विंडो सीट भाग – 3 – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ : Moral Stories in Hindi

समीर : जब ट्रेन चलने लगी, मैंने खिड़की के पार से देखा — तुम अब भी मुझे देख रही थी। जैसे मन ही मन कह रही हो — “अब और इंतज़ार नहीं। अब कोई शिकवा नहीं। बस… अलविदा।”

मैंने तुमसे बहुत कुछ कहा… मगर शायद जो सबसे जरूरी था, वो कह ही नहीं पाया।  

इसलिए आज इस आभासी दुनिया के माध्यम से अपनी कहानी लिख कर भेज रहा हूँ। काश ! घूमते-घुमाते यह तुम्हारे तक कभी तो पहुँचे।  शायद तुम इसे पढ़ लो और वो सच भी जान लो — “जो कभी कहा नहीं गया।”

———–अब आगे————-

ट्रेन में हुई उस मुलाक़ात को कई महीने बीत चुके थे, लेकिन समीर चाह कर भी कुछ भूल नहीं पा रहा था। उसके भीतर वह दृश्य अब भी जस का तस मौजूद था — वह बेचैन था मानो दिल पर रखा बोझ नासूर बन चुका हो। ट्रेन में मिले उस क्षण को याद कर वह रोज़ सोचता है — “काश, उसने मेरा सच सुन लिया होता। वो कुछ तो बोलती ?, कुछ तो शिकायत करती, क्या उसके मन में मेरे लिए कोई एहसास नहीं बचा है ? ” 

यह सब सोच – सोच कर वो पागल हुआ जा रहा था। वो किसी भी तरह अपनी कहानी सुरभि तक पहुँचाना चाहता था, इसलिए उस मुलाकात के तुरंत बाद उसने, अपने हिस्से का सच लिख लिखना शुरू किया था। वह लिखता गया… बिना रुके … वो विंडो सीट वाली मुलाक़ात, दस साल पुराना बिछड़ना, सुमन की मजबूरी, अपना डर, और वह अपराधबोध… जो आज भी उसे सोने नहीं देता था।

कहानी पूरी होने पर उसने उसे एक बार पढ़ा। हर पंक्ति में उसका दिल था, हर लफ़्ज़ को लिखते वक़्त उसकी आँखों में पानी था। उसकी जिंदगी की कहानी थी, इसलिए उसे सोशल मीडिया पर डालते हुए शीर्षक रखा — “जो कहा नहीं गया”। पोस्ट करते समय उसने न सोचा कि इसे कितने लोग पढ़ेंगे, न यह कि कोई उसे पहचान लेगा। वह यह भी भूल गया कि अब वो शादीशुदा है, उसकी पत्नी भी यह सब पढ़ सकती है। बस वो तो किसी भी क़ीमत पर, अपनी मजबूरी सुरभि तक पहुंचना चाहता था। लिखते वक़्त उसने बस इतना सोचा था कि जैसे इतने वर्षों बाद उसकी मुलाक़ात सुरभि से हुई थी — “शायद उसकी कहानी भी कभी उसके पास पहुँच जाए… उसकी सुरभि के पास।”

उधर, सुरभि और विनय सकून भरा जीवन जी रहे थे। सुरभि के लिए जीवन का मतलब सिर्फ़ कर्तव्य निभाना ही नहीं, बल्कि जीना भी था। वह अब एक लेखिका बन चुकी थी और सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहती थी। घर के कामकाज के बाद समय मिलने पर — नई-नई कहानियाँ पढ़ना, लेखकों की हौसला-अफ़ज़ाई करना उसकी रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा था। धीरे-धीरे उसने अपनी पहचान एक संवेदनशील लेखिका और विचारशील मित्र के रूप में बना ली थी । उसकी पोस्ट पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ, पाठकों की टिप्पणियाँ और साथी लेखकों का प्रोत्साहन — उसे नया आत्मविश्वास देते थे।

एक रात, किसी रीडर्स ग्रुप में उसे एक कहानी का लिंक मिला — “जो कहा नहीं गया”। शीर्षक देखते ही उसके भीतर कुछ खिंच-सा गया और उसने पेज खोल उसे पढ़ना शुरू किया।

