सुहानी और आकाश की शादी को दो ही साल हुए थे। मगर इन दो सालों में आकाश की एक आदत बार-बार सुहानी को भीतर तक चोट पहुँचाती रही। वह कभी अपनी पत्नी की तारीफ़ नहीं करता था। उसके शब्द हमेशा दूसरों की पत्नियों, भाभियों और कलीग्स की तारीफ़ में ही निकलते। कभी पड़ोसन रीना के बनाए नाश्ते की, तारीफ़,कभी ऑफिस की नितिका की स्मार्टनेस की, तो कभी रिश्तेदारों की बहुओं की साड़ी और उनके अंदाज़ की।
उसकी तो आदत ही हो गई थी।
इसी के चलते एक रात खाना खाने के बाद जब वह मोबाइल पर फेसबुक और इंस्टाग्राम देख रहा था, उसे पड़ोस में रहने वाली अलका भाभी की अपने पति के साथ घूमने की तस्वीरें दिखीं।
तस्वीर देखकर आकाश चहक उठा और बोला—
“देखो सुहानी, अलका भाभी कितनी स्मार्ट लग रही हैं। इनकी चॉइस देखो… क्या ड्रेस पहनी है। तुम इनसे पूछो, इन्होंने ये ड्रेस कहाँ से ली हैं, तुम भी ऐसे ही बन कर रहा करो।”
सुहानी ने हल्की मुस्कान ओढ़ ली, मगर इस बार चुप न रही।
पहली बार उसने धीमे स्वर में कहा—
आकाश, जब आप किसी दूसरी की पत्नी की तारीफ़ करते हो, तो भला मुझे अच्छा कैसे लगेगा? सोचकर देखिए—अगर मैं भी पड़ोस के मिस्टर शर्मा या मिस्टर नारंग की तारीफ़ करने लगूँ, तो क्या आपको अच्छा लगेगा? आप तो तुरंत मुझ पर शब्दों के वार कर दोगे कि औरत होकर किसी आदमी की तारीफ़ कर दी। तो फिर जब पति किसी दूसरी औरत की तारीफ़ करता है, तो उसकी पत्नी के दिल को चोट नहीं लगती क्या?
सबका अपना अंदाज़ होता है, आकाश… मेरा अंदाज़ अलग है रहने का।”
आकाश थोड़ी देर के लिए चुप हो गया, लेकिन उसके स्वभाव के मुताबिक उसने फिर कोई न कोई जवाब दे ही दिया। यही उसकी आदत थी।
धीरे-धीरे सुहानी का धैर्य टूटता गया। एक दिन उसने धीमे स्वर में कहा—
सुहानी: “बहुत दिन हो गए आकाश… मेरा अपने पीहर जाने का मन कर रहा है। वैसे भी मम्मी–पापा बार-बार फोन कर रहे हैं। मैं थोड़े दिन वहाँ रहकर आ जाऊँगी।”
आकाश उस समय मोबाइल देख रहा था। उसने बिना किसी भाव के कहा—
आकाश: “ठीक है, चली जाओ।”
सुहानी चली गई। आकाश अपने दिन वैसे ही गुज़ारने लगा जैसे रोज़ गुज़रते थे। ऑफिस जाता, शाम को लौट आता।
लेकिन चार–पाँच दिन बाद अचानक उसे अजीब सी थकावट महसूस होने लगी। जैसे शरीर काँप रहा हो और ताक़त साथ नहीं दे रही हो। ऑफिस में उसने अपनी क्लीग नितिका, सें कहा मुझे ज़रा घर तक छोड़ दोगी? मेरा शरीर बिल्कुल साथ नहीं दे रहा।”
नितिका ने फाइलों में सिर झुकाए ही जवाब दिया
आज तो बहुत काम है… बॉस ने टारगेट पूरा करने को बोला है ।आप किसी और से बोल दीजिए।”
उसकी बात सुनकर आकाश का दिल भीतर तक चुभ गया। उसे याद आया कि वह कितनी बार नितिका की तारीफ़ करता था—उसकी स्मार्टनेस, उसकी एक्टिवनेस की। और वही आज उसकी एक छोटी सी मदद के लिए तैयार नहीं थी।
