलटकर कुछ नहीं कहा। उल्टा, उसने वही किया जो एक भाई, एक बेटे, एक सच्चे अपने को करना चाहिए।
रजनी ने मन ही मन तय किया—अब वह राजेश को परिवार से अलग नहीं समझेगी। वह उसे खुले दिल से स्वीकार करेगी। देर से ही सही, पर उसने अपने सच्चे अपनों की पहचान कर ली थी।
समय का चक्र बड़ा अद्भुत है। कभी जिसे हम पराया मानते हैं, वही कठिन घड़ी में सबसे बड़ा सहारा बन जाता है। और कभी जिन पर हम आँख बंद कर भरोसा करते हैं, वही मुसीबत में किनारा कर लेते हैं।
आज रजनी ने यह कड़वा सच मान लिया था। आँसुओं के बीच उसके होंठ बुदबुदाए—
“धन्यवाद, राजेश भैया… अगर आप न होते तो मेरा सुहाग भी आज न होता।”
और बरसों से जमी गलतफहमियों और दूरी की दीवारें ढह गईं।
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#दिनांक-2-09-2025
#अपनों की पहचान
#रचनाकार-परमा दत्त झा, भोपाल।