अपनो की पहचान – नीरज श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

कभी-कभी जीवन में परिस्थितियाँ एक सी नहीं होती। कभी उतार तो कभी चढ़ाव लगा ही रहता है। जीवन के इसी उतार चढ़ाव ने आज नीरज को एक नई सीख दे डाली थी। कौन अपना, कौन पराया की परिभाषा नीरज नहीं बल्कि वक्त लिख रहा था। 

            नीरज पिछले दस सालों से एक ही हॉस्पिटल में काम कर रहा था। हॉस्पिटल के स्टाफ के साथ-साथ हॉस्पिटल के मालिक भी काफ़ी अच्छे और मिलनसार थें। शायद यही कारण था कि नीरज ने इतना लम्बा समय इस हॉस्पिटल को दे दिया था। लेकिन नीरज के जीवन में एक दौड़ ऐसा भी आया जब उसे अपने आप से एक समझौता करना पड़ा। यह दौड़ था कोरोना का दौड़।

              कोरोना एक वैश्विक महामारी जिसने रिश्तों को तार-तार कर दिया था। कोरोना ने बेटे को बाप का दुश्मन तो रिश्तेदारों और दोस्तों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया था। लोग एक दूसरे से दुरी बनाने लगे थे। कोई सामाजिक रिश्ता नहीं बचा था। अस्पताल के अस्पताल मृतकों से भरे पड़े थे लेकिन कोई भी उन्हें हाथ लगाने को राजी न था। सबको अपने जान की पड़ी थी क्योंकि कोरोना रूपी राक्षस एक के शरीर से दूसरे के शरीर को अपना शिकार बना रहा था।

             कम्पनियां बंद होने लगी, दुकान बंद होने लगे, लोग शहर छोड़ गाँव को जाने लगे। इसका असर उस हॉस्पिटल पर भी पड़ा जहाँ नीरज काम करता था। अचानक से हॉस्पिटल में मरीजों का आना- जाना कम होने लगा। जिससे हॉस्पिटल की आर्थिक स्थिति चरमराने लगी। नतीजा यह हुआ कि नीरज की सैलरी भी कम हो गई। जिसमें नीरज को गुजारा करना मुश्किल हो गया।

          आखिरकार नीरज ने वह फैसला ले लिया जिसके बारे में उसने कभी सोचा भी न था। नीरज ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और पहुँच गया अपने शहर मोतिहारी। नीरज को वहाँ घरवालोंं का सहयोग तो प्राप्त हुआ पर जीविका के लिए कोई ढंग का काम न मिला। कभी बाढ़ तो कभी कोरोना की दूसरी, तीसरी लहर ने शहर को अस्त-व्यस्त कर दिया। 

           पूरे एक साल इंतजार करने के बाद नीरज एक बार फिर अपनी किस्मत आजमाने वापस दिल्ली आ पहुँचा। पर यहाँ सब कुछ बदल चुका था। जिस हॉस्पिटल में नीरज काम करता था। उस हॉस्पिटल के मालिक की मौत कोरोना से हो चुकी थी। हॉस्पिटल को किसी और मालिक ने खरीद लिया था। नीरज के सामने एक नई चुनौती थी और वह थी एक नई जॉब को हासिल करना। 

      नीरज के पास रुकने का कोई ठिकाना न था। जो रिश्तेदार थे उन्होंने अपने दरवाजे पहले ही बंद कर लिए थे। किसी ने भी नीरज को अपने घर पर आश्रय न दिया। जो दोस्त थे वो भी किसी काम के न रहे। उन्होंने ने भी साफ-साफ मना कर दिया। 

             एक वक्त था जब नीरज के लिए उसके सारे रिश्तेदार और दोस्त उसके साथ खड़े रहते थे। लेकिन आज एक वक्त ऐसा भी था जब सभी ने नीरज से अपना मुँह मोड़ लिया था। शायद जॉब छूटने की वजह से नीरज अब उनके किसी काम का न था।

                    नीरज मायूस और परेशान था। कुछ समझ न आ रहा था कि वह क्या करें? कहाँ जाये? किससे मदद के लिए गुहार लगाये?

         तभी उसे कुछ याद आया। उसने अपनी जेब से मोबाइल निकाला और एक कॉल किया। नीरज ने जिसे कॉल किया था। वह माली रवि था। जो नीरज के साथ ही हॉस्पिटल में ही काम किया करता था। नीरज ने रवि से अपना हाल कह सुनाया।

रवि : सर, मेरे होते हुए आपको इतना सोचने की जरुरत नहीं है। जब तक आपको कोई नया काम नहीं मिल जाता। आप हमारे घर पर ही रहिए।

नीरज : पर रवि तुम्हारा घर तो बहुत छोटा है। मेरी वजह से तुम्हें परेशानी होगी। कोई और व्यवस्था हो तो बताओ।

रवि : साहब, मेरा घर भले ही छोटा है। पर  मेरा दिल बहुत बड़ा है। सर, यह तो मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आपके कुछ काम आ सकूंगा।

नीरज, रवि से तो बहुत कुछ कहना चाहता था। पर रवि के आगे वह निशब्द था। कुछ दिनों के संघर्ष के बाद नीरज को काम मिल गया और वह अपने फ्लैट में भी रहने लगा लेकिन नीरज आज भी यही सोचता रहता है कि जिन लोगों के लिए उसने सब कुछ किया। उन लोगों ने उससे अपना मुँह क्यों मोड़ लिया? वह लोग क्यों पराये हो गये? और जिस रवि के लिए उसने कुछ भी न किया। आखिर वह क्यों अपना हो गया?

(पूर्णतः सुरक्षित, स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित रचना)

लेखक : नीरज श्रीवास्तव

              मोतिहारी, बिहार

सीख : 

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि :  

1. बुरे वक्त में जो आपके साथ खड़ा हो वही आपका अपना है बाकी सब पराये हैं।

2. अपनों का घर भले ही छोटा हो। पर दिल बड़ा होता है।

नोट : कहानी कैसी लगी। प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा। आपकी समीक्षा हमारे लिए अमूल्य निधि है। धन्यवाद।

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