ऑफिस बिल्डिंग के नीचे आते-आते उसका शरीर तपने लगा। तेज़ बुखार की लपटों ने उसे जकड़ लिया और बड़ी मुश्किल से वह घर पहुँचा।
उसने काँपते हाथों से सुहानी को मेसेज किया—
सुहानी, हालत बहुत खराब है।तेज़ बुखार हो गया है ।
ये जान सुहानी को थोड़ा महसूस तो हुआ कि जाना चाहिये पर वो रुक गई और बोली
नहीं आकाश, जिनकी तारीफ़ करते थे न, उन्हीं को बुला लो। वही तुम्हें खिला देंगी, दवा दे देंगी।”तुम्हारा ध्यान रखेंगी ।
आकाश ने माँ को फोन लगाया।
माँ, बहुत तेज़ बुखार है…”
माँ: “बेटा, तेरे बाबूजी भी बीमार हैं और मेरे जोड़ों का दर्द बढ़ गया है। मैं नहीं आ सकती। हाँ, अगर तू आ जाए तो ठीक है।”
आकाश: “मुझसे उठा भी नहीं जा रहा, माँ…”
माँ: “तो बहू को ही बुला ले बेटा। वही है जो तेरा साथ निभाएगी।”
आकाश ने फिर से मेसेज किया—सुहानी, इस बार मज़ाक नहीं कर रहा… हालत सही नहीं है।”छाती में बलगम,खाँसी और साँस भी लेने में दिक्कत हो रही है ।
सुहानी ने धीमे स्वर में जवाब दिया—
आकाश, मैं नहीं आ सकती। तुम्हें तो मैं कभी ठीक लगी ही नहीं। जिनकी तारीफ़ करते थे, उन्हें फोन करो। वो भागी भागी आएँगी तुम्हारा ध्यान रखने ।वो रीना तुम्हारे लिए अच्छा सा नाश्ता बना कर लाएगी जिनकी तारीफ़ करते थे ।आज सुहानी तंज कस रही थी ।
और दो दिन आकाश अकेले बुखार में तड़पता रहा।
काम वाली बाई आशा ने बस उसको चाय बना कर दी और खिचड़ी बना दी और यह कहकर निकल गयी कि उसे और भी काम है ।
अब उसकी ज़ुबान के सारे ताने अब उसी पर लौटकर चोट कर रहे थे।
आख़िर तीसरे दिन सुबह दरवाज़े की घंटी बजी। उसने मुश्किल से दरवाज़ा खोला—सामने सुहानी थी, हाथ में फल और दवाओं की थैली लेकर ।वह बिना कुछ कहे बिस्तर तक आई, माथे पर पट्टी रखी और दवा दी।और बोली अभी डॉक्टर के पास चलेंगे ।
फिर धीमे स्वर में बोली—
“मुझे माँ–पापा बहुत फ़ोर्स कर रहे थे कि जा बेटी तेरा पति तकलीफ़ में है। भूल जा कि वो तुझे ऐसे कहता है।
तुम्हें क्या पता कि मुझे भी फील हो रहा था कि मुझे तुरंत उसी वक्त बस पकड़कर यहाँ आना चाहिये ।लेकिन आकाश, मैं दो दिन तक इसलिए नहीं आई… मैं तुम्हें दिखाना चाहती थी कि देख लो, जब ऐसे हालात होते हैं न, तब इंसान को सबसे पहले किसकी ज़रूरत पड़ती है।
आकाश की आँखें झुक गईं। पहली बार उसने महसूस किया कि गलती उसी से हुई थी।
पति अक्सर पत्नी से पंगे लेते रहते हैं, दोस्तों की महफ़िलो में अपनी पत्नी से ज़्यादा दूसरो को अधिक समझते है ।लेकिन जब कठिन परिस्थितियाँ किसी इंसान से पंगा लेती हैं न, तो साथ निभाने के लिए पत्नी ही खड़ी होती है।आज वो महसूस कर रहा था ।
और तभी ज़िंदगी ने जैसे उसके कान में सच फुसफुसा दिया—
“अजनबियों की चमक हमेशा दूर से भली लगती है, लेकिन असली पहचान तब होती है जब अंधेरे में हमारे लिए दीया जलाने वाला कोई खड़ा होता है ।
ये कहानी कैसी लगी?
ज्योति आहूजा
#अपनों की पहचान