कर्मों का चक्र तो चलता ही रहता है। – मधु वशिष्ठ

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          बहुत समय बाद भावना को एक सेमिनार के सिलसिले में दिल्ली आना पड़ा। पूरी रात मां के साथ पुरानी यादें ताजा करते रहे। क्योंकि सेमिनार स्थल उनके पुराने घर के पास था तो भावना ने सोचा  कि वह ताई जी और ताऊ जी से मिलकर ही सेमिनार स्थल पर जाएगी।

  उनका बचपन उसे पुराने घर में ही बीता था आगे ताई जी का घर था और पीछे उनका, आगे ही दादी भी बैठी रहा करती थी । उस घर में बीच में कोई दीवार नहीं थी ‌।दादी की डांट का तो कोई असर ही नहीं होता था। ताई जी के चारों बच्चे और भावना की दोनों बहने और भाई भी आगे ताई जी के घर में ही  खेलते रहते थे। परंतु जब तक ताऊ

जी घर में रहती तब तक कोई आवाज नहीं आती थी। ताऊ जी की उपस्थिति और एक हिटलर की उपस्थिति एक बराबर थी। सवेरे उठते ही ताऊ जी की कड़क आवाज पूरे घर में गूंजती थी । वह उठते ही ताई जी को जी भर के गालियां देते थे ।

यह तो दादी थी, जो “ताऊ जी को हाथ उठाने से रोक देती थी “वरना वह उन्हें गंवार और भी जाने क्या क्या कहते थे । उनका ऐसा बोलना किसी को भी अच्छा नहीं लगता था । भावना को याद आ रहा था कि ताऊ जी के निकलते ही पीछे वाले घर से वह और उसके भाई बहन

सब खेलने के लिए ताई जी के पास आ जाते थे। ताई जी ने कभी भी अपने और पराए बच्चों में फर्क नहीं समझा । किसी बच्चे को कभी नहीं डांटा।

          धीरे धीरे उनकी दोनों बेटियों की भी शादी हो गई और दोनों भाइयों की शादी के बाद घर में दो बहुएं भी आ गई। पापा और ताऊ जी की कुछ समय बाद दुकान अलग हो जाने के कारण  भावना के माता-पिता भी थोड़ी दूर

शिफ्ट हो गए थे। मां ने रात को बातें करते हुए ताई जी के बारे में बताया कि दोनों बेटों की शादी होने के बावजूद भी  ताई जी  वैसे ही काम करती रहतीं थीं। ताऊजी बहुओं के सामने भी ताई को बहुत अपमानित करते थे। बहुएं  तो उन्हें गंवार नहीं लगती थी।उनसे तो तुम तुम कहकर बोलते थे। बहुएं भी ताऊ जी को प्रभावित करने का एक भी अवसर हाथ से जाने नहीं देती थीं। ताई जी अब भी सारा दिन काम करती हुई

यही सोच कर खुश रहतीं थीं कि कोई बात नहीं अपने बच्चों का ही तो  काम कर रही हूं। ताई जी के दोनों बेटों ने भी बाद में अपना अपना काम अलग कर लिया था ।बड़ा बेटा घर छोड़कर जा चुका था। छोटा बेटा और बहू दोनों नौकरी करते थे और ताई जी का पोता हॉस्टल में पढ़ता था। ताऊ जी की उपेक्षा और  घर में गहराए खालीपन ने

ताई को मानसिक रूप से विक्षिप्त  कर दिया था। अक्सर वे अब सब कुछ भूल जाती थीं, या कभी पुराना समय याद करके अपने आप बातें करती रहती थीं। ताई जी की तो हमेशा  सबने उपेक्षा की ही थी, अब जैसे-जैसे ताऊ जी का भी रुबाब कम हो रहा था और शारीरिक अस्वस्थता बढ़ रही थी तो बच्चों द्वारा वह भी उपेक्षित ही होते थे। ताई इस हालत में भी उनके लिए खाना और पानी का पूरा ख्याल रखने की कोशिश करती थीं।

    दूसरे दिन पुरानी यादें ताजा करते हुए भावना 5:00 बजे ताऊ जी के घर पहुंची सेमिनार 7:00 बजे था। घर को देख कर के हर पुरानी याद जीवंत हो उठी थी ।दादी ,भाई , बहनों के साथ खेलना सब कुछ चित्रपट के जैसे आंखों के सामने घूम रहा था।  घर पहुंच कर पहली बार डोर बेल बजाई ,वरना ताई जी का घर तो हमेशा खुला ही रहता था। दरवाजा उनके नौकर ने खोला। ताई जी और ताऊ जी कमरे में पलंग पर बैठे थे। दूर-दूर तक दवाइयों की महक आ रही थी। ताऊजी चलने फिरने  मे असमर्थ थे, पर सदा बोलती रहने वाली ताई जी एकदम चुप थी। ताऊजी भावना को देखकर बहुत खुश हुए, और ताई जी से बोले! पहचाना है तुमने ?देखो तो कौन आया है? जीवन में पहली बार ताऊ जी को ताई जी से इतने प्यार से बोलते हुए सुना। ताई जी ने जवाब दिया, हां मैं पहचान गई ।भावी आई है।  फिर बोलीं,” चल भावी बच्चों के पास  घर चलते हैं”। ताऊ जी यह सुनकर उदास हुए और ताई जी से बोले यही तो घर है तुम्हारा,  तुम मालिक हो इस घर की”।   ताऊ जी फिर भावना की और देख कर बोले बोले बेटा कर्मों का चक्र तो यूं ही चलता रहता है, तब मैं अपने गुरूर में था शायद तो मैंने इसे बहुत तंग किया  तभी तो आज यह इस हालत में आ गई है ।अब मैं चाहूं तो मर भी नहीं सकता, क्योंकि मेरे बाद इसका क्या होगा? यही ख्याल मुझे हर समय सताता रहता है। मैंने कभी इसको सम्मान नहीं दिया इसके काम की कीमत नहीं जानी, वैसे ही यह काम की मशीन बनकर बच्चों के लिए भी यूं ही मरती रही परंतु आज जब बच्चे अपने में व्यस्त है और मैं भी कुछ नहीं कर पाता और अपना गुरूर बहने के बाद आज मुझे अपने व्यवहार पर बहुत दुख होता है। परंतु अब मैं कुछ भी बदल नहीं सकता। कभी ना बोलने वाले ताऊजी लगातार बातें करते जा रहे थे। ताई जी अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी। नौकर पानी और चाय लेकर आ गया था।भावना को भी देर हो रही थी और यह सब देखकर उसे भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था वह उठी तो ताऊ जी बोले और रुक जा ,तेरी भाभी अभी दफ्तर से आती ही होगी  तो तू कुछ खा कर चली जाना। नहीं ताऊजी मुझे देर हो रही है,  पनियाली आंखें लिए भावना भी बाहर निकल आई थी।

 अब ताऊ जी को ताई जी की कीमत समझ में आई भी ,तो क्या फायदा?    पर ,—— काश! ताऊ जी ने यह सब बातें पहले समझ ली होती और ताई जी का ख्याल और सम्मान किया होता तो  तो आज नज़ारा शायद कुछ और ही होता।

     पाठकगण कर्मों का चक्र तो यूं ही चलता रहता है, बस अपने कर्मों पर ध्यान दीजिए आपका क्या ख्याल है? कॉमेंट्स द्वारा सूचित करें। 

मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा

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