अब से मैं ही आपका बेटा हूँ मां…… – सिन्नी पाण्डेय :  Moral Stories in Hindi

वंदनाजी अपने 9 साल के पोते को स्कूल वैन में बैठाकर अंदर आईं और अपने कमरे में निढाल होकर बैठ गईं। बहू नीलू आज दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल गई थी,वो एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका थी। नीलू के जाने से वंदना जी का दिल घबरा रहा था,उनको अपना ही घर काटने को दौड़ रहा था। 

दो महीने पहले यही घर हंसी-ठिठोली से गूंजता था, जब तक वंदना जी का बेटा यश सकुशल था।

(कहानी को समझने के लिए मैं आपको कुछ समय पीछे ले चलती हूं)…

 यश बेहद समझदार,जिम्मेदार और हंसमुख लड़का था। रिश्तेदारी में बहुत ज्यादा लोकप्रिय,सबका ध्यान रखने वाला,सबके सुख दुख में शामिल होने वाला और अपनी मां के लिए तो बिल्कुल श्रवण कुमार। इसकी वजह थोड़ी अलग भी थी

वंदना जी ने बहुत कम उम्र में अपने पति और बड़े बेटे को खो दिया था और बहुत संघर्ष करके घर चलाया और यश को अच्छे संस्कार दिए। परिवार की जिम्मेदारी और हालात को देखते हुए यश की पढ़ाई छूट गई और उसने एक दवा की दुकान पे नौकरी कर ली,बहुत कमाई नहीं थी पर पेट भरने और घर के साधारण खर्चे निकल आते थे। 

कुछ समय बाद यश ने एक दवा की बड़ी दुकान पे नौकरी की और अथक मेहनत की,पहले से कुछ परिवर्तन हुए और ज़िंदगी थोड़ी से आसान हुई। इसी बीच यश की मुलाकात नीलू से हुई और उसने वंदना जी को भी नीलू से मिलवाया। वंदना जी ने नीलू के मातापिता से बात करके अपनी वस्तुस्थिति  स्पष्टता से बता दी ,और नीलू की मनुहार मानकर उसके मातापिता ने यश के साथ उसका विवाह कर दिया।

नीलू भी स्कूल में पढ़ा रही थी,तो शादी के बाद भी उसने नौकरी जारी रखी और वंदना जी ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं । वो सुबह जल्दी उठकर दोनों का नाश्ता और टिफिन तैयार कर देतीं और फिर अपनी पूजा पाठ करके खुद नाश्ता करके आराम करतीं।

नीलू जब स्कूल से लौटकर आती तो दोनों सास बहू साथ बैठकर चाय पीते हुए अपनी अपनी बातें एक दूसरे को बतातीं। वंदनाजी अपने पिछले जीवन के कुछ वर्षों में इतने दुख देख चुकी थीं कि अब बेटे बहू के साथ सुकून के कुछ पल ही उनके लिए सबसे बड़ी खुशी देते थे।

शाम को जब यश दुकान से लौटता तब वंदनाजी की फुर्ती देखने वाली होती थी कि अपने बेटे को क्या स्वादिष्ट से स्वादिष्ट बना कर खिला सकें। वो मना भी करता कि,”मां,कुछ हल्का फुल्का बना लो,आओ मेरे पास बैठो,नीलू को भी कुछ करने दो,सुबह से रात तक लगी रहती हो,

” तो वंदनाजी हमेशा कहतीं कि बस तुम बैठो मैं दस मिनट में खाना तैयार करती हूं और बस फिर वो यश का मनपसंद खाना बना कर तैयार कर देतीं और रात का खाना तीनों साथ बैठकर खाते ।

एक साल बाद यश का एक बेटा हुआ जो वंदनाजी के लिए उनकी हृदय की धड़कन बन गया। बेटे को जन्म देकर छह महीने की छुट्टी के बाद जब नीलू ने दोबारा स्कूल जाना शुरू किया था तो उसका बच्चा सारा दिन अपनी दादी के साथ रहता।

वो बहुत अच्छे से सावधानीपूर्वक उसका ध्यान रखतीं और उसके साथ समय बिताकर उनको असीम सुख मिलता। बस अब यश ने उनको सख्ती से मना कर दिया था कि नीलू के स्कूल से लौटने के बाद आप सिर्फ आराम करेंगी,पोते के साथ इसी तरह हंसते खेलते नौ साल बीत गए।

यश अपनी मां और अपने बेटे का प्यार देखता तो बहुत खुश और संतुष्ट होता। नीलू भी वंदनाजी का बहुत ध्यान रखती थी।

इसके साथ ही यश बिना कहे वंदनाजी की दवाई और हर जरूरत का ध्यान रखता । कभी कभी वंदना जी खुद ही कहने लग जाती कि इस दुनिया का सबसे अच्छा बेटा उनके हिस्से में ही आ गया।

देखते देखते यश ने अपना खुद का दवा का काम शुरू कर दिया और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया,उसने अपने घर में सारी सुख सुविधाएं जुटाईं । अब लगने लगा था कि सब कुछ सम्भल गया है,सब ठीक हो गया है।

एक दिन नीलू के घर से खबर आई कि उसकी छोटी बहन जो मेरठ में रहकर पढ़ाई कर रही थी उसकी तबियत अचानक खराब हो गई और डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए हैं। नीलू ने यश को बताया तो यश फौरन नीलू को लेकर मेरठ ले लिए निकला

और बेटे को घर पर वंदनाजी के पास छोड़ दिया। वो लोग जब दूसरे दिन वहां से वापसी कर रहे थे तो  घर पहुंचने के एक घंटे पहले यश की गाड़ी का भीषण एक्सीडेंट हो गया और यश ने मौके पर ही दम तोड़ दिया। नीलू बेचारी अकेली रास्ते में फंसी पति का मृत शरीर साथ में लिए

दया की भीख मांगती रही। नीलू का एक हाथ और एक पैर टूट गया था, वो बेचारी खड़ी भी नहीं हो पा रही थी। जब वो अपने पिता को बुलाकर किसी तरह घर पहुंची तो वंदना जी सर पटक पटक कर चीत्कार कर रोने लगीं।

उनको इससे बड़ा दुख और क्या मिल सकता था कि उनके कलेजे का टुकड़ा उनकी आंखों के सामने दुनिया से चला गया और वो जो उनकी हर छोटी बड़ी बात का ध्यान रखता था,जो अपनी जिम्मेदार प्रवृति के चलते बेटा कम पिता ज्यादा महसूस होता था,उसके जाने के बाद अब उनके जिंदा रहने का मकसद ही क्या रह गया था। अब तो उनको चारों तरफ अंधेरा ही दिख रहा था।

यश को अंतिम विदाई देने के बाद वंदनाजी और नीलू एकदम निर्जीव हो गईं। दोनों एक दूसरे को हिम्मत देतीं और थोड़ी देर बाद एक दूसरे से लिपट कर रोने लगती थीं। बस अपने पोते के सामने वंदना जी बहुत हिम्मत से काम लेती थीं

ताकि छोटे से बच्चे को इस अथाह दुख का आभास न होने पाए। नीलू भी कोशिश करती कि अपने बेटे के सामने कमजोर न पड़े आखिर अब वही तो सहारा था दोनों का। नीलू के हाथ पैर ठीक होने में बहुत समय लग गया।

यश की बुआजी लगभग पंद्रह दिन साथ में रहीं फिर वो भी चली गईं। बीस दिनों बाद वंदनाजी ने पोते को स्कूल भेजना शुरू कर दिया जिससे वो इस दुख भरे माहौल से थोड़ी देर ही दूर हो सके। सास बहू लिपट कर रोते रोते एक दूसरे का सहारा बनतीं और अगले ही पल फिर यश की यादें दोनों को कचोटने लगती।

समय बीतने के साथ अब घर के खर्चे सर पे खड़े होकर तंग करने लगे थे तो नीलू ने वंदनाजी से कहा,”मां अब दो महीने होने जा रहे हैं,मैं स्कूल जाना शुरू करूं वरना अब घर कैसे चलेगा। आपकी दवा भी खत्म हो गई है,

बेटे की फीस जमा करनी है,बिजली का बिल,घर का राशन,सिलेंडर सब कुछ करना है। अभी तक यश थे, तो मुझे कोई चिंता नहीं थी, उलटा मेरी तनख्वाह तो बचत में चली जाती थी पर अब सब कुछ बदल चुका है। अब सब कुछ मुझे ही देखना है।”

वंदनाजी ये सुनकर अपने आंसुओं का सैलाब रोक नहीं पाईं,पर बहू को हिम्मत देने के लिए बोलीं,”अपने दुखों के साथ मैने जीना सीख लिया था बेटा,पर यश के निश्छल प्रेम और जिम्मेदारी के भाव ने उन दुखों पर मरहम लगा दिया था,

उस पर तुम जैसी बहू मिली तो लगता था कि ईश्वर की बड़ी कृपा हो गई मुझ पर। पर बेटा विधि के विधान के आगे तो सब ही हारे हैं,ये मेरे तुम्हारे दोनों के कर्मों का ही कोई फल होगा वरना ईश्वर से कहां कोई गलती होती है। अच्छी आत्माओं की जरूरत ईश्वर को भी होती है ,

तभी तो मेरा बेटा चला गया वरना जाने की उम्र तो मेरी थी। अब तुम अपने बेटे पर ध्यान दो और उसे अच्छे से पढ़ाओ लिखाओ बाकी किसी चीज की चिंता मत करो। हम दोनों कम में भी गुजर बसर कर लेंगे बस मेरे पोते को किसी चीज की कमी न हो ।”

नीलू रोते हुए सास के गले लग कर बोली,” नहीं मां, मैं कोशिश करूंगी कि जैसे यश घर चलाते थे,वैसे ही ये घर चले,उनका हर अधूरा सपना अब मैं पूरा करूंगी। अब से मैं ही आपका बेटा हूं,मां…..। वंदना जी ने नीलू को गले लगाकर बोला,” हां मेरी बच्ची ,अब से तू ही मेरा बेटा है,तू ही बहू है, अब हिम्मत से काम लो बेटा,मै तुम्हारे साथ हूं।” 

अगले दिन सुबह नीलू स्कूल के लिए तैयार हो गई आज दो महीने बाद स्कूल जा रही थी,सालों से स्कूल जाने में और आज जाने में बहुत बदलाव आ चुका था। बेटा भी अपने स्कूल जा चुका था,बस अब घर में वंदना जी अकेले अपने बेटे की यादों को पिरो रही थीं और पोते और बहू के घर लौटने का इंतजार कर रही थीं।

सिन्नी पाण्डेय

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