सेवानिवृत – मधु वशिष्ठ

        मोहन जी बिस्तर पर लेटे हुए थे, सुमित्रा जी सोफे से वाकर के सहारे चलती हुई मोहन जी के बिस्तर तक जाकर फ्लास्क में से पानी को गिलास में डालकर उन्हें दवा देने लगी और बोली आज शांताबाई  कह कर गई है

कि अब वह 5 दिन बाद राखी का त्यौहार मना कर ही आएगी। 5 दिन के खाने के लिए टिफिन वाले को बोल दिया है। हूंऊंऊं, मोहन जी बोले। अभी तक झाड़ू पोछा और डस्टिंग करने गायत्री भी नहीं आई ना? सुमित्रा जी बोली सब अपनी मनमर्जी के मालिक है, जब मन करेगा तब आएंगे।

पॉश कालोनी के इतने बड़े घर में बैठे हुए कारपोरेशन के सेवानिवृत्त कमिश्नर मोहन जी और उनकी पत्नी सुमित्रा को देखकर वास्तव में ही यह पंक्तियां चरितार्थ होती है कि समय बड़ा बलवान है। 

         अभी लगभग साल पहले ही तो मोहन जी सेवानिवृत हुए हैं, उससे पहले सरकारी आवास में नौकरों से घिरे हुए दोनों जन किसी को इंसान ही कहां समझते थे। सबसे बड़े अफसर की पत्नी होने के कारण स्वत: ही सुमित्रा जी वहां के लेडिस क्लब की प्रधान थीं।अधिकारी की पत्नी होने के नाते वह किसी भी कर्मचारी पर रोष प्रकट करना 

अपना अधिकार समझती थी। चाटुकार ड्राइवर चपरासी और अन्य मातहत लोग भी सुमित्रा के अहंकार की तुष्टि करते ही रहते थे।  

      केवल कॉलोनी में ही नहीं, उन्हें लगता था कि सब उनसे केवल कुछ मांगना ही चाहते हैं। यही कारण था कि उनका अहंकार इतना बड़ा चढ़ा था कि उन्होंने मोहन जी के परिवार में भी सबसे नाता ही तोड़ रखा था। मोहन जी की दो छोटी बहने थीं।

जिनमें से एक के पति तो गांव में खेती ही करते थे और दूसरी बहन के पति रोडवेज में बस कंडक्टर थे। उनके बड़े भाई दिल्ली हाईकोर्ट में क्लर्क थे। अब सुमित्रा जी को मोहन जी का पूरा परिवार मखमल में टाट का पैबंद ही लगता था।

कहने को तो कुछ समय वह संयुक्त परिवार में भी रही थी परंतु वहां पर उन्हें लगता था कि हर सदस्य उनके पति को लूटने के लिए बैठा है और जिस दिन मोहन जी को सरकारी आवास मिला उन्होंने लगभग ससुराल से नाता ही तोड़ दिया। मोहन जी अक्सर सुमित्रा जी को बिना बताए अपनी माताजी और परिवार वालों से मिलने के लिए उनके पास चले जाते थे। 

बहनों की शादी में भी मोहन जी ने काफी योगदान दिया था।  मोहन जी के पिताजी तो  बहुत पहले स्वर्ग सिधार चुके थे ,

छोटी बहनों के विवाह में मां और भैया ने भी कम खर्च नहीं किया था, परंतु मोहन जी भी छिप-छिपा कर  परिवार के लिए बहुत कुछ करते रहते थे।  परंतु बहनों की शादी के बाद सुमित्रा ने सबको इतने ताने मारे थे कि मोहन जी का सारा किया कराया बेकार ही हो चुका था।उसके बाद तो वह अपने सरकारी आवास में आ ही गए थे। 

        सरकारी मकान में ही उनका पुत्र कुणाल हुआ था। कुणाल के जन्म की उन्होंने अच्छे होटल में 1 साल बाद पार्टी रखी थी परंतु सुमित्रा जी की आशा के विपरीत पार्टी में उनके ससुराल से सब लोग आए थे परंतु बहनों ने भी उनसे पुत्र होने के उपहार स्वरूप कुछ भी नहीं मांगा था। 

सबके जाने के बाद सुमित्रा जी हमेशा मोहन जी से यही कहती थी कि तुमने जरूर बहनों को कुछ छुपा कर दिया होगा। मोहन जी कुछ नहीं बोले परंतु यह भी सच था कि मोहन जी हमेशा सुमित्रा से छुपा कर ही अपने परिवार के लिए कुछ ना कुछ करते थे और अपनी माता जी से मिलकर आने के बाद भी सुमित्रा को कभी कुछ नहीं बताते थे।

माता जी की मृत्यु के समय भी सुमित्रा मोहन जी के परिवार में जाकर ऐसा नहीं करती रही।  रक्षाबंधन पर राखी बंधवाने के लिए भी बहने हमेशा मोहन जी के पास दफ्तर में ही आया करतीं थी। बड़े भाई के बच्चों को भी मोहन जी ने सुमित्रा से छिपकर ही पढ़ने के लिए कुछ पैसे इत्यादि देते रहते थे।

