अपनत्व की छांव – के आर अमित 

बरसात के छोटी-छोटी फुहार सूरज की किरणों के साथ मिलकर आँगन में रेशमी धागों जैसे चमक रही थी। गाँव  हरिपुर के लगभग हर घर में आज भी वही पुराने मिट्टी के आँगन नीम के पेड़ और कच्ची दीवारों पर गोबर की लिपाई में मौसम की महक दिखाई देती थी। उसी गाँव के एक किनारे पर खपरों की छोटी-सी झोपड़ी में रहते थे बुज़ुर्ग रामबाबू।

रामबाबू की उम्र सत्तर पार हो चुकी थी। उनकी पत्नी का देहांत कई साल पहले हो गया था। बेटा और बहू शहर में जाकर बस गए थे। कहते थे कि शहर में नौकरी करना है बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना है। शुरू-शुरू में फोन आता था फिर धीरे-धीरे त्योहारों तक सीमित और आखिर में सिर्फ साल में एक बार ठंडी-सी औपचारिक बात।पर रामबाबू को कोई शिकवा नहीं था। उनके पास उनका गाँव था उनका नीम का पेड़ उनकी सुबह की चाय और उनकी यादों का छोटा सा संसार। मगर अकेलापन फिर भी मन को कचोटता था। उम्र के साथसाथ कदमों में लड़खड़ाहट आ गई थी आँखों की ज्योति धुंधली होने लगी थी।

एक दिन गाँव की सड़क पर से आवाज़ आई दादा दादा जी क्या पानी मिलेगा।

रामबाबू दरवाज़े से बाहर आए। सामने लगभग दस बारह साल का दुबला पतला लड़का खड़ा था। कपड़े मैले बाल बिखरे हुए आँखों में भूख और थकान का रिसता दर्द।अरे बेटा क्यों नहीं मिलेगा आओ अंदर आओ

उन्होंने मिट्टी की सुराही से ताजा पानी निकाला और पीतल के गिलास में उसे दिया। लड़का लम्बे घूँट में पानी पीता गया चेहरे पर राहत पसर गई।

नाम क्या है तुम्हारा रामबाबू ने पूछा।सोनू ।।।। उसने धीमे से कहा। कहाँ से आए हो?लड़का कुछ क्षण चुप रहा। शायद उसके भीतर कुछ भारी था जिसे कह देने का साहस वह ढूँढ रहा था। कोई नहीं है मेरा तो घरपरिवार सब छूट गया। रामबाबू चुप हो गए उस छोटे-से वाक्य में कितनी टूटी हुई रातें थीं वह वह समझ गए। उन्होंने अपने अंदर कुछ पुराने घावों के दर्द को महसूस किया। जैसे किसी ने अचानक उन स्मृतियों के दरवाज़े खोल दिए हों जिन्हें उन्होंने सालों से बंद कर रखा थ चल, पहले कुछ खा ले। रामबाबू ने उसके लिए बाजरे की रोटी प्याज और थोड़ा गुड़ निकाला। लड़का फटेहाली में भी ऐसे खा रहा था जैसे महीनों बाद भोजन मिला हो। उस दिन से सोनू वहीं रहने लगा। रामबाबू ने उसके बिखरे बाल संवारे नए कपड़े दिलाए और धीरे-धीरे मुस्कानें भी लौटा दीं। सोनू आँगन में झाड़ू लगाता नीम के नीचे बैठकर रामबाबू को अखबार सुनाता और शाम को दोनों चौपाल तक जाते जहाँ रामबाबू अपने पुराने साथियों से बातें करते।लोगों को लगा कि रामबाबू का बुढ़ापा अब अकेला नहीं रहा। गाँव वालों ने पूछा

किसका बच्चा है रामबाबू उन्होंने मुस्कुराकर कहाअब मेरा है।सोनू पहली बार किसी ने मेरा कहा था।

वो शब्द उसके भीतर सीधे दिल में उतर गए।दिन बीतते गए। गाँव में मेले का मौसम आया। सोनू ने रामबाबू का हाथ पकड़ा और बोला

दादा हम भी चलेंगे।अरे क्यों नहीं चलेंगे।रामबाबू की आँखों में चमक लौट आई।मेले में सोनू के चेहरे पर बचपन फिर खिल उठा। उसने गुब्बारे देखे झूला देखा लकड़ी के घोड़े पर बैठा। अरसे बाद रामबाबू हँसे वह हँसी जो ग़मों की धूल पोंछकर आती है।सोनू ने मिट्टी की एक छोटी सी कार खरीदी और बोला दादा ये आपके लिए। आप तो कहते हो कि अब आँखें धुंधली हो गई हैं तो ये छोटी छोटी चीज़ें रखना याद रहेंगी कि मैं हूँ।रामबाबू का गला भर आया।

