आग में घी डालना – प्रतिमा श्रीवास्तव

आग में घी डालना( लघुकथा)

सासू मां को मैं फूटी आंख नहीं सुहाती थी। किसी तरह उनके दिल में जगह बनाना शुरू ही किया था कि छोटी ननद आकर मेरे खिलाफ भड़का दी थी।

उस दिन मुझे बहुत दुख हुआ था कि बहू कितनी भी कोशिश कर ले ससुराल को अपना बनाने की लेकिन उसे कभी भी अपना नहीं समझा जाता है। आखिर दीदी भी तो किसी के घर की बहू थीं, फिर उन्होंने क्यों ऐसा किया था। ये बात मेरे दिल को बहुत चुभी थी।

नंदिता आज बहुत उदास थी तो पति राजेश के पूछने पर वो सबकुछ कह दी थी। राजेश को भी बहुत दुख हुआ था क्योंकि नंदिता की कोशिश उसे दिखाई देती थी लेकिन मां एक तो करेला ऊपर से दीदी नीम पर ही चढ़ाती रहतीं थीं। इससे घर का माहौल दिन प्रतिदिन बिगड़ने लगा था।

दीदी उसी मोहल्ले में रहतीं थीं तो उनका घर के मामले में बहुत हस्तक्षेप रहता था। यहां तक की मम्मी सारी सलाह राय बात दीदी से ही लेती थी। नंदिता का काम सिर्फ घर के कामों से मतलब रखना था। अगर वो कुछ कहना चाहती तो मम्मी जी तुरंत ही कह देती कि,” नंदिता तुम तो रसोईघर संभाल लो वही बहुत है।”

एक दिन नंदिता ने कहा कि,” मम्मी जी आप दीदी को क्यों परेशान करतीं हैं? मुझे भी तो कुछ करने का मौका दीजिए। मैं भी अपने घर के तौर-तरीके सीखना चाहतीं हूं।” इतना कहना था की छोटी दीदी मुंह फुलाकर बैठ गई और मम्मी जी को जो कहा जिसने आग में घी डालने का ही काम किया था।

मम्मी आप बता दो की भाभी को मेरा आना जाना अच्छा नहीं लगता तो नहीं आऊंगी। आखिर ये मेरा घर है और मैं राय नहीं दूंगी तो कौन देगा? भाभी चाहतीं हैं की मैं मेहमानों की तरह आऊं और चाय पानी करूं चली जाऊं।”

बस क्या था मम्मी जी बरस पड़ी थी नंदिता के ऊपर कि,” ये घर मेरी बेटी का भी है और जब तक मैं जिंदा हूं उसका हक बराबर का रहेगा।चार दिन आए हुए नहीं तुम्हें और हक जताने लगी हो इस घर पर।”

नंदिता हक्की-बक्की सी रह गई थी।मेरा तो ये मतलब था ही नहीं। मम्मी जी और दीदी ने तो बात को रबड़ की तरह खींचा था। आज उसने जबाब देने का मन बना लिया था और बोली कि,” मम्मी जी दीदी का हक हमेशा रहेगा

इस घर पर लेकिन ये उनका मायका है ये बात भी उनको और आपको समझनी होगी।ये घर मेरा भी है और आप जिस तरह से मुझे नजर अंदाज करती हैं वो मुझे नहीं पसंद है।आपको बहू और बेटी का अर्थ समझना होगा।”

मम्मी जी बुरी तरह से भड़क उठी थी लेकिन नंदिता को बहुत हल्का महसूस हो रहा था की उसने अपने मन की बात रखी थी।

परिवर्तन इतनी जल्दी तो नहीं आना था पर दोनों लोग अपने दायरे में थोड़ा – थोड़ा आने लगे थे। कभी कभी रिश्तों पर पड़ी धूल छांटने के लिए बुरा बनना पड़ता है।

नंदिता को भी कभी कभी मौका मिलने लगा था घर की बातचीत में अपनी राय रखने का।

समय आने पर मम्मी जी भी समझने लगीं थीं की नंदिता ही काम आएगी उनके बुढ़ापे में। नंदिता भी खुश थी क्योंकि अब वो घर उसे पराया नहीं लगता था।

                                प्रतिमा श्रीवास्तव                                 नोएडा यूपी

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