      अपने पुत्र कुणाल को 12वीं के बाद ही उन्होंने इंजीनियरिंग करने के लिए विदेश में भेज दिया था और वहां ही अब वह नौकरी भी कर रहा था।

कुणाल में भी माता-पिता के लिए एकमात्र भावना यही थी कि मोहन जी उसे पैसे भेजते रहें। इंजीनियरिंग करने के बाद कुणाल की नौकरी भी वहां ही लग गई थी अगर वह कभी भारत आता तो वह यहां  भी अधिकतर अपने दोस्तों में ही व्यस्त रहता था।

     मोहन जी ने पौश कॉलोनी में अपना 500 गज का बहुत सुंदर घर बनवा लिया था जिसमें कि वह सेवानिवृत्ति के उपरांत शिफ्ट हुए थे परंतु अपने घर में आकर उन्हें हर रिश्ते की कीमत बखूबी समझ आ गई थी। वह चाटुकार लोग जो कि सरकारी कॉलोनी में उनके हर काम को करके खुद को

अनुग्रहित समझते थे अब मोहन जी के कई फोन करने के उपरांत भी फोन उठा ही नहीं रहे थे। आस पड़ोस में भी सभी संभ्रांत और संपन्न लोग थे जहां कि अकारण किसी के भी घर में घुसने और हाल-चाल पूछने का चलन नहीं था।

छोटे से छोटे काम के लिए भी मजदूर मनमाना समय और मनमाने पैसे लेते थे इसके विपरीत सरकारी आवास में तो कुछ भी काम के लिए उनकी सेवा में सब तत्पर ही रहते थे। घर का सीवर रुकने पर उसको साफ करवाना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया था, मनमाने पैसे देने के बावजूद भी कोई अपना समय उनको देने को तैयार नहीं था। 

      अकेलापन, अवसाद या अपनी दफ्तर की पुरानी यादें जाने ऐसा क्या दुख हुआ कि एक दिन मोहन जी को दिल का दौरा पड़ गया था। ठीक तो वह हो गए थे, औपचारिकतावश उनके घर के लोग भी मिलने आए थे परंतु सुमित्रा को देखकर किसी ने भी वहां ज्यादा समय नहीं लगाया।

घर आने पर कुछ समय के लिए उनके लिए एक अटेंडेंट भी लगाया गया। अब पहाड़ जैसे दिन  काटने मुश्किल हो रहे थे। रिटायरमेंट के बाद जीवन में इतना फर्क पड़ जाता है क्या? समस्या आर्थिक से ज्यादा मानसिक थी।  कुछ समय पहले वर्मा जी के लिए चाय लाते हुए सुमित्रा का भी पैर फिसल गया था और उनके भी पैर में प्लास्टर बंध गया था।

सुमित्रा के भी माता-पिता तो थे नहीं और अपने भाई भाभियों का उपहास उड़ाने में उसने कभी कसर छोड़ी भी नहीं । दफ्तर के लोग तो उनके पद से हटते ही बदल चुके थे। सुमित्रा जी को कोई भी रिश्ता अपना नहीं लग रहा था।

          तभी दरवाजे पर डोर बेल बजी, घिसटते हुए सुमित्रा जी ने दरवाजा खोला तो देखा मोहन जी की दोनों बहने आई हुईं थी। सुमित्रा ने उनकी और हैरानी से देखा तभी मोहन जी ने कहा अब  यह दफ्तर तो आ नहीं सकती थी, भाई के पास ही थी

इसलिए मैंने बहनों को घर पर ही राखी बांधने को आने के लिए कह दिया था। तभी बहनों ने कहा हमने सोचा इतवार को तो घर पर भी सब लोग आएंगे और दूसरे भैया के ही जाना है तो क्यों ना हम आज ही आपसे मिल लें। इससे पहले कि सुमित्रा कुछ बोलती दोनों बहनों ने जो की मोहन जी के बड़े भाई के घर पर ही आई हुई थी,

उन्होंने बहुत सारा खाना निकाला और कहा भाभी आप बैठी रहो हम सब मिलकर खाना खाएंगे । सुमित्रा भी अपनी बिचारगी पर आज वास्तव में ही रो पड़ी तो दोनों बहनों ने बोला भाभी परेशान मत हो,

अबकी हमने यह फैसला किया है कि मैं राखी तक आपके पास रखूंगी और बड़ी दीदी भैया के पास चली जाएगी। अपने आप को अकेला मत समझो। हम सब साथ हैं रिटायरमेंट के बाद तो अब हम सबके पास सिर्फ समय ही तो है जो हम मिलजुलकर बिता लेंगे। आज उनका आना सुमित्रा को भी अच्छा ही लग रहा था जी हां रिटायरमेंट के बाद कई बार तो दुनिया ही बदल जाती है क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? कमेंट्स में बताइए?

मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा।

रिटायरमेंट विषय के अंतर्गत

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