“आप अपने बेटों के साथ क्यों नहीं रहते ” रमन के इस सवाल ने कैलाश जी को झकझोर दिया था।
“मैं एक पिता हूं ना की कोई चीज जिसे घर का एक कोना तो दे दिया जाता है लेकिन दिलों में स्थान नहीं। जहां हर पल मेरे सम्मान को ठेस लगती है। कभी हमारे पहनावे को लेकर कभी बोली – भाषा को लेकर। जिन बच्चों को समाज में उठने – बैठने लायक बनाया आज वो ही मुझे उस समाज के
काबिल नहीं समझते हैं। अपने आपको बच्चों के बीच में बांटते हुए जब देखा तो कलेजा फट गया था रमन। छोटी सी तनख्वाह में किसी चीज की कमी नहीं आने दिया।खुद के लिए तो हम पति-पत्नी कभी जीए ही नहीं सिर्फ एक ही सपना देखा करता था की मेरे बच्चे इस काबिल बनें की उनको कभी भी
किसी चीज के लिए दूसरों का मुंह ना देखना पड़े और अपनी भावनाओं को दबा कर ना चलना पड़े। ईश्वर ने सारे सपने साकार कर दिए थे और मैं पूरे गांव में सीना तान कर चलता था की मेरे बच्चे बहुत काबिल हैं “
मैं खुशी – खुशी सबकुछ छोड़कर उनके साथ रहने लगा था। धीरे धीरे अहसास हुआ कि मेरी वहां किसी को जरूरत ही नहीं थी। बहुएं एक कप चाय के लिए भी ताना मारतीं थीं। सब्जी भाजी लाना, बच्चों को स्कूल पहुंचाना और ज्यादातर घर से बाहर रहना पड़ता था क्योंकि उस माहौल में दम घुटने
लगा था। बेटों को कोई मतलब नहीं था। दवाइयां भी मंगाने के लिए दस बार सोचना पड़ता था।सब अपने परिवार के साथ घूमने चले जाते कई बार तो दिन का बासी भोजन छोड़ जाते की ” पापा गरम करके खा लीजिएगा।”
दम घुटने लगा था मेरा और मैंने वहां से निकलना बेहतर समझा था रमन।रमन से कैलाश बाबू का कहते- कहते गला भर आया था।रमन सिंह पड़ोसी थे सारी उम्र दुख सुख साझा किया था। रमन के प्रश्न ने उन्हें बताने पर मजबूर किया था कि वो ‘ अपने बेटों के साथ क्यों नहीं रहते ‘।
रमन औरतें तो बहुत हिम्मत वाली और सहनशील होती हैं वो पति के जाने के बाद बेटे बहू के पास कैसे भी गुजारा कर लेती हैं। रसोईघर में हांथ बंटाकर, बच्चों को बड़ा करने में मदद करके। सभी को
ज़रूरत होती ही है और जब मुफ्त की काम करने वाली मिल जाए तो काम चला लेता है परिवार । लेकिन आदमी के लिए ये सब आसान नहीं होता है और औरत के जाने के बाद आदमी बहुत असहाय हो जाता है क्योंकि पूरी उम्र उस पर ही आश्रित रहता है।
“सभी को अपनी स्वतंत्रता प्रिय है। मैंने यहां एक नौकरानी रख लिया है जो मेरी अच्छी तरह से देखभाल करती है और मेरे छोटी – बड़ी जरूरतों को भी समझती है। मैंने फैसला लिया है की अपनी पेंशन से उसके बच्चों को पढ़ने लिखने में मदद करूंगा और मेरे बेटी नहीं थी इसलिए उसकी बेटी की
शादी करवाऊंगा। भगवान की कृपा से ना तो इतने शौक हैं की काम ना चले।” कैलाश जी अब कड़क शब्दों में अपनी बात कह रहे थे।उनकी बातों से उनके सही निर्णय की झलक दिखाई दे रही थी।
” अच्छा किया भइया आप गांव आ गए। जहां पूरा जीवन बीता है वहीं की मिट्टी में सुकून भी मिलता है। यहां सारे परिवार अपने ही हैं। हम सभी ने अब तक जैसे मिलजुलकर जिंदगी गुजारी है आगे भी
गुजर जाएगी और जीवन कितना बचा ही है।ना जाने ऊपर वाले का कब बुलावा आ जाए और आंखें बंद तो कौन सा परिवार कौन सी औलाद” रमन छोटे भाई की तरह समझा रहा था कैलाश जी को।
“सही कहा रमन अब तो मोह माया का भ्रम भी टूट गया है। ईश्वर की भक्ति और अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीनी है। ” कहते हुए दोनों दातून लेकर खेत की ओर निकल गए।
जिंदगी एक सफर है जहां ना जाने कितने मापदण्ड से गुजरना पड़ता है।हर उम्र की अपनी अलग जरूरतें होती हैं और इंसान खुद को मशीन की तरह रगड़ता रहता है कभी अपने लिए कभी अपनों के
लिए। यही तो मोह माया है और मनुष्य जीवन मिला है तो हर किसी को इस दौर से गुजरना भी पड़ता है। किसी की अच्छी कट जाती है तो कोई कैसे भी काटता है आखिर तक कटना ही है जब तक शरीर में प्राण हैं।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी