विंडो सीट भाग – 5 – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

हर बार समीर के होंठों तक आते-आते सवाल रुक जाता। उसके मन का एक हिस्सा कहता—“सवाल पूछकर क्या करोगे? जो बीत गया, उसे बदल तो नहीं सकते।“ और दूसरा हिस्सा कहता—“नहीं, तुम्हें सच जानना ही होगा, वरना ये शक तुम्हें ज़िंदगीभर कचोटता रहेगा।”

वर्षों बाद आज फिर वही बातें  …भीतर का शोर और कमरे की खामोशी… अब दोनों पर भारी पड़ रही थी।

———–अब आगे————-

सुमन के दिमाग़ में भी पुरानी बातें ही घूम रहीं थीं कि कैसे उसने और उसकी माँ ने समीर को पाने का ज़ाल रचा था । दरअसल कॉलेज के दिनों से ही सुमन समीर को दीवानों की तरह चाहती थी । पर समीर और सुरभि की मुलाक़ात के बाद सब कुछ बदलने लगा। इससे पहले की सुमन समीर को अपने दिल का हाल बतलाती, समीर ने उसे अपने और सुरभि के बारे में सब कुछ बता दिया । इस बीच वो सुरभि से मिल भी चुकी थी । पर वो अपने दिल का क्या करती जो सिर्फ़ समीर के लिए ही धड़कता था । सुमन की माँ भी समीर को अपने दामाद के रूप में देखना चाहती थीं । इसी वज़ह से माँ -बेटी ने सारी फ़िल्मी कहानी रची थी।

उस रात, जब समीर सुमन के घर से गया था, कमरे का दरवाज़ा धीरे से बंद होते ही सुमन की माँ ने गहरी सांस ली।

माँ: “देखा? मैंने कहा था, इससे अच्छा लड़का तुझे नहीं मिलेगा, सुमन।”

सुमन मन ही मन डरते हुए बोली, “माँ… चाहती तो मैं भी यही थी पर झूठ बोलकर शादी करना… ये सही रहेगा क्या?”

माँ: “सही-गलत का वक्त नहीं है, बेटी। मैंने ज़िंदगी में कितनी लड़कियाँ देखी हैं, जिनके पास घर-गाड़ी सब होता है, पर एक अच्छा, जिम्मेदार पति नहीं मिलता? और समीर… वो तो सोने जैसा है। पढ़ा-लिखा, समझदार, और सबसे बड़ी बात—रिश्तों की कदर करने वाला।”

सुमन: (धीमे स्वर में) “पर माँ, अगर उसे सच्चाई पता चल गई तो?”

माँ: “एक बार शादी हो जाने दे… फिर देख, वो तुझसे कभी अलग नहीं होगा। ऐसे लड़के वचन निभाते हैं, चाहे कुछ भी हो जाए। और तूने देखा नहीं, आज ही मैंने जैसे ही तेरे दुःख, हमारी इज्जत की बात की, वो बिना बहस किए मान गया। बहुत संस्कारी है वो।”

इतना बड़ा झूठ बोलने की वजह से सुमन के भीतर उथल-पुथल थी, उसके भीतर दो भाव आपस में टकरा रहे थे – 

एक ओर अपराधबोध था तो दूसरी ओर समीर को पाने की अनकही खुशी। 

यह वो खुद भी जानती थी कि जिंदगी में मौका बार-बार नहीं मिलता। चूँकि झूठ तो वो बोल ही चुकी थी, अब तो बस आगे ही कदम बढ़ाना था।  

इस बात के कुछ ही दिनों बाद, सुमन और समीर ने कुछ दोस्तों की मौजूदगी में कोर्ट मैरिज कर ली। इस शादी में सुमन की तरफ से भी किसी को शामिल नहीं किया गया था। अगर ऐसा होता तो शायद आगे जाकर समीर के पेरेंट्स का उन्हें अपनाना शायद नामुमकिन ही हो जाता।

शादी के बाद समीर और सुमन के रिश्ते का कुछ अलग ही समीकरण बन जाने की वजह से, पहले-पहल दोनों के बीच औपचारिक-सा व्यवहार था। पर समय बीतने के साथ साथ सब नार्मल हो गया था । इस दौरान समीर के माता-पिता की तबीयत बिगड़ गई और माता – पिता की मर्जी न होने के बावजूद समीर छुट्टी लेकर कुछ दिनों के लिए घर आ गया। इधर सुमन ने बिना किसी कहे, खुद को उनकी सेवा में झोंक दिया—दवाइयों से लेकर खाने-पीने तक, हर चीज़ का ध्यान। धीरे-धीरे, उसके व्यवहार ने घर का माहौल बदल दिया। सुमन का रिश्ता समीर के माता-पिता के साथ और भी गहरा होने लगा। चाहे समीर के साथ रहते रहते, उसे काम की आदत नहीं थी, पर ससुराल में वह सुबह -सुबह, सबसे पहले रसोई में पहुँच जाती—समीर के पापा के लिए बिना चीनी की चाय, और मम्मी के लिए हल्की अदरक वाली चाय बनाकर उनके साथ ही बैठ जाती।

एक दिन मम्मी ने चाय का प्याला हाथ में लेते हुए कहा — “सुमन, तेरे हाथ की चाय में न जाने क्या है… पीते ही थकान उतर जाती है।”

सुमन मुस्कुरा दी— “बस, थोड़ी अदरक और ढेर सारा प्यार, मम्मी।”

पापा भी अख़बार से नज़र उठाकर बोले— “बेटा, तूने तो घर की रौनक लौटा दी। पहले तो हम दोनों बस अपने-अपने कमरों में पड़े रहते थे।”

इन शब्दों में जो अपनापन था, वह सुमन के लिए सबसे बड़ा तोहफ़ा था। वह जानती थी वे उसके और समीर के बिन किसी को बताए शादी करने की वजह से वे लोग उनसे नाराज़ थे। पर अब उनकी नाराजगी दूर हो चुकी थी। पापा-मम्मी के टहलने से लेकर, उनके डाइट का उसे पूरा ध्यान था।

एक दिन मम्मी ने समीर से कहा— “बेटा, पहले तो मुझे तुझसे नाराज़गी थी … लेकिन अब लगता है, भगवान ने हमारी उम्र के इस पड़ाव में हमें बेटी दे दी है। सुमन जैसी बहू हर घर को मिले।”

इतना ही नहीं, जो रिश्तेदार पहले इस शादी को लेकर शंकालु थे और समीर के माता-पिता को ताना मारने से भी नहीं चूकते थे, अब वही रिश्तेदार सुमन की तारीफ करते न थकते थे । समीर के मन में भी एक सुकून भी था कि कम से कम घर में खुशियां लौट आई हैं।

माता-पिता के ठीक होने के पश्चात् वे दोनों वापिस आ गए थे। समय के साथ साथ यादें भी फीकी पड़ने लगीं थीं। समीर ने धीरे-धीरे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को अपनाना शुरू कर दिया। घर, ऑफिस और सुमन—सब को संतुलित करने में दिन गुजरने लगे।

सारी जिम्मेदारियों और रिश्तों के बीच, फिर भी दिल का एक कोना…  उसके दिल का एक हिस्सा अब भी खाली था। वह हिस्सा, जिसमें कभी सिर्फ सुरभि थी—उसकी हंसी, उसकी बातें, उसकी खामोशियां। कभी-कभी रात के सन्नाटे में, जब सुमन पास सो रही होती, वह खिड़की से बाहर देखता और सोचता— “कितना अजीब है… मैंने सब पा लिया, पर वो नहीं, जो सच में चाहता था।”

वह जानता था कि अब सुरभि उसकी जिंदगी में नहीं लौटेगी। फिर भी, यादें ऐसे चिपकी थीं, जैसे किसी पुराने खत पर लगी सील—जिसे चाहे जितना खुरचो, उसका निशान कभी नहीं मिटता। 

सुमन के साथ उसका रिश्ता अब स्थिर था। लेकिन प्रेम? शायद वह कहीं पीछे, उसी विंडो सीट पर छूट गया था, जिधर से वह और सुरभि आखिरी बार गुज़रे थे। समीर ने अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना सीख लिया था — बाहरी दुनिया के लिए एक आदर्श पति और बेटा, लेकिन भीतर से… एक ऐसा यात्री था, जो अनजाने ही उस ठिकाने पर ठहर गया था, जहाँ उसका जाना कभी मक़सद ही नहीं था।

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अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

क्रमशः

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