छोटा-सा उपहार था पर उसमें छिपा अपनापन संसार से बड़ा था।मगर दुनिया में जहाँ अपनापन हो वहाँ कुछ परीक्षाएँ भी होती हैं। एक दिन गाँव में ख़बर आई कि शहर में रहने वाला रामबाबू का बेटा मोहन छुट्टी पर गाँव आ रहा है। सोनू घबरा गया दादा अगर आपके बेटे को मैं अच्छा नहीं लगा तो अरे पगल तू मेरे दिल में बसा है। दिल से जो अपनाया जाता है उसे कोई नहीं हटा सकता।लेकिन मन का डर तर्क नहीं मानता। मोहन और उसकी पत्नी गाँव आए। घर में पैर रखते ही उन्होंने सोनू को देखा।

ये कौन है बहू ने आँखें सिकोड़ते हुए पूछा।हमारे साथ रह रहा बेटा है रामबाबू ने सादगी से कहा।बेटा? मतलब गोद लिया है आपने?बहू की आवाज़ में व्यंग्य था। गोद नही दिल में लिया है।रामबाबू ने कोमल लेकिन दृढ़ स्वर में कहा।

मोहन ने अनमने से कहा पिताजी ऐसे लोग पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं। आजकल जमाना खराब है सोनू ने यह सुना तो दिल में जैसे तूफ़ान सा उठा। उसे लगा वह सच में बोझ है। उसने रात को गठरी बाँधी और धीरे से घर से निकलने लगा। लेकिन रामबाबू जाग चुके थे।सोनू कहाँ जा रहा हैआँसू छलक आए दादा मैं बोझ हूँ। आपका अपना बेटा कह रहा है मैं बीच में नहीं आऊँगा आप खुश रहना

रामबाबू ने काँपते हाथों से उसका चेहरा थामा। अरे पगले अपनेपन की छाँव खून से नहीं दिल से बनती है। तू मेरा है। जैसे सांस मेरा है जैसे यादें मेरी हैं।

मगर

इस घर में कोई जाएगा वह मोहन जाएगा तू नहीं।यह सुन मोहन के अंदर कुछ टूट गया। उसे पहली बार एहसास हुआ कि पिता को उसने अकेला छोड़ दिया था और यह बच्च यह तो पिता की छाँव बन गया था मोहन की आँखें नम हो गईं। वह सोनू के पास गया।माफ करना भाई मुझे समय लगा समझने में।सोनू पहली बार किसी ने उसे भाई कहा था।उसने रोते हुए मोहन को गले लगा लिया। समय के साथ सोनू बड़ा हुआ। गाँव के स्कूल में पढ़ा फिर शिक्षक की नौकरी पाई। हर सुबह वह बच्चों को पढ़ाता शाम को रामबाबू के साथ नीम के नीचे बैठता।

एक दिन रामबाबू की साँसों की डोर धीरे-धीरे शांत होने लगी। सोनू ने उनका हाथ पकड़ा रखा। दादा मुझे मत छोड़ना रामबाबू मुस्कुराए।अरे मैं कहाँ जा रहा हहूं तू तो मेरी धड़कनों में है। देख अपनत्व की छाँव कोई जगह नहीं कोई दीवार नहीं यह तो दिल में बसी होती है तेरा मेरा संबंध हमेशा रहेगा और नीम की धीमी छाँव में हवा की फुसफुसाहट और मिट्टी की महक के बीच रामबाबू नींद में ही विदा हो गए। सालों बाद गाँव के स्कूल के बाहर एक बोर्ड लगा

शिक्षक सोनू रामबाबू स्मृति विद्यालय

सोनू बच्चों को सिर्फ किताबें नहीं इंसानियत भी सिखाता था। वह अक्सर कहता बच्चों दुनिया में खून के रिश्ते तो बहुत मिलते हैं पर अपनेपन के रिश्ते बहुत कम जिन्हें पाना संभालना और सीने से लगाकर रखना यही जीवन की सबसे बड़ी दौलत है। और नीम का वही पुराना पेड़ अब भी छाँव देता था

पहले रामबाबू को फिर सोनू को

और अब आने वाली पीढ़ियों को क्योंकि अपनेपन की छाँव कभी खत्म नहीं होती।

           के आर अमित 

अम्ब ऊना हिमाचल प्रदेश

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