और… फिर कहानी पढ़ते ही उसकी साँस थम गई। हर वाक्य जैसे उसकी आत्मा को झकझोर रहा था। वह बार-बार पढ़ते हुए खुद को अतीत की उसी पगडंडी पर खड़ा पा रही थी—जहाँ एक विंडो सीट के पास बैठी सुरभि और समीर की अधूरी बातें, चुप्पियाँ और अनकहे सवाल अब भी गूँज रहे थे। शब्द दर शब्द उसे उस बीते समय की ओर खींच ले जा रहे थे …  मानो किसी ने पुराने ज़ख़्मों पर अनजाने में नमक छिड़क दिया हो। यह कहानी पढ़ते-पढ़ते उसे एहसास हुआ कि यह कोई काल्पनिक रचना नहीं, बल्कि उसकी ही ज़िंदगी का सच है, जिसे अब तक उसने अपने भीतर दबाकर रखा था। जब तक कहानी समाप्त हुई, उसकी आँखें पूरी तरह भीग चुकी थीं। दिल ने मान लिया—यह समीर के हिस्से का सच था, उसकी आत्मस्वीकृति।

सुरभि ने धीमे से लैपटॉप बंद किया। कमरे में गहरी खामोशी थी, लेकिन उसके भीतर यादों का शोर मच रहा था। हर दृश्य, हर शब्द उसके सीने में गूंज बनकर रह गया। उसने सिर टिकाकर कुर्सी की पीठ से आँखें मूँद लीं, मानो खुद से ही सवाल कर रही हो— 

“क्या इन शब्दों का अब क्या कोई अर्थ बचा है? 

इतने वर्षों बाद यह सफाई मेरे लिए कितनी मायने रखती है? या यह सिर्फ़ उसका दिल हल्का करने का बहाना है? 

क्या समीर के कहानी लिख देने से मेरे वे तड़पते दिन वापस लौट सकते हैं, जब मैं उत्तर की प्रतीक्षा में तड़पती रही? 

क्या मेरे आँसुओं का हिसाब अब इन शब्दों से चुकाया जा सकता है?”

उत्तर साफ़ था—”नहीं… कभी नहीं।”

थोड़ी देर बाद उसने दोबारा लैपटॉप खोला और उस पेज पर लौट आई। नीचे कमेंट बॉक्स में कर्सर बार-बार ब्लिंक कर रहा था, जैसे उसे उकसा रहा हो कि कुछ लिख डालो । सुरभि ने काँपते हाथों से टाइप करना शुरू किया—

“समीर, शायद अब बहुत देर हो चुकी है, काश तुम…”

लेकिन उंगलियाँ अचानक ठिठक गईं। उसकी आँखें भर आईं। उसने बैकस्पेस दबाकर सारे शब्द मिटा दिए। स्क्रीन फिर से खाली हो गई। कुछ पल वह गहरी सोच में डूबी रही, फिर बिना कुछ लिखे बस पोस्ट को ‘like’ कर दिया।

वह जानती थी—कभी-कभी चुप्पी ही सबसे बड़ा उत्तर होती है।

और दूसरी तरफ, समीर को मोबाइल पर नोटिफिकेशन मिला — “Surabhi Sharma liked your post.”

वह नाम देखते ही उसके भीतर कुछ हिल गया। यह सुरभि थी, उसकी सुरभि।

“क्या सुरभि ने उसे माफ़ कर दिया?” उसने स्क्रीन को देर तक देखा। उस ‘like’ में न कोई सवाल था, न कोई जवाब, पर समीर के लिए यह एक इशारा था — कि उसकी बात वहाँ पहुँच गई है जहाँ वह पहुँचाना चाहता था।

उस रात दोनों ने अपने-अपने शहर में चैन की नींद सोई। दोनों जानते थे — कुछ कहानियाँ चुपचाप भी पूरी हो जाती हैं। 

आगे की कहानी पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करे-

window-seat-part-2anju-gupta-akshara

अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

————————————

पर क्या विंडो सीट का सफर अब सचमुच खत्म हो चुका था ?

Leave a Comment

error: Content is protected !!