“कैसी वसीयत बनाई पिताजी ने! ज़मीन, मकान, कुछ भी पूरी तरह से हमारा नहीं। हर चीज़ में मम्मी की हिस्सेदारी… जब तक वह ज़िंदा हैं, तब तक कुछ भी हमारा नहीं।” —बहू अंजली ने होंठ सिकोड़ते हुए कहा।
“मैं भी यही सोच रहा हूँ। पेंशन तो वैसे ही उन्हें मिलती रहेगी। फिर भी पिताजी ने वसीयत में साफ़ लिख दिया कि उनकी सारी संपत्ति पर मम्मी का अधिकार रहेगा। यह सब जानते हुए भी ऐसी वसीयत बनाना… मैं सचमुच हैरान हूँ।” —बेटा अरुण चिंता से बोला।
गोविंद प्रसाद को गुज़रे अभी महीना भी नहीं हुआ था, और बेटे-बहू ने असली रंग दिखाना शुरू कर दिया।
सावित्री देवी सब समझ रही थीं। कुछ बोलती नहीं थीं, मगर मन ही मन उन्हें सब महसूस हो रहा था—कैसे उनके अपने बच्चे अचानक बदल गए हैं। पति के जाने का दर्द अभी ताज़ा ही था, उस पर बेटे-बहू की स्वार्थी बातें उन्हें और घायल कर रही थीं।
उन्होंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया—
“अच्छा हुआ, गोविंद जी अपने जीते-जी सब अपनी सोच के अनुसार तय कर गए। मुझे बेटियों की तरफ से कोई चिंता नहीं। दोनों अपने घरों में सुखी हैं, कभी कोई लालच नहीं दिखाया। और मेरी पेंशन इतनी है कि मुझे बेटे-बहू के सामने हाथ फैलाने की नौबत नहीं आएगी।”
उनकी आँखें छलक आईं—
“खुद तो मुझे अकेला कर गए, मगर ऐसा इंतज़ाम कर गए कि मैं किसी पर निर्भर न रहूँ।”
उम्र के उस पड़ाव पर जब जीवनसाथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उसी समय उनका चला जाना बेहद कष्टदायक होता है। और अगर बच्चे भी स्वार्थ दिखाने लगें, तो यह दर्द असहनीय हो जाता है।
अरुण और अंजली दोनों इसी चिंता में थे कि प्रॉपर्टी का कोई भी हिस्सा माँ के हस्ताक्षर के बिना नहीं बिक सकता। वे यह भी जानते थे कि माँ सब कुछ अपने साथ लेकर नहीं जाएँगी। आगे-पीछे सब कुछ उनका ही होगा। मगर उन्हें नाराज़गी इस बात से थी कि पिताजी उन्हें माँ पर निर्भर बना गए।
अंजली अक्सर कहती—
“हम तो जैसे कठपुतली बनकर रह गए। जब तक सासू माँ ज़िंदा हैं, हम कुछ भी अपने हिसाब से नहीं कर सकते।”
अरुण भी हाँ में हाँ मिलाता, मगर माँ के सामने कुछ नहीं कह पाता।
एक दिन दरवाज़े पर दस्तक हुई। वृद्धाश्रम से कुछ लोग आए थे।
“मम्मी, वृद्धाश्रम से लोग आए हैं, चंदा माँग रहे हैं, दे दीजिए।” —अंजली ने नाराज़गी भरे स्वर में पुकारा।
वह लोग एक-दूसरे को देखने लगे। तभी सावित्री देवी बाहर आकर बोलीं—
“भाइयों, बहनों, आप लोग तो जानते ही हैं। गोविंद जी नेकदिल और व्यवहार-कुशल समाजसेवक थे। उनके प्रयासों से ही आपकी संस्था को इतनी पहचान मिली। आज हमारी संस्था को किसी से चंदा लेने की ज़रूरत ही नहीं। बड़े-बड़े प्रायोजक खुद आकर कार्यक्रमों को सहयोग करते हैं। उसी से बेसहारा बुज़ुर्गों का पालन-पोषण हो रहा है।”
एक व्यक्ति बोला—
“आपकी बहू ने हमारी पूरी बातें सुने बिना ही आपको आवाज़ लगा दी।”
सावित्री देवी मुस्कुरा दीं—
“जी, मैं अपनी बहू की तरफ़ से माफ़ी माँगती हूँ। उसे पता नहीं था कि उसके ससुर संस्था के कोषाध्यक्ष थे। उसने उन्हें हमेशा हिसाब-किताब करते देखा। नासमझी में समझी नहीं होगी।”
वह व्यक्ति बोला—
“हम तो गोविंद जी की याद में संस्था में एक छोटी-सी प्रतिमा लगा रहे हैं। उसका अनावरण आपके हाथों से हो तो हमें गर्व होगा। उनके लिए तो हम सब कहते हैं—वह अपने नाम को सार्थक कर गए, अमर हो गए।”
सावित्री देवी की आँखें भर आईं। सोचने लगीं—
“जो इंसान समाज के लिए इतना कुछ कर गया कि अजनबी लोग भी उनकी पूजा कर रहे हैं, वही इंसान अपनी ही औलाद की नज़रों में गलत साबित हो गया।”
संस्था के लोग चले गए। अरुण बाहर आया और बोला—
“मम्मी, कितना ले गए? पेमेंट चेक से किया या कैश में?”
सावित्री देवी बिना जवाब दिए अपने कमरे में चली गईं।
अरुण और अंजली आपस में कहने लगे—
“लगता है माँ ने संस्था में प्रतिमा बनवाने के लिए काफी पैसा दे दिया। हमसे छुपाकर काम कर रही हैं। अब तो मालकिन वही हैं।”
अगले दिन सावित्री देवी बेटे-बहू के साथ संस्था पहुँचीं। वहाँ गोविंद प्रसाद की प्रतिमा का अनावरण उनके हाथों से हुआ। प्रतिमा के नीचे लिखा था—
“प्रिय पत्नी सावित्री देवी और पुत्र अरुण-अंजली की ओर से”
यह देखकर अरुण और अंजली को झटका लगा। वे सोच रहे थे—माँ ने हमें बताए बिना यह सब कैसे कर लिया।
जब संस्था के सदस्य गोविंद प्रसाद के बारे में बोलने लगे, तो पूरा हॉल भाव-विभोर हो गया।
“गरीब लड़कियों के सामूहिक विवाह में उनका योगदान याद रहेगा।”
“विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई।”
“बुजुर्गों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने अनगिनत योजनाएँ चलाईं।”
हर बात पर तालियाँ गूंजतीं। लोग गोविंद प्रसाद का नाम आदर से ले रहे थे।
अरुण और अंजली सिर झुकाए बैठे थे। उनकी नज़र में पिताजी तो बस एक सरकारी अफ़सर थे, जो अकसर टूर पर रहते थे। आज समझ आया कि असली पहचान तो सेवा और कर्म से होती है।
घर आने के बाद अरुण और अंजली सावित्री देवी के पास गए।
“माँ, हमें नहीं पता था कि संस्था की तरफ़ से पिताजी की प्रतिमा लग रही है। इसलिए हमसे ज़्यादा बातें निकल गईं। हमें माफ़ कर दीजिए।”
सावित्री देवी बोलीं—
“बेटा, मतभेद होना बुरा नहीं। पर मनभेद नहीं होना चाहिए। पिताजी के पास कभी इतना पैसा नहीं था, फिर भी तुम्हें महंगे स्कूल-कॉलेज में पढ़ाया। विचारों को लेकर तुम दोनों में मतभेद रहे, यह पीढ़ियों का अंतर हो सकता है।
लेकिन वसीयत को लेकर जो रवैया तुमने दिखाया, उससे मैं आहत हुई।
बेटा, तुम आज आरामदायक कमरे में बैठे हो, हर सुविधा ऑनलाइन पा रहे हो। मगर इन सबके पीछे उस इंसान का त्याग और पसीना है। छोटी-सी नौकरी से बच्चों को पढ़ाना, शादी-ब्याह करना आसान नहीं। उसने अपनी कितनी इच्छाओं का गला घोंटा, ताकि तुम्हारी पूरी कर सके।
और आज तुम्हें वही पिता गलत लग रहे हैं क्योंकि उन्होंने मुझे तुम्हारा मोहताज नहीं बनाया।”
सावित्री देवी की आँखें भर आईं।
“बेटा, कमी तेरे पिता में नहीं, तुझमें रही। तू जीते-जी उनका विश्वास नहीं जीत पाया। देख ले, तेरी बहनों में से कोई तेरे ऊपर निर्भर नहीं। यह बात क्या कम है? उन्होंने कोई कर्ज़ नहीं छोड़ा। बल्कि संस्था तक को आत्मनिर्भर बना गए। और तू… अपनी माँ के एक हस्ताक्षर से परेशान है।”
अरुण माँ के पैरों में गिर पड़ा।
“माँ, आज संस्था में जाकर समझ आया कि मेरे पिताजी क्या थे। लोग क्यों उन्हें इतना सम्मान देते हैं। आज जो उनके बारे में सुना, तब समझ आया कि इंसान की असली पहचान क्या है।
अब मैं कसम खाता हूँ कि आपको कभी शर्मिंदा नहीं करूँगा। और कोशिश करूँगा कि पिताजी के पदचिह्नों पर चल सकूँ।”
उसकी आँखों से आँसू बह निकले, जो सावित्री देवी के पैरों को भिगो गए। माँ ने बेटे को सीने से लगा लिया।
सावित्री देवी जान गई थीं कि शायद बेटा और बहू अब भी पूरी तरह नहीं बदले, मगर कहीं न कहीं उनके दिल में पिता की सच्चाई उतर गई है।उन्होंने मन ही मन सोचा—
“धन और संपत्ति कभी स्थायी नहीं होती। असली विरासत है संस्कार और सेवा। यही वह धन है जो कभी खत्म नहीं